वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अमूमन प्रत्येक भारतीय पांच चीज़ों के लिए संघर्षरत है, जिनमें शिक्षा, उत्तम स्वास्थ्य, रोज़गार, आवास और स्वच्छ पर्यावरण है। जब हम अपने देश का इतिहास पढ़ते हैं तो मालूम पड़ता है कि इन सभी क्षेत्रों में भारत अग्रणी था और तब हमारी पहचान विश्वगुरु और सोने की चिड़िया वाली थी।
जब पूरी दुनिया में सभ्यता अंकुरित हो रही थी तब भारत में तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय का परचम लहरा रहा था। स्वास्थ्य में आयुर्वेद और योग का महत्व था। रोज़गार के लिए ज़्यादा संघर्ष नहीं था क्योंकि ज़्यादातर लोग आत्मनिर्भर थे। कृषि, लघु और कुटीर उद्योगों का बोलबाला था। उस दौर में जनसंख्या दबाव भी कम था।
समय के साथ सारी चीज़ें बदल गईं लेकिन हमारा देश अभी भी इन पांच चीज़ों के इर्द-गिर्द घूम रहा है। हमने समान और सहभागी शिक्षा के लाखों शिक्षण संस्थाओं का निर्माण और विकास किया है परंतु वैज्ञानिक और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए आज भी चंद संस्थानों का ही नाम है, जो वैश्विक परिदृश्य में पिछड़ रहे हैं।
आंगनवाड़ी केंद्रों में हो रहा भ्रष्टाचार
हम सबसे पहले बात करते है आंगनवाड़ी केंद्रों की क्योंकि आज बाल विकास परियोजना के नाम पर करोड़ों केंद्रों का संचालन किया जा रहा है। अधिकतर केंद्रों पर बच्चों की संख्या, नामांकन के अनुरूप उनकी उपस्थिति, उपलब्ध सेवाओं, सेविका, सहायिकाओं और अधिकारियों का रवैया देख समझ आ जाएगा कि योजना के नाम पर क्या हो रहा है?
आप कारण पता करेंगे तो आपको आधी-अधूरी जानकारी मिलेगी। बिना प्रशिक्षण, कम मानदेय और भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में हर व्यक्ति अपनी नौकरी बचाने और पैसे के लालच में तीर चला रहा है।
सरकारी विद्यालयों में शिक्षा
सरकारी विद्यालयों की शिक्षा की बात करें तो यहां केंद्र सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों जैसे- नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल और केंद्रीय विद्यालय को छोड़ दें तो उनकी गुणवत्ता, प्रबंधन, संचालन और अनुदान के मुकाबले राज्यों द्वारा संचालित विद्यालयों की स्थिति उलट है।
इनके गुणवत्ता और परिणाम बेहतर हैं लेकिन बहुसंख्यक आबादी राज्य सरकारों द्वारा संचालित विद्यालयों के भरोसे है, जहां सारी व्यवस्था सविनय अवज्ञा सिद्धांत पर आधारित हो गई है। अर्थात् न्यूनतम मज़दूरी दर से कम पर भी शिक्षामित्रों की नियुक्ति की गई। उसमें भी उनकी शैक्षणिक योग्यता को ताक पर रख दिया गया। ऐसे में सरकारी विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था पर बात ही करना उचित नहीं है।
प्राइवेट काम करने को मजबूर बहुसंख्यक समुदाय
आज हर राज्य में बहुसंख्यक समुदाय नौकरी नहीं मिलने के कारण प्राइवेट काम कर रहे हैं मगर जिनकी नियुक्ति हो गई, वे लोग अपनी नौकरी को स्थाई करने और वेतन वृद्धि को लेकर आंदोलन और कोर्ट के सहारे बैठे हैं।
इन सबके बाद अगर समय बच गया तो वह सरकारी फरमान, जनगणना, विभिन्न स्तरों के चुनाव, सूचनाओं के लेखन और आंकड़ों के निर्माण में चला जाता है।
गुणवत्ता और प्रशिक्षण के लिए आंदोलन नहीं
अप्रशिक्षित लोगों को शिक्षक बना देने के कारण शिक्षक संघ बार-बार उच्च वेतनमान के लिए आंदोलन करते हैं। क्या आपने कभी सुना है कि ऐसे संघ ने कभी प्रशिक्षण और गुणवत्ता के लिए मांग की हो?
हालांकि उत्तर प्रदेश में मिशन शिक्षण संवाद जैसे कुछ स्वैच्छिक शिक्षक मंच के रूप में अपवाद भी हैं। इन सबके बीच फिर भी समय बच गया तो शिक्षकों और बच्चों का सारा दिन खिचड़ी पकाने और खाने में ही चला जाता है।
शिक्षण के अलावा सभी काम
एक ज़िम्मेदार समाज के तौर पर मध्याह्न भोजन योजना के स्वरूप और क्रियान्वयन में भी आवश्यक फेरबदल करना चाहिए। जैसे- पांचवीं कक्षा तक चलने वाले विद्यालयों के लिए पांच कक्षाएं, पेयजल, शौचालय, पांच शिक्षक, एक लिपिक और एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी होना चाहिए लेकिन सरकार शैक्षणिक गुणवत्ता, विद्यालय संचालन और प्रबंधन के लिए कानून बनाकर स्वयं ही उन प्रावधानों को तोड़ती है।
आज बहुसंख्यक राज्य संचालित विद्यालयों की स्थिति यह है कि विद्यालय में शिक्षण छोड़कर शेष सारे कार्य होते हैं। वर्तमान समय में रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘तोते की शिक्षा’ कहानी शब्द-दर-शब्द यथार्थ सिद्ध होती है।
स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति
अब बात करते हैं स्वास्थ्य सेवाओं की। आप किसी भी बड़े अस्पताल में जाइए। वहां आपको मरीज़ों और उनके तीमारदारों का एक जन सैलाब दिखाई देगा। आखिर ऐसी स्थिति क्यों है? सुदूर ग्रामीणों क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल काफी खस्ता है।
उप-स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर ज़िला अस्पताल तक सब बेहाल है। कहीं पर्याप्त आधारभूत संरचना एवं सुविधाओं की कमी है तो कहीं योग्य मानव संसाधन की। कहीं भ्रष्टाचार हावी है तो कहीं लेटलतीफी का आलम है। हालांकि स्थिति सुधार रही है लेकिन समय के अनुसार यह काफी नहीं है।
योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं, लचर होती स्वास्थ्य व्यवस्था
वर्तमान समय में प्रस्तुत स्वास्थ्य आंकड़ों और ज़मीनी हकीकत में अकल्पनीय अंतर है। ऐसा नहीं है कि प्रयास या बदलाव नहीं हो रहे हैं। आपको अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त अस्पताल दिख जाएंगे मगर इनकी संख्या बेहद सीमित है।
इसका यह मतलब भी नहीं कि यह बस सरकार की नाकामी है, बल्कि इस बदहाली में सामान्य जन की भागीदारी है। योजनाएं बनाना और बजट आवंटन करना सरकार का कार्य है लेकिन इसका क्रियान्वयन स्थानीय अधिकारियों और संबंधित एजेंसी का काम है, जो योजनाओं के लीपा-पोती हेतु तत्पर रहते हैं।
शैक्षणिक योग्यता और नौकरी में संबंध नहीं
रोज़गार की वास्तविक स्थिति से सभी अवगत हैं। भारत में नौकरी ढूंढने वालों की भारी भरकम फौज है लेकिन देने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं का आकाल है।
वर्तमान परिदृश्य में शैक्षणिक योग्यता और नौकरी में कोई संबंध नहीं रह गया है। कोई इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर क्लर्क की नौकरी तलाश रहा है तो कोई लॉ की डिग्री लेकर अकाउंटेंट की। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद स्टार्टअप और उद्यमिता रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं।
आवास और पर्यावरण के बिगड़ते हालात
आवास और पर्यावरण की बात करें तो हालात और भी चिंताजनक हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से लगातार हो रहे पलायन, पर्यावरण दोहन और विकृत शहरीकरण से स्थिति और भी विकट हुई है। जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी एक अदद छत के लिए मेहनत कर रहा है।
इसी प्रकार दुनिया के 10 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में भारत की सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी है। मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि इस देश में सरकारी विद्यालय, अस्पताल और तमाम चीज़ें हैं मगर वहां सुविधाएं ही नहीं हैं। हम उम्मीद करते है कि नई निर्वाचित सरकार अगले पांच वर्षों में इन पांच मौलिक मुद्दों पर काम करेगी और हम इस परिवर्तन के साक्षी बनेंगे।