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ना जेट डूबता है ना किंगफिशर, डूबते वे कर्मचारी हैं जिनकी मेहनत से कंपनी चलती है

जेट एयरवेज़ के कर्मचारी

जेट एयरवेज़ के कर्मचारी

90 के दशक में भारतीय राजनीतिक इतिहास में बाबरी विध्वंस, मंडल कमीशन और आर्थिक गतिशीलता के दौर में कई मीडिया चैनल भी विकसित हुए, जिनके बहसों के माध्यम से हम जैसे युवा हो रहे लोगों के ज़हन में निजी बनाम सरकारी की बहस भरने की कोशिश की गई। बार-बार बताया गया कि निजी क्षेत्रों में दक्षता होती है, जो सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्रों में नहीं होती।

सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण ज़रूरी

आर्थिक विकास और नई संरचना को गति देने के लिए सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण ज़रूरी है। निजीकरण की इस रफ्तार ने बिज़नेस, शिक्षा और धीरे-धीरे स्वास्थ्य पर कब्ज़ा कर लिया है, जिसमें निजी स्कूल, काॅलेज, बैंक, हवाई जहाज़, कूरियर और पेट्रोल पंप भी शामिल हैं।

फोटो साभार: Getty Images

हवाई यात्रा के दौरान जब आप जहाज़ में प्रवेश कर रहे होते हैं तब दरवाज़े से अंदर घुसते ही मुस्कुराते हुए एक एयर होस्टेस पूछती हैं, “हाऊ कैन वी हेल्प यू।” ठंडा पानी, चाय या कोल्ड ड्रिंक के स्वागत से मध्यवर्ग इतना भाव-विभोर होने लगा कि धीरे-धीरे निजीकरण का सबसे बड़ा प्रवक्ता बनकर उभरा।

मध्यवर्ग कर रहा राष्ट्रवाद की चाकरी

यूपीए के कार्यकाल में अपने इतिहास और संघर्षों से पूरी तरह कटा हुआ मध्यवर्ग का प्रवक्ता वर्तमान में राष्ट्रवाद की चाकरी कर रहा है। महानगरों में खुले इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट कॉलेजों में बैकों से लाखों की फीस देकर पढ़ने वाले युवा मल्टीनैश्नल कंपनियों में प्रोफेशनल बने और मल्टीनैश्नल उत्पाद भी क्रेडिट कार्ड्स से घरों में भरने लगे।

इस गफलत में कि भले ही निम्न वर्गीय श्रमिकों में रोज़गार को लेकर असुरक्षा हो मगर खेती भी अब किसानों को मुनाफा नहीं दे पा रही है। यूपीए के कार्यकाल में अपने इतिहास और संघर्षों से पूरी तरह कटा हुआ मध्यवर्ग का प्रवक्ता वर्तमान में राष्ट्रवाद की चाकरी कर रहा है।

दक्षता का भ्रम जाल टूटा

धीरे-धीरे इस दक्षता का भ्रम जाल तब टूटना शुरू हुआ, जब मल्टीनैश्नल कंपनियों की नौकरियों में लाखों के पैकेजेज़ बहुत जल्दी सिकुड़ने लगे। इंजीनियर, टेक्नीशियन में बदल गए और एमबीए सेल्समैन में। सार्वजनिक क्षेत्रों को लूटकर फूले निजी क्षेत्र के गुब्बारे फूटने लगे और क्रोनी कैपिटलिज़्म का सबसे विकृत रूप आंखों के सामने नाचने लगा। आर्थिक उदारीकरण का यह आयाम 1990 के दशक में ही परवान चढ़ने लगा।

कंपनी के साथ डूबी कर्मचारियों की मेहनत

जेट एयरवेज़ का धराशायी होना वाकई उन कर्माचारियों के करियर के लिए तब तक खतरे की घंटी है, जब तक सारी चीज़ें ठीक नहीं हो जाती हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि जेट एयरवेज़ के दिवालियापन से अन्य बड़ी कंपनियों को भी सीख लेने की ज़रूरत है।

फोटो साभार: Getty Images

इसी तरह किंगफिशर एयरलाइंस के डूबते वक्त वहां काम करने वाले कर्मियों की सांसें अपने भविष्य की आशंकाओं को लेकर अटकी हुई थीं, जिसकी कीमत चुकाई मज़दूरों, छोटे व्यापारियों और इस सेक्टर के कामगारों ने। काम के घंटे बढ़ते गए और सैलरी घटती गई।

ना माल्या डूबा और ना नरेश गोयल बल्कि वे कंपनियां डूबी हैं, जिनके वे मालिक थे।  इसके साथ ही वह कर्मचारी जिनकी मेहनत से कंपनियां चलती थीं।

बड़ी-बड़ी कंपनियां भी धीरे-धीरे धराशायी होने लगी हैं। गलती, गफलत और गड़बड़ी के कारण अनिल अंबानी, एसार ग्रुप, एसेंल ग्रुप, जेपी इन्फ्राटेक, आईएलएफएस, नीरव मोदी की कंपनी, मेहुल चौकसी, भूषण स्टील, डीएचएफएल, वीडियोकाॅन, रैनबैक्सी, सनफार्मा और बैंकिंग सेक्टर के कई बैंक भी डूबने के कगार पर हैं।

अन्य बड़ी कंपनियां भी बर्बादी के कगार पर

जेट एयरवेज़ की परिणति महज़ एक पड़ाव है। बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी कई बड़ी कंपनियां बर्बादी के कगार पर हैं। उनके इंजीनियर और कर्मचारी सड़कों पर उतर चुके हैं। अभी बहुत कुछ होना बाकी है, जिनके हलक मोदी…मोदी…मोदी…मोदी’ का जयघोष करते सूखते नहीं थे। वे चिलचिलाती धूप में सड़कों पर अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए इंकलाब ज़िंदाबादके नारे लगाते हैं।

अपने बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, उनकी परवरिश की दुहाई देना, धूप में नारे लगाने से सूखते हलक को हाथ में थामे बोतल के पानी से तर करते देखना विस्मयकारी अनुभव है।

आत्मचिंतन का वक्त आएगा

वक्त और हालात हर किसी को आत्मचिंतन पर विवश करते हैं। समय आएगा जब हिन्दी पट्टी के सवर्ण भी सोचने-समझने को बाध्य होंगे। वह दौर बीत चुका जब जातीय दबंगई और श्रेष्ठता के अहंकार के सामने राजनीति नतमस्तक होती थी।

दौर बहुत आगे निकल चुका है। जड़ अहंकार के साथ पीछे छूट चुके हैं और जिस दिन उनके बच्चे इस सत्य को समझ लेंगे कि गाँव के अन्य गरीबों की नियति के साथ ही उनकी नियति भी बंधी है। उसी दिन उनकी राजनीतिक चेतना का रिडिफाइन होगा और वह कंधों-से-कंधा मिलाकर आगे बढ़ सकेंगे। जिनसे दूरी उन्हें और अन्य गरीबों को कमज़ोर बनाती है।

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