“कौन जात हो?”
इस सवाल से हर कोई अनगिनत बार रूबरू होता है और इस सवाल का जवाब आप क्या दे रहे हैं, उससे आपके काम को जज किया जाता है। कभी सवाल करने वाला जज करता है, तो कभी जवाब देने वाला मगर जजमेंट पक्का है। हिंदुस्तान में कई तरह की कुरीतियां एक साथ सांस लेती हैं मगर उनमें सबसे खतरनाक जातिवाद है। जातिवाद का चरस कुछ ऐसा है कि लोग किसी को मौत के घाट उतारने से भी बाज़ नहीं आते।
5000 सालों से सवर्ण, दलित-बहुजन का शोषण करते आए हैं। कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “अब ऐसा कहां होता है भाई? देखो हम अपने दोस्त लोग के साथे बैठ कर खाना खाते हैं”।
मगर इस कथन के कह देने भर से ही सवर्ण मानसिकता उभर-उभर कर सामने आती है। सच्चाई यही है कि जातिवाद अब भी उतने ही खौफनाक तरीके से समाज में बसता है जैसे पहले होता था। बदलाव यह हुआ है कि अब समाज में इन चीज़ों को नज़रअंदाज़ करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
इसका प्रमुख कारण औद्योगिकीकरण और शहरीकरण है। जब गांव, घर और जाति छोड़ शहर में लोग कमाने आए तो कईयों को सद्बुद्धि आई मगर जो जातिवाद को समर्थन करते हैं, उनके लिए ब्राह्मण अब भी ब्राह्मण है और दलित अब भी दलित।
इन सबसे इतर एक खास तरह की प्रीज्यूडिस है जो इस जातिवाद की देन है। लोग अपने दिमाग में एक खास तरह का कॉम्प्लेक्स पाले हैं और ज़िन्दगी के अलग-अलग मोड़ पर, अलग-अलग तरीके से उसका परिणाम दिखता है। सामने वाले की जाति पता चलने के बाद उसकी बातों को उसकी जाति के आधार पर सुना जाता है।
“मुसहर जात का है, अंबेडकर अंबेडकर करबे ना करेगा”
लोग एक धारणा पहले ही बना लेते हैं कि वह इस जाति का है इसलिए ऐसा कह रहा है। हालांकि इसका सबसे ज़्यादा नुकसान बहुजन समाज के लोगों को हुआ है मगर सवर्णों ने भी कभी-कभी अपने हिस्से का पूर्वाग्रह झेला है, जो काफी हद तक सही भी है। जब तक आप महसूस नहीं करेंगे कि कैसा लगता है जब सामने वाला आपकी जाति के आधार पर आपकी बातों को लेता है तब तक आपको जातिवाद का असली चेहरा नहीं दिखेगा।
“बाभन लोग अंत में अपना चेहरा देखाइए देता है।”
मेरे नाम के साथ ‘झा’ देखकर मेरे बारे में ऑलरेडी धारणाएं बन चुकी होंगी और मैं उसका कुछ नहीं कर सकता। शायद उन धारणाओं में बहुत सी बातें सच भी हों, शायद सब कुछ सच हो या शायद सब कुछ गलत। पता नहीं। मुझे कई स्तर पर इस खास सरनेम की वजह से काफी प्रिविलेज मिला है। कुछ गलती करने पर भी यही सुनने को मिला,
“बेटा! बढ़िया घर-परिवार से हो। काहे करते हो ऐसे?”
चाहे वह लोगों का बात करने का तरीका हो या मुझसे बर्ताव, मेरे ब्राह्मण होने की वजह से उसमें नरमी हमेशा रही। मगर दबी आवाज़ में ही सही, बहुत कुछ सुनना भी पड़ा।
“भाई तुम्हारे जैसा ब्राह्मण, राजपूत के यहां का शादी थोड़े है जो फायरिंग करेंगे शादी में”
“तुमको तो हरा-हरा दिखबे करेगा, ब्राह्मण जो हो”
“भाई तुमलोग आवाज़ उठा सकते हो काहे कि ब्राह्मण हो”
इनमें से हर कथन में काफी हद तक सच्चाई है मगर एक स्टीरियोटाइप की भावना भी। मेरा तो फिर भी चलता है, क्योंकि मुझे कोई नहीं जानता मगर जब आप एक ऐसे पत्रकार को स्टीरियोटाइप करने लगे, जो अकेले पत्रकारिता की बागडोर संभालने का माद्दा रखता हो, तब शायद आप थोड़ा ज़्यादा आगे बढ़ गए हैं।
एक समाज के तौर पर हम बहुत आगे आ गए हैं। बस अब अगर हम रुक जाते हैं तो कुछ वक्त बाद हम खुद को दुनिया के मुकाबले काफी पीछे पाएंगे। ज़रूरत है, तो बस चलते रहने की, धीरे ही सही मगर आगे बढ़ते रहने की।