देश में चुनावी बादल गरज चुके हैं और आज से मतदान की पहली बारिश भी शुरू हो गई है। एक तरफ खुद अपने को चौकीदार कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए की कमान संभाली है तो दूसरी ओर यूपीए का परचम फैलाने की ज़िम्मेदारी राहुल गांधी और प्रियंका गाँधी ने अपने कंधे पर उठाई है। महागठंबंधन को मजबूत करने के चलते क्षेत्रीय पार्टियों के बड़े चेहरे जैसे अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल ने भी अपने-अपने स्तर से चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं।
नए वोटरों को लुभाने के लिए नए तरीके
17वीं लोकसभा का गठन सात चरणों में होगा और इसके लिए 90 करोड़ लोग वोट डालेंगे। इनमें से लगभग 1.5 करोड़ लोग पहली बार मतदान कर रहे हैं। नई सदी के इन नए मतदातों को लुभाने के लिए पार्टियां प्रचार के नए नए तरीके अपना रही हैं। चुनाव से पहले देश भक्ति पर आधारित फ़िल्म का रिलीज होना हो या पूर्व प्रधानमंत्री पर आधारित फिल्म का विरोध के बाद भी रिलीज करना। साथ ही एक स्थापित हिंदुत्व छवि बदलने के लिए पार्टी संस्थापक पर आधारित फिल्म का आना। अगले माह पीएम मोदी की ज़िन्दगी पर आधारित एक फिल्म भी रिलीज होने जा रही है। इसके अलावा पीएम के कार्यक्रमों की डिटेल फ़ोन पर देने से लेकर सोशल मीडिया पर विपक्षी दलों का ट्रोल होना। रेडियो जिंगल को कैची बनाना, ये सब एक नए पीआर स्टंट का हिस्सा माना जा रहा है। इसका सीधा असर युवाओं पर हो रहा है।
पार्टियों का मेन अजेंडा
बैरहाल बात अगर मुद्दों की करें तो पीएम के भाषणों से साफ़ झलकता है कि भाजपा इन चुनावों में राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित रख रही है। ख़ास तौर से एयर स्ट्राइक / सर्जिकल स्ट्राइक और हाल ही में ऐंटी-सैटलाइट मिसाइल लॉन्चिंग पर फोकस दिया जा रहा है। साथ हीे वे अपनी सरकार को “निर्णय लेने वाली सरकार” बता रही है। वही दूसरी ओर विपक्ष राफेल डील के साथ बढ़ती बेरोज़गारी को मुद्दा बनाया हुआ है। कांग्रेस की ओर से ‘न्यूनतम गारंटी आय योजना’ की बात भी उसके लिए संजीवनी बन सकती है।
दो नहीं, पांच गठबंधन
वैसे तो सभी विपक्षी राजनीतिक दल समय समय पर मंच साझा कर चुके हैं लेकिन असल में देखा जाए तो देश में इस वक्त दो नहीं बल्कि पांच गठबंधन चुनावी मैदान में दे जा सकते हैं। इसका कारण सबकी निजी आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएँ हैं। पहला गठबंधन नरेंद्र मोदी का एनडीए है तो दूसरा राहुल का यूपीए है। जबकि तीसरा गठबंधन मायावती-अखिलेश का है जिसे वे अब महापरिवर्तन के नाम से बुलाते हैं। चौथा गठबंधन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का है जिसे वे फेडरल फ्रंट के नाम से बुलाना पसंद करती हैं। कांग्रेस के साथ मुलाकात में उन्होंने साफ़ किया की यूपीए के शासनकाल पर काफी दाग हैं। पांचवां गठबंधन तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर का है जिसकी अभी सिर्फ रूप रेखा बनी है लेकिन पार्टनर की तलाश जारी है।
आसान नहीं है राह
भाजपा की राह उतनी आसान नहीं जितनी उसके आलाकमान दिखा रहे हैं। दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है और यहां 80 सीटों पर बुआ भतीजे का गठबंधन काल बना हुआ है। अखिलेश और मायावती के साथ आने से मुस्लिम, ओबीसी और दलित वर्ग के वोट साथ आएंगे जो भाजपा के लिए हार का कारण भी बन सकते हैं। इसका असर लोकसभा की दो सीट के उपचुनाव पर देखा जा चुका है, जहां मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की सीटों पर भाजपा को करारी हार मिली थी। वहीँ बिहार में तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की केमिस्ट्री के साथ शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद जैसे वरिष्ठ नेताओं का कांग्रेस प्रेम रोड़ा बन सकता है। 42 सीटों वाले बंगाल में ममता का किला ध्वस्त करना आसान नहीं होगा, तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से सरकार जाना भी भाजपा के लिए सिर दर्द है। ऐसे में फ़िल्मी सितारों पर दांव खेलने के साथ, सभी पार्टियां जोड़ तोड़, जात पात, और धर्म को ध्यान में रखते हुए ही आगे की रणनीति बना रही हैं।