2014 के आम चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने महज़ 60 महीने मतलब पांच साल के लिए वोट मांगे थे लेकिन चुनाव परिणाम से यह ज़ाहिर था कि जनता ने उन्हें 10 साल के लिए अपना मत दे दिया है। भाजपा ने 2014 के आम चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन किया और सालों बाद एक पूर्ण बहुमत की सरकार बनी।
नरेंद्र मोदी जनमानस में एकाकी नेता के तौर पर उभरे। शुरुआती सालों में ऐसा लग रहा था कि नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल करने के बारे में सोचना ही बेमानी है। विपक्षी पार्टियों के पास मुद्दे तो थे लेकिन मोदी के सामने उनके मुद्दे चल ही नहीं पा रहे थे। कुछ ही विपक्षी पार्टियां रही जिन्होंने शिद्दत से मोदी का विरोध किया, बाकी मोदी के साथ नहीं तो विरोध में भी लगभग नहीं ही रह गए थे।
भारत के राजनीतिक इतिहास में किसी भी सरकार के पांच साल इतनी जल्दी नहीं गुज़रे होंगे। 2014 से 2019 की दूरी पांच साल की तो कतई नहीं थी। इसकी वजह राजनीति में टेक्नोलॉजी का आगमन था। टेक्नोलॉजी ने समय की गति को बढ़ा दिया था।
बहरहाल, अब 2019 के आम चुनाव सामने हैं। नरेंद्र मोदी, जिन्हें जनता ने दस साल का जनमत दिया था, उनके “एकाकी” नेता होने की छवि वहां पहुंच गई है जहां खुद भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल यह मानते हैं उनकी सीटें कम हो रही हैं। उन्हें सरकार बनाने के लिए शायद जोड़-तोड़ करना पड़ जाए या फिर सरकार ना भी बनें। कौन हारेगा और कौन जीतेगा इसकी भविष्यवाणी करना अभी उचित नहीं है।
पूर्ण बहुमत से जोड़-तोड़ की राजनीति तक पहुंचना ही मोदी जैसे एकाकी नेता की हार होगी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या हो गया जिससे मोदी की एकाकी नेता की छवि को धक्का लगा। इसके कारणों का विश्लेषण आवश्यक है।
पहली बात यह है कि नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि सारी विपक्षी पार्टियां मिलकर उन्हें हराना चाहती है। अब इसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं। या तो मोदी यह मान रहे हैं कि विपक्ष के बिखराव का फायदा उन्हें 2014 के चुनाव में मिला था। इसका मतलब उनकी छवि का असर कम ही था।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी विपक्ष के बिखराव को बरकरार नहीं रख पाए। राजनीति में यह महत्वपूर्ण है कि आपका विपक्ष भी एक दूसरे के विपक्ष में हो। मोदी ने विपक्ष को आपस में लड़ाने की बजाय उसे एक जगह लाकर खड़ा कर दिया। “काँग्रेस-मुक्त भारत” का नारा काँग्रेस तक सीमित नहीं रह पाया। यह डर उन्होंने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों में भर दिया, जिसके परिणामस्वरूप विपक्ष के पास आपसी मतभेद को छोड़ कर एक होने की वजह मिल गई।
एक और महत्वपूर्ण भूल यह हुई कि मोदी ने विरोध की आवाज़ को लोकतंत्र की आवश्यक विधा मानने की बजाय, खुद के खिलाफ समझा। मोदी की इस अलोकतांत्रिक सोच ने उनका सबसे ज़्यादा नुकसान किया। अब मोदी की छवि एकाकी नेता के तौर पर नहीं बल्कि एक निरंकुश नेता के तौर पर गढ़ी जाने लगी।
मोदी यह समझ नहीं पाए कि भारत का लोकतंत्र बहुत नीचे गहराई तक जा पहुंचा है। वह इसलिए भी क्योंकि भारत की बड़ी जनसंख्या को हज़ारों साल से सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से दूर रखा गया था। लोकतंत्र में उन्हें वह भागीदारी मिल रही थी। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर गढ़ी गई थी। मोदी इसमें से विरोध के स्वर हटा रहे थे।
उनकी तीसरी भूल थी भावनाओं की राजनीति करना। मोदी ने बड़े-बड़े वादे करके लोगों की भावनाओं का विद्युतीकरण तो किया लेकिन भावनाओं को लंबे समय तक ज़िंदा रखना ही सबसे कठिन कार्य है। मोदी भावनाओं को तर्क तक नहीं ले जा पाए। भावना और तर्क में विसंगति ने मोदी के भाषणों को भी कमज़ोर कर दिया।
चौथी बड़ी भूल थी विश्विद्यालयों पर हमला। दुनिया के किसी भी देश में विश्वविद्यालय बिल्कुल अलग ढंग से चलते हैं। ज़रूरी यह होता है कि विश्वविद्यालय को उसके वैश्विक चरित्र के साथ ही रहने दिया जाए। उसके चरित्र का राष्ट्रीयकरण करना सबसे बड़ी गलती होती है। स्कूल में ऐसा किया जा सकता है लेकिन विश्विद्यालय में यह सोचना ही खतरे को दावत देना है। मोदी ने पुराने शासकों से शायद यह सबक नहीं ली जिसके परिणामस्वरूप उनके विरोध के लिए अब राजनीतिक पार्टी की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि पूरा विश्विद्यालय ही उनके विरोध में खड़ा था।
पांचवी बड़ी भूल थी न्याय की अनदेखी करना। मोदी किसी खास आईडेंटिटी की राजनीति करके चुनाव जीत चुके थे इसलिए उन्होंने आईडेंटिटी को ही राजनीति बना दिया। यह सबसे बड़ी भूल थी। आईडेंटिटी सत्ता तक पहुंचने के लिए फायदेमंद हो सकती है लेकिन सत्ता में पहुंचते ही आईडेंटिटी को न्याय की संरचना में मिलाना ज़रूरी होता है। देश न्याय से चलता है, आईडेंटिटी से नहीं।
मोदी ने न्याय के साथ समझौता करना शुरू कर दिया था इसलिए उनकी एकाकी नेता होने की छवि भी गिरने लगी। शायद मोदी ने इतिहास से यह नहीं सीखा कि अपने समय के बड़े-बड़े जन नेताओं का भी पतन इन्हीं गलतियों के कारण हुआ। अगर मोदी सीखते तो न्याय के साथ खड़े होते।
मोदी न्याय की अवधारणा को ही नहीं समझ पाए। अगर समझते तो उनके शासन काल में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ जो अन्याय हुआ वह नहीं होता और मोदी के दस साल महज पांच साल में परिवर्तित नहीं होते। न्याय शासन का मूल होता है। इसकी अनदेखी करना ही सत्ता से बेदखल होने की पहली निशानी होती है।