भारतीय राजनीति में महिलाएं हमेशा से ही पुरुषों की टार्गेट बनती आयी हैं। हालिया उदाहरण जया प्रदा, प्रियंका गॉंधी और सोनिया गॉंधी हैं।इसमें बड़ा विवाद जया प्रदा को लेकर है। वैसे विरोधी पार्टियां हमेशा से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालती रही हैं लेकिन हाल में कॉंग्रेसी प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने अपनी ही पार्टी में महिलाओं के सम्मान का मुद्दा उठाकर और इस वजह से पार्टी छोड़ने के उनके निर्णय ने हमें इस विषय पर गंभीरता से सोचने के लिए विवश कर दिया है।
प्रियंका ने अपने एक ट्वीट में कहा,
काफी दुखी हूं कि अपना खून-पसीना बहाने वालों से ज़्यादा कॉंग्रेस में गुंडों को तरजीह मिल रही है। मैंने पार्टी के लिए गालियां और पत्थर खाये हैं लेकिन इसके बावजूद पार्टी में रहनेवाले नेताओं ने मुझे ही धमकियां दी। जो लोग धमकियां दे रहे थे, वे बच गये हैं। उनका बिना किसी कार्रवाई के बच जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।
Deeply saddened that lumpen goons get prefence in @incindia over those who have given their sweat&blood. Having faced brickbats&abuse across board for the party but yet those who threatened me within the party getting away with not even a rap on their knuckles is unfortunate. https://t.co/CrVo1NAvz2
— Priyanka Chaturvedi (@priyankac19) April 17, 2019
गौरतलब है कि पिछले दिनों राफेल मामले पर आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान प्रियंका चतुर्वेदी के साथ उनकी ही पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने बदसलूकी की। पहले तो उनकी शिकायत पर कार्यकर्ताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया लेकिन अब दोबारा से उनपर हुई अनुशासनात्मक कार्रवाई को निरस्त करते हुए उन्हें पार्टी में शामिल कर लिया गया है।
कितने कमाल की बात है ना कि एक तरफ तो हमारे जनप्रतिनिधि महिलाओं को सदन में 33 फीसदी आरक्षण देने की बात कहते हैं और दूसरी तरफ, चुनावी रैलियों में की गयी राजनीतिक बयानबाज़ी में महिलाओं को निशाना बनाया जाता रहा है। पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश की रामपुर सीट से सपा प्रत्याशी आज़म खान द्वारा अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा उम्मीदवार जया प्रदा के खिलाफ कथित रूप से बेहद व्यक्तिगत अभद्र टिप्पणी किये जाने को लेकर बवाल मचा है।
दूसरी ओर, हिमाचल प्रदेश के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती ने राहुल गॉंधी के खिलाफ अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए उन्हें परोक्ष रूप से गाली दे डाली। जैसे-जैसे देश का चुनावी पारा ऊपर चढ़ता जा रहा है, नेताओं के बयानों का ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है।
पूर्व में भी महिलाओं पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले देखे गए हैं-
हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब किसी नेता द्वारा महिलाओं को लेकर अभद्र टिप्पणी की गयी हो। पूर्व में भी कई ऐसे मामले देखने-सुनने को मिले हैं। पहनावे, रूप-रंग या बर्ताव को लेकर आम महिलाओं सहित महिला राजनेताओं पर पुरुष नेताओं द्वारा अश्लील, अभद्र और अमर्यादित टिप्पणयां की गयी हैं। उनके काम को पारिवारिक कर्तव्य और वंशवादी राजनीति के विस्तार के रूप में देखा जाता है। सवाल है कि आखिर महिलाओं को लेकर ऐसी अभद्र टिप्पणियां करने का मकसद क्या है? क्यों किसी का अपमान करने के लिए उसके घर की मां-बहनों को टारगेट बनाया जाता है?
समय, साल और सत्ता बदल जाती है। उनके साथ इनमें से कई औरतों के नाम भी बदल जाते हैं पर मानसिकता वही रहती है और बयानबाज़ी के ओछेपन का स्तर बढ़ता ही जाता है। कई अन्य स्तरों पर बदलावों के दौर से गुज़रती राजनीति आज राष्ट्रहित का धर्म नहीं, बल्कि शक्ति प्रदर्शन का खेल बनकर रह गया है लेकिन इसमें औरतों से आज भी यही अपेक्षा की जाती है कि वे वैसी ही रहें, जैसी कई वर्षों पहले थीं।
फिल्म, टीवी, खेल, रजवाड़ों आदि किसी भी क्षेत्र से क्यों ना आएं, वे सिर पर पल्लू रखें, अपने पति, पिता, ससुर या बेटों की मनमर्ज़ी से अपने निर्णय लें, उनके प्रति वफादारी दिखाएं, समझदारी नहीं।
ऐसी स्थिति में महिला उत्थान की बातें कितनी बेमानी सी लगती है ना। राजनेताओं के बीच संवाद का गिरता यह स्तर लोकतंत्र पर एक गहरी चोट है। आखिर देश की राजनीति कब महिलाओं का उचित सम्मान करना सीखेगी?
राजनीति पर परंपराओं का बोझ है हावी
प्रियंका गॉंधी के सक्रिय राजनीति में कदम रखने के बाद बीजेपी सांसद हरीश द्विवेदी ने उनके पहनावे पर कमेंट करते हुए कहा था,
प्रियंका दिल्ली में रहती हैं, तो जींस और टॉप पहनती हैं और जब क्षेत्र में आती हैं, तो साड़ी और सिंदूर लगाकर आती हैं।
दरअसल, भारतीय राजनीति पर हमेशा से ही परंपराओं का बोझ हावी रहा है। उस पर से भी बात जहां महिलाओं की आती है, तब तो कहीं से भी चूक होने की अपेक्षा ही नहीं की जाती। आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी हमारी भारतीय संस्कृति में साड़ी पहननेवाली, लंबे बालों वाली, सिर झुकाकर चलनेवाली, धीरे बोलने वाली, मंद-मंद मुस्कुराने वाली, अपने पिता या पति की आज्ञा मानने वाली महिलाओं को ही ‘सुशील’, ‘संस्कारी’ और ‘चरित्रशील’ महिला माना जाता है।
जींस-पैट पहनते ही लोग उसे शक की निगाहों से देखने लगते हैं। उस पर से अगर वह अपने हक के लिए आवाज़ उठाने लगे, अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी जीने लगे और अपने साथ हो रहे गलत को ‘गलत’ कहने लगे, तब तो लोगों को उसका कैरेक्टर सर्टिफिकेट जारी करने में भी देर नहीं लगती। इसी वजह से महिला राजनीतिज्ञों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे हमेशा ‘संस्कारी महिला’ के इस आवरण में लिपटी रहें। वह भी आखिर इस देश का प्रतिनिधित्व करने जो निकली हैं।
राजनीति में महिलाएं अब भी हैं शो पीस
भारत की सक्रिय राजनीति को भले ही सीता और सावित्री चाहिए लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान या फिर पार्टी टिकट देते समय उनके शो पीस इमेज को ही कंसीडर किया जाता है। इसके ताज़ातरीन उदाहरण में हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया भादुड़ी, नगमा, रिमी सेन, इशा कोपिक्कर, उर्मिला मांतोडकर आदि हैं।
ये सारी महिलाएं भले ही बॉलीवुड की चर्चित या ग्लैमरस अदाकारा रही हों, बाकी राजनीति की समझ इन्हें कितनी है और ये उसे कितनी गंभीरता से लेती हैं, इसके बारे में आये दिन खबरों और अखबारों में पढ़ने-देखने को मिलता रहता है।
उदाहरण के तौर पर, फिल्म अभिनेत्री रेखा को वर्ष 2012 में राज्य सभा सांसद नामित किया गया था लेकिन अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने मात्र दो बार ही संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। ऐसे खूबसूरत चेहरों को पार्टी टिकट दिये जाने का बस एक ही कारण होता है और वह है, उनकी ग्लैमरस इमेज को भुनाना और उनके नाम पर वोट बटोरना।
दूसरी ओर, ऐसे चेहरों को भी आसानी से टिकट मिल जाता है, जो या तो किसी अपराधी और दबंग परिवार से ताल्लुक रखती हैं या फिर किसी पूर्व सांसद या विधायक की पत्नी अथवा बेटी हैं, जो जीतने के बावजूद ‘कठपुतली सरकार’ चलाने पर मजबूर होती हैं।
पार्टियां कहती हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में महिलाएं आना ही नहीं चाहतीं लेकिन लगभग हर चुनावों में हम देखते हैं कि कई निर्दलीय महिला प्रत्याशी भी चुनावों में उतरती हैं और उनमें से कई जीतती भी हैं, तो भी उन्हें किसी पार्टी द्वारा सपोर्ट क्यों नहीं मिलता? राजनीति में महिलाओं की सबसे बेहतर स्थिति पश्चिम बंगाल में देखने को मिलती है, जहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस से करीब 30 फीसदी महिलाओं को लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाया है।
विरोध के बावजूद रही हैं कामयाब
देश के राजनीतिक परिदृश्य में शुरू से महिलाओं की मौजूदगी कम बेशक रही है लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद महिलाओं में राजनीतिक चेतना का विकास तेज़ी से हो रहा है। उन्हें जब, जहां और जिस तरह से भी मौका मिले हैं, उन्होंने राजनीति के निचले पायदान से लेकर ऊपरी पायदान तक अपनी काबिलियत की छाप छोड़ी है।
देश की महिलाओं ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों को सुशोभित किया है।
धीरे-धीरे ही सही पर तमाम विरोधों के बावजूद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है लेकिन अभी भी उनकी संख्या को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में यदि महिलाओं की भागीदारी इसी तरह से कम रही तो लिंग असंतुलन को पाटने में 50 वर्ष से अधिक लगेंगे। ऐसे में उनकी भागीदारी को बढ़ाने और निर्णय प्रक्रिया में उन्हें शामिल करने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाये जाने की ज़रूरत है।