मानो तो मैं गंगा मां हूं और ना मानो तो बहता पानी। हिमालय से निकल कर बहती पावन धारा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है इसका दर्द भी बढ़ता जाता है। गंदगी के बोझ के तले वह दबती जा रही है। इसकी लहरें उफन-उफन कर बहुत कुछ कहती है। लेकिन कोई इसकी सुनता कहां है।
2014 में इस गंगा की आवाज़ को आवाज़ मिलने लगी थी। उस समय गंगा के ज़ख्म पर मरहम लगाने की बात होने लगी थी। अब गंगा की धारा को फिर से अमृत बनाने की कोशिश होने लगी थी। गंगा मैया ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपना क्या लिया कि अब मोदी सरकार गंगा का कर्ज़ उतारने की दिशा में तेजी दिखाने लगी थी।
गंगा नदी को साफ करने के लिए नमामि गंगे परियोजना बनाई गई। इसके लिए 3 मंत्रालयों ने एक साथ बैठक की थी जिसमें गंगा एवं जल संसाधन मंत्री उमा भारती, शिपिंग और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, पर्यटन मंत्री श्रीपद नायक शामिल थे। इसके अलावा पांच अन्य मंत्रालयों के मुख्य सचिव भी शामिल हुए थे। इसी बीच गंगा की सफाई को लेकर गंगा मंत्री उमा भारती ने कहा कि अगर गंगा 2019 तक पूरी तरह से साफ नहीं हो जाती तो वह आत्मदाह कर लेंगी। इस परियोजना की शुरुआत साढ़े चार साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के अस्सी घाट से शुरू की थी।
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इस परियोजना से लोगों के अंदर उम्मीद जाग उठी थी कि अब गंगा मैया की धारा अमृत हो जाएगी लेकिन यह परियोजना लेट-लतीफी की भेंट चढ़ रही है। इसी गंगा की सफाई के लिए 111 दिन से अनशन पर बैठे 86 साल के वैज्ञानिक संत प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल का 12 अक्टूबर 2018 को निधन हो गया। प्रोफेसर अग्रवाल ने गंगा एक्ट लागू करने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री को कई पत्र लिखे थे।
2020 तक गंगा को साफ करने के लिए मोदी सरकार की यह मुहिम ज़मीनी स्तर पर फिसड्डी साबित होती दिखाई दे रही है। हालांकि सरकार दावा कर रही है कि साढ़े चार साल में गंगा 30 से 40% साफ हो चुकी है। आज भी 80 घाटों के आसपास और तमाम घाटों के आसपास कूड़े कचरे का अंबार है और गंगा नदी की हालत जस की तस बनी हुई है।
गौर करने वाली बात यह है कि इस परियोजना के लिए आवंटित बजट में से अभी सिर्फ एक चौथाई हिस्सा खर्च हो पाया है। केंद्र सरकार ने 2015 में गंगा की सफाई के लिए 20000 करोड़ रुपए का बजट पारित किया था लेकिन इसमें से सिर्फ 4800 करोड़ रुपए ही खर्च हो पाए हैं। इस बात का खुलासा 14 दिसंबर 2018 को लोकसभा में पेश एक डाटा के ज़रिए हुआ है। अभी तक ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट में खर्च किए गए कुल रकम 4800 करोड़ में से 3700 करोड़ रुपए अक्टूबर 2018 तक सिर्फ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तैयार करने के लिए लगाए गए हैं। यह हिस्सा कुल खर्च हुए बजट का 77% है।
दरअसल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के अधिकांश शहरों की गंदगी गंगा नदी में ही गिरती है। गौर करने वाली बात यह है कि अभी तक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने का टारगेट पूरा नहीं हो पाया है। इस क्षेत्र में निर्माण की बात करें तो अभी 11% कार्य ही हो पाया है। भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा की सफाई के लिए प्रयास 1986 से ही शुरू किए गए थे। 2014 तक इसकी सफाई में 4000 करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए लेकिन फिर भी गंगा की हालत खराब होती जा रही है।
2015 में एन.डी.ए. की सरकार ने बड़े स्तर पर गंगा की सफाई का कैंपेन शुरू किया। उसी दौरान 20 हज़ार करोड़ का भारी भरकम बजट तैयार किया गया। ज़ोर-शोर से काम करने की बात चली लेकिन लेट-लतीफी की वजह से इसकी डेड लाइन बढ़ाकर 2020 कर दी गई।
कई रिसर्च में यह बात सामने आ चुकी है कि गंगा का पानी नहाने लायक नहीं है। एन.जी.टी. ने कहा कि मासूम लोग श्रद्धा और सम्मान से गंगा जल पीते हैं और इसमें नहाते हैं जबकि उन्हें यह मालूम नहीं है कि यह उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकता है। बीते 19 जुलाई 2018 को एन.जी.टी. ने गंगा नदी की साफ सफाई पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा था कि नदी की हालत असाधारण रूप से खराब है और नदी की सफाई के लिए शायद ही कोई प्रभावी कदम उठाए गए हैं।
कई रिसर्च में यह पाया गया है कि गंगा में प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि पानी के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम हो चुकी है। गंगा का पानी साफ नहीं होने के पीछे सबसे बड़ी चुनौती इस में गिरने वाले शहरों के गंदे नाले हैं। बिना शोधन के इनकी गंदगी सीधे नदी में गिरती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक रोज़ाना 2900 मिलीलीटर नाली का गंदा पानी गंगा में गिरता है जिसका सिर्फ 48% ही शोधित किया जाता है।
हालांकि इन सब के बीच फरवरी 2019 में जल एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि 2020 तक गंगा 80% स्वच्छ हो जाएगी। अब देखना यह है कि क्या यह भी एक जुमला साबित होती है।