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नेताओं की बदज़ुबानी पर कोर्ट की फटकार के बाद सख्त होता चुनाव आयोग

योगी आदित्यनाथ, आज़म खान और मायावती

योगी आदित्यनाथ, आज़म खान और मायावती

लोकतंत्र के महापर्व, लोकसभा चुनावों में जब राजनेताओं की जुबान फिसलने लगे, तब समझ लेना चाहिए कि चुनाव अब रंग में आने लगा है क्योंकि बदज़ुबानी की भी राजनीति होती है।

पहले चरण के मतदान के बाद अपनी स्थिति से घबराए राजनेता साम-दाम-दंड-भेद में सबसे पहले बदज़ुबानी पर ही उतरते हैं क्योंकि उनको पता चल चुका होता है कि चुनाव अब घोषणापत्र और वादों के परसेप्शन की हवा बना कर नहीं जीता जा सकता है। इसलिए समाज के अंदर जो वर्चस्वशाली मूल्य मौजूद हैं, उनका सहारा लेकर लोगों को अपने पक्ष में किया जाए।

इन वर्चस्वशाली मूल्यों के बारे में महाराष्ट्र के एक नेता ने एक चुनावी सभा में स्पष्ट करते हुए कहा, “जो बातें हमारे मन में होती हैं, वह बातें अगर ना निकले तो घुटन होती है। भाड़ में गया कानून, आचार संहिता हम देख लेंगे।”

बदजुबानी राजनेताओं की रणनीति का हिस्सा

खैर, यह स्पष्ट है कि चुनावी भाषणों में बदजुबानी राजनेताओं की रणनीति का हिस्सा है, जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाले देश के लिए कतई शुभ नहीं है।

पहले चरण के मतदान के बाद लोकसभा का महापर्व चुनाव और ज़्यादा दिलचस्प, आकर्षक और खुला खेल बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट के कान मरोड़ने के बाद, चुनाव आयोग को अपने अधिकारों की याद आई और आनन-फानन में आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण योगी आदित्यनाथ, मायावती, मेनका गाँधी और आजम खां के प्रचार करने पर आंशिक रोक लगाई है

हकीकत यह है कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने के भाषणों को लेकर आयोग का रवैया ढुलमुल रहा है और खुद को एडवाइज़री भेजने तक सीमित रखा है।

चुनाव आयोग के पास पर्याप्त अधिकार

चुनाव आयोग को याद रखना होगा कि लोकतात्रिक संस्था के रूप में उसके पास पर्याप्त अधिकार हैं और वह एक पपेंट संस्था नहीं है। शायद चुनाव आयोग यह भूल गया है कि इतिहास में उसने महाराष्ट्र के दिगज्ज नेता बाल ठाकरे को चुनाव में मतदान करने से वंचित कर दिया था।

मायावती का मुसलमानों को एकजुट होकर वोट डालने की अपील, योगी आदित्यनाथ का अली, बजरंग और ग्रीन वायरस जैसी टिप्प्णी के साथ सेना संबंधित बयान के कारण चुनाव आयोग ने उनपर कार्रवाई की है।

मेनका गाँधी। फोटो सभार: Getty Images

दूसरी तरफ, मेनका गाँधी द्दारा एक वर्ग को निशाना बनाया जाना और आज़म खान का जया पर्दा पर अभ्रट टिप्पणी, (हालांकि वह अब जांच का विषय है क्योंकि वीडियो में छेड़छाड़ करके न्यूज़ चैनलों में दिखाए जाने की बात आ रही है।) के कारण 48-72 घंटे का प्रतिबंध लगाया गया है।

अब नवजोत सिंह सिद्धु का मामला भी मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट होकर वोट देने की अप्रील को लेकर है, जिसकी सीडी चुनाव आयोग ने मगवाई है ताकि कार्रवाई हो सके। यहां यह ज़रूर ध्यान दिया जाना चाहिए कि अब तक तमाम आपत्तिजनक टिप्पणी मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ही की गई है।

आजम खां और जया पर्दा का मामला जहां अभर्द भाषा के प्रयोग का है, तो दूसरी तरफ वुमन परसेप्शन का भी मामला है, जिसे भुनाने की भरपूर कोशिश जया पर्दा चुनाव प्रचार में कर रही हैं। इस सूची में अभी और इज़ाफा होना है, जैसे-जैसे चुनावी प्रचार शबाब पर होगा अभी और मटमैले रंग दिखेगे।

नेताओं के बिगड़े बोल

नेताओं के इस तरह के बिगड़े बोल या समाज में एक-दूसरे के प्रति इस तरह की भावना हमेशा से मौजूद रही है। यह कोई नई चीज़ नहीं है। एक बड़ा फर्क यह पड़ा है कि मोबाइल कैमरे और सोशल मीडिया के कारण अब हर कोई निगरानी में रहता है। हर सार्वजनिक सभा, हर बैठक, हर बातचीत, हर पूर्वाग्रही या वर्चस्वशाली विचारों के सामाजिक व्यवहार कहीं ना कहीं रिकॉर्ड हो रहे हैं।

अब कोई कुछ भी कहकर आसानी से बच नहीं सकता है। कुछ ही समय में पूरे देश को यह पता चल जाता है कि क्या हुआ है और वायरल होते ही प्रशासन पर कार्रवाई का दबाव पड़ने लगता है।

नेताओं के अर्मयादित बोल और ताली पीटता समाज

आचार संहिता का फर्क तभी पड़ सकता है, जब जातीय और सांप्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति को लगाम लगाने के लिए कुछ बड़े सुधार किए जाएं। जातीय-धार्मिक मतदाता समूहों के बजाय क्षेत्र के सभी मतदाताओं को संबोधित करने के संदर्भ और चुनाव जीतने के लिए पचास फीसदी से ज़्यादा वोट पाना अनिवार्य कर दिए जाने पर कुछ सुधार ज़रूर दिख सकता है। गौरतलब हो कि मौजूदा समय में चुनाव जीतने के लिए 30 फीसदी वोट ही पर्याप्त होते हैं।

यहां समस्या केवल नेताओं या राजनीति के चारित्रिक दोष का नहीं है, समस्या उससे ज़्यादा ही गहरी है। जब चुनावों को जीतने के लिए जाति और धर्म के समीकरण बैठाए जाते हैं और पैसे को पानी की तरह बहाया जाता है, तब वोटों के ध्रुवीकरण या मतदान अपने पक्ष में करने के लिए उन चीजों का सहारा क्यों ना ले जो समाज के अंदर पहले से मौजूद हैं।

फोटो साभार: Getty Images

अगर जनता को इस तरह के अर्मयादित भाषा या जात-धर्म-पंथ के ध्रुवीकरण से समस्या है, तो वह समाज में मौजूद इस बुराई के खिलाफ उकड़ू होकर क्यों बैठी है? वह क्यों नहीं इस बुराई का पुरज़ोर तरीके से विरोध करती है? क्यों नहीं वह चुनावी सभाओं को एक पक्षीय बनाने के बजाय बहुपक्षीय बनाने पर ज़ोर देती है?

जहां चुनावी भाषणों के बाद नेताजी जनता के सवालों से भी रूबरू हो। इस तरह के बदजुबानी और अमर्यादित भाषा पर उनको तुरंत जनता के कटघरे में खड़ा किया जाए। असल में समाज इन बदजुबानी और अमर्यादित भाषा पर ताली बजाकर मजा लूट रही होती है।

लोकतंत्र में जितनी ज़िम्मेदारी लोकतांत्रिक संस्थाओं की है, उतनी ही ज़िम्मेदारी मतदाता के रूप में मतदाताओं की भी है। जनता के रूप में मतदाताओं को अपने अधिकारों का दायरा बढ़ाना होगा तभी राजनेता और राजनीतिक पार्टियां जो प्रतिनिधि बनने के बाद लोकसभा या राज्यसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं, चुने जाने के पहले जनता के प्रति उत्तरदायी हो सकेंगे।

बहरहाल, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत आयोग के पास आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेता और राजनीतिक दलों के खिलाफ अधिकार की याद दिलाई है, लंबे चरण में चलने वाले चुनाव में अभी इस तरह की और भी कार्रवाई देखने को मिलेगी क्योंकि नेता कभी बाज़ नहीं आने वाले हैं।

लोकतंत्र के इस महापर्व में अभी और महान नौटंकी से पर्दा उठा ही कहां है। हमको यह समझना होगा कि तमाम नेता चुनावी भाषणों में वही फसल काट रहे हैं जिन्हें हमने समाज में बोया है। अगर हर एक इंसान के अंदर कहीं ना कहीं एक आज़म खां बैठा हुआ है, तो मुस्लिम समाज को लेकर भी हमारे ज़हन में कोई पाक-साफ छवि नहीं है। अगर मुस्लिम समाज को लेकर हमारी मानसिकता पाक-साफ है, तो कोई नेता उसे कभी धुमिल नहीं कर सकता है।

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