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“हम कश्मीरी पंडितों को वोट के नाम पर बहलाने वाली पार्टियों से मेरी अपील”

प्रदर्शन की तस्वीर

प्रदर्शन की तस्वीर

इन काली सदियों के सर से,

जब रात का आंचल ढलेगा,

जब अंबर झूम के नाचेगी,

जब धरती नगमे गाएगी,

वह सुबह कभी तो आयेगी।

अपनी ही ज़मीन से भगाए गए कश्मीरी पंडित 30 सालों से इसी उम्मीद में जी रहे हैं मगर किसी को सुध नहीं है। चुनाव के वक्त हर पार्टी इन्हें याद करती है और वोट के बाद सब खत्म। राजनीतिक पार्टियों का असली चेहरा भी यही है।

लोकतंत्र के नाम रोज़ प्राइम-टाइम पर छाती पीटने वाले पत्रकार, शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारी के नाम पर छाती पीटने वाली पार्टियां, तमाम ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट, स्वतः संज्ञान लेने वाले कोर्ट, आज़ादी के नाम पर दंड-बैठक करने वाले JNU के छात्र, गुजरात के जातिवादी नेता और हर बात पर जंतर-मंतर पर पसर जाने वाले आंदोलनकारियों को भी कश्मीरी पंडितों की याद नहीं आती।

आवाज़ उठाने से उन्हें ना लाभ मिलता है ना पैसा। इसके अलावा तथाकथित सेक्युलर लोग मुसलमानों को नाराज़ नहीं करना चाहते। याकूब मेनन को फांसी से बचाने के लिए रात में सुप्रीम कोर्ट खुलवा लेते हैं। ऐसे लोग दोगले और नपुंसक हैं।

कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार की कल्पना दर्दनाक है

कल्पना कीजिए आप सुबह उठें और किसी मस्ज़िद से आवाज़ आए कि आप जल्द-से-जल्द अपना घर छोड़कर चले जाएं और अखबार में भी घर छोड़कर जाने का धमकी भरा आदेश हो। घर से बाहर निकलने पर कुछ लोग ‘अल्हा-हू-अकबर’ के नारे लगाकर आपके भाई को काट रहे हो। गली में कुछ लोग आपकी बहन के साथ रेप कर रहे हों और आप कुछ नहीं कह सकते। तब आप क्या करेंगे?

उर्दू अखबार आफताब

4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार ‘आफताब’ में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे कश्मीर पंडित घाटी छोड़ दें। अखबार ‘अल-सफा’ में भी यही बात छपी। चौराहों और मस्ज़िदों में लाउडस्पीकर पर  कहा गया कि कश्मीर पंडित यहां से चले जाएं नहीं तो बुरा होगा।

1990 में तोड़े गए मूर्तियों के अवशेष

बड़े शर्म की बात है कि पहले इस्लाम के नाम पर 1947 में यह देश बंटा और 1990 में  इस्लाम के नाम पर ही कश्मीरी पंडितों को डराकर निकाल दिया गया। क्या पंडितों को कश्मीर से निकालने के बाद भी कश्मीर में कुछ सुधार हुआ? नहीं, बल्कि आज कश्मीर के मुसलमान तमाम चीज़ों से दुखी हैं। जन्नत से नर्क बना कश्मीर उनके द्वारा अपने पंडित भाईयों को मारने, काटने और घर से निकालने के कुकर्मो का ही फल है जो वे आज बदतर और दहशत भरी ज़िन्दगी जी रहे हैं।

कश्मीर से पंडितों के निकलने के बाद भी अमन क्यों नहीं आया? यह बात कश्मीर की अवाम को अपने उन नेताओं, अलगाववादियों और आतंकियों से पूछना चाहिए, जिनके कहने पर उन्होंने अपने पंडित भाईयों पर अत्याचार किए थे। वे अगर ये नहीं पूछ पा रहे हैं तो उनको शर्म आनी चाहिए।

1990 से आज तक हिंदुस्तान के मुस्लिम नेता, मुल्ला, मौलवी और आम मुसलमान जो दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार या हैदराबाद में रहते हैं उन्होंने कभी कश्मीरी पंडितों के पक्ष में कुछ नहीं कहा लेकिन रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों पर वे भी छाती पीट रहे हैं।

सुन्नी मुसलमानों की 2 दिक्कतें हैं। पहली कि वे अपने धर्म की कट्टरपंथी ताकतों से प्रभावित रहते हैं और दूसरी यह कि वे जहां मेजोरिटी में होते हैं वहां दूसरे धर्मों को जीने नहीं देते।  पड़ोसी मुल्कों के उदाहरण को देखें जैसे- पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान वहां वे सबके साथ-साथ अपने धर्म के सुन्नियों को भी मार रहे हैं।

हम कश्मीरी पंडितों को वोट के नाम पर बहलाने वाली राजनीतिक पार्टियों से अपील है कि अगर आपको कश्मीर को अपनाना है, तो पंडितों को भी अपनाना पड़ेगा।

एक अनुरोध पत्रकार “श्री रवीश कुमार जी” से भी है। आप अच्छे मुद्दे उठाते हैं और बस्तियों के चक्कर भी बहुत लगाते हैं। कृपया एक बार पंडितों की आवाज़ सुनकर उनकी आवाज़ सोए हुए नेताओं के कानों तक पहुंचाएं। अन्यथा जब इतिहास आपकी ईमानदारी लिखेगा तब आपके नाम सेलेक्टिव अप्रोच का कलंक भी लिखा जाएगा।

जाते-जाते जौन एलिया की बात सुनते जाइए, शायद पंडित वर्षों से यही पूछ रहे हैं-

ये पूछती है वक्त से खुद्दार पशतियां

जिसने हमें फरेब दिया है, वह कौन है?

किसने किया है कौम के ज़ख्मों को बे-वकार

जिसने हमें ज़लील किया है वह कौन है?


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