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“पत्रकारिता विश्वविद्यालयों में हो रहे बदलाव खतरनाक हैं”

देश के मुख्य विपक्षी दल कॉंग्रेस के अध्यक्ष राहुल गॉंधी बीते दिनों राष्ट्रीय राजधानी स्थित एक स्टेडियम में शिक्षा के मुद्दे पर स्टूडेंट्स से बात कर रहे थे। उन्होंने तमाम तरह की बातें की। उनकी पीआर टीम ने युवा छात्र-छात्राओं की बाइट लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। लगा कि वाह कोई एक ऐसा दल है, जो शिक्षा के बारे में सोचता है। राहुल जी का मानना है कि बिना शिक्षा की रीढ़ मज़बूत किए देश का विकास नहीं हो सकता। यह सच भी है, हम इससे इनकार नहीं कर सकते हैं।

लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आए दिन विश्वविद्यालयों में हो रहे ‘गैर कानूनी’ बदलावों पर उनकी चुप्पी दिख जाती है। मध्य प्रदेश में कॉंग्रेस की सरकार आते ही एक साक्षात्कार में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा था कि माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ‘अड्डा’ बन चुका है। उन्होंने कहा था कि अगर ज़रूरत पड़ी तो, हम संस्थाओं में बदलाव करने से पीछे नहीं हटेंगे।

बदलाव प्रकृति का शास्वत नियम है, बशर्ते कि वह प्रतिशोध की अग्नि से भरा ना हो। कमलनाथ ने माखनालाल में जो किया वह बदलाव नहीं बल्कि प्रतिशोध नज़र आया। सिर्फ इसलिए किसी विश्वविद्यालय के वीसी जगदीश उपासने को पद से हटने के लिए मजबूर कर देना कि वह संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी एक पत्रिका के संपादक थे, यह कतई समझ से परे है।

कुछ ऐसा ही हाल छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किया गया। छत्तीसगढ़ में वर्षों से सत्ता की लालसा में भूखी कॉंग्रेस ने सत्ता की चाभी पाते ही वहां के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में ‘मनमाना’ बदलाव शुरू कर दिया।

राजस्थान में तो मानो अशोक गहलोत की सरकार को ओम थानवी से बेहतर कोई मिला ही नहीं। किसी पत्रकारिता के विश्वविद्यालय को ऐसा वीसी मिलना, जो किसी विशेष दल के प्रति निष्ठा रखता हो, समझ से परे है। खुद को बुद्धिजीवियों का खजाना बताने वाली कॉंग्रेस को भी एक वीसी पद के लिए उस शख्स का सहारा लेना पड़ा, जिसने उसी दल के लिए काम किया, जिससे कॉंग्रेस दिल्ली में गठबंधन तक नहीं करना चाहती है।

देश के किसी भी विश्वविद्यालय में किसी भी आमूल चूल बदलाव को फासीवाद का नाम देने वाले कॉंग्रेस और वामदलों ने एफटीआईआई के पूर्व चेयरमैन गजेंद्र सिंह चौहान का विरोध इतने निचले स्तर पर आकर किया था कि आखिरकार उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया। लाल सलाम और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नारों से गुंजायमान रहने वाले जेएनयू कैंपस के एक हिस्से में जब भारतीय जनसंचार संस्थान का निदेशक केजी सुरेश को नियुक्त किया गया तो उनका विरोध इस बात पर किया जाने लगा कि उन्हें पत्रकारिता ही नहीं आती।

विरोध का स्वर स्टूडेंट्स में ठूंस दिया गया और जब सुरेश ने संस्थान की साख को दांव पर लगने से रोकने के लिए कुछ कड़े फैसले लिए तो उनकी तस्वीरों को फोटोशॉप कर उन्हें ‘हिटलर’ तक की संज्ञा दी जाने लगी।

आए दिनों कॉंग्रेस और वामदल का नेक्सस कहता रहता है कि संघ के पास कोई बुद्धिजीवी नहीं है। क्या बुद्धिजीवी होने का ठेका सिर्फ इसी नेक्सस ने ले रखा है?

एक पत्रकार जो आए दिन लोगों से कहते रहते हैं कि पत्रकारिता बदनाम हो गई है, उन्होंने कॉंग्रेस शासित राज्यों में हुए बदलाव पर मुंह खोलना तक उचित नहीं समझा। स्टूडेंट्स के हित में शिक्षा पर सीरीज़ कर देने वाले पत्रकार जी, अपने ही पेशे के स्टूडेंट्स का भविष्य खोते हुए चुपचाप देख रहे हैं। हो सकता है कि अपने गैंग के लोगों को सेट होता देख उन्होंने यह चुप्पी साध ली हो>

बातें करना बहुत आसान है, ठीक वैसे ही जैसे कभी इंदिरा गांधी गरीबी हटाने की बात करती थीं, आज उनका पोता पत्रकारिता की आज़ादी पर लेक्चर दे रहा है। अपने ही अखबार के उद्घाटन समारोह में राहुल गॉंधी ने कहा था कि वह नेशनल हेराल्ड से निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद करते हैं।

उनकी इस बात को कैसे सच मान लिया जाए, जब उनके मुख्यमंत्रियों को कथित तौर पर दूसरी विचारधाराओं के प्राध्यापक और वीसी ही बुरे लग रहे हैं। यह बहुत बेहतर होगा कि कॉंग्रेस शासित राज्य अपने ही अध्यक्ष की बात मान लें तो उन्हें इतनी फज़ीहत ना झेलनी पड़े। जो कॉंग्रेस खुद को बुद्धजीवियों का खादान बताती है, उससे यह उम्मीद तो नहीं ही है कि वह ओम थानवी सरीखे को किसी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का वीसी सिर्फ इसलिए बना देगी कि वह भाजपा विरोधी है।

वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसके नाम पर योग्यता का पैमाना तय करना गलत है। अगर राहुल गॉंधी वाकई चाहते हैं कि शिक्षा का स्तर सुधरे, पत्रकारिता आज़ाद हो, उन्हें सबसे पहले अपने मुख्यमंत्रियों और नेताओं को निर्देश देना होगा कि वह ऐसे बदलाव ना ही करें।

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