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“सेंटीनल द्वीप में मारे गए अमेरिकी पर्यटक जॉन एलेन की हत्या के ज़िम्मेदार कौन?”

जॉन एलन चाऊ

जॉन एलन चाऊ

कुछ महीनों पहले 27 वर्षीय अमेकिरी पर्यटक ‘जॉन एलन चाऊ’ की हत्या खबरें चर्चा में थी। अंडमान निकोबार द्वीप समूह के उत्तरी सेंटीनल द्वीप के मूल निवासियों ने जॉन की हत्या कर दी थी।

कुछ दिनों तक यह खबर सुर्खियों में रही लेकिन परिवार द्वारा किसी प्रकार का केस नहीं करने के कारण यह मामला ठंडा हो गया। चाऊ स्वयं ही इस जोखिम भरी यात्रा का जिम्मेदार थे, क्योंकि वह जानते थे कि वहां जाना मौत को आमंत्रण देना है मगर जुनूनी और साहसी होने के कारण वह वहां गया। अपने नोट्स में उन्होंने लिखा था कि लोगों ने उन्हें घायल करके बीच पर ही छोड़ दिया।

आदिवासियों पर हत्या के आरोप

इस घटना में ‘मूल निवासी’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया गया है, जो आदिवासी हैं। जिनका खान-पान, पहनावा और आवास आदि सब आधुनिक इंसानों से कमतर है लेकिन ये लोग आदिकाल से रहते आए हैं, इसलिए उन्हें मूल निवासी कहना उचित होगा।

जॉन एलन चाउ। फोटो साभार: सोशल मीडिया

अगर खान-पान की बात करें तो कांटा-छुरी और शैम्पेन के साथ खाना खाने वालों को वे असभ्य लगते हैं। उनके पास एयर कंडीशनर नहीं होता इसलिए उनके घर घास-फूस के होते हैं। उनके पास किचन, एप्रन और ओवरकोट नहीं होता है, इसलिए वे नग्न अवस्था में रहते हैं या कभी-कभार पत्तियां लपेटकर। शायद इसलिए उन्हें असभ्यों की संज्ञा दी जाती है।

साठ हज़ार सालों से उत्तरी सेंटीनल द्वीप में रहते हैं आदिवासी समुदाय

उत्तरी सेंटीनल द्वीप के निवासी वहां करीब साठ हज़ार सालों से रह रहे हैं। उसी दौरान सिन्धु, मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं का उदय हुआ और अंत भी। एक लघु हिम युग भी आया फिर भी वे जीवित हैं। दक्षिण पूर्व एशिया को प्रभावित करने वाली सुनामी का भी उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे असभ्य हैं।

मिशनरी द्वारा धर्म परिवर्तन

खैर, अब इन्हें सभ्य बनाने की बात आती है। जिसमें इसाई मिशनरी सबसे आगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वे दुनिया के सबसे आधुनिक और सभ्य लोग हैं। उनका धर्म सबसे प्रभावी है और उसको मानने वाले स्वयं सभ्य हो जाते हैं।

प्राचीन काल से  यह प्रयोग उन्होंने दुनियाभर में किया, जिसमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थानों पर वे सफल रहे लेकिन भारत, चीन तथा मध्य-पूर्व में उन्हें असफलता हाथ लगी।

सभ्य बनाने के लिए इन्होंने उन्हें खाने-पीने की चीजें दीं और बदले में उनकी आज़ादी ले ली। ज़मीन, घर और खेत जला दिए गए। कईयों को मार कर बचे हुए लोगों को गुलाम बना दिया।

जब मिशनरी आई, तो उन्होंने सभ्य बनने के लिए ईसाई  धर्म स्वीकारने को कहा। उसके बाद सभ्य बनाने के लिए अस्पताल खोले गए, भोजन और दवाइयां दी गईं। बच्चों को स्कूल भेजा गया मगर बदले में उनकी जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया गया।

कोयला, सोना और तेल आदि खनिजों के लिए उनकी बसी- बसाई सभ्यता को नष्ट कर दिया गया। यह बर्ताव अमेरिका में रेड इन्डियंस, ऑस्ट्रेलिया में अबोरिजिनल्स और अफ्रीकी निग्रोस के साथ किया गया।

इतिहास जानना ज़रूरी है

15वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका और यूरोप से ब्रिटिश और फ्रेंच मूल के लोग भारी संख्या में आए और वहां के मूल निवासियों से कहा कि जो रेड इंडियंस थे, वे लोग मुद्रा के बारे में नहीं जानते। उनकी कोई निजी संपत्ति या ज़मीन नहीं होती और पूरा कबीला सार्वजनिक तौर पर खेती-बाड़ी करता था। वे लोग दस्तकारी के काम में निपुण थे मगर सोना-चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं का ज्ञान नहीं था।

जब यूरोपियन्स वहां पहुंचे तब उनका स्वागत हुआ। रेड इन्डियंस ने उन्हें तम्बाकू दिया। बदले में उन्हें शराब मिली। कुछ वक्त बाद बाहरी लोगों ने उनकी ज़मीनों को घेरकर छोटे-छोटे शहर बसा दिए और उन्हें गुलाम बना लिया। जो बच गए, वे पश्चिम अमेरिकी रेगिस्तान में बस गए।

ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी ‘बोरिजिनल्स’

कुछ ऐसा ही ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी, ‘बोरिजिनल्स’ के साथ भी हुआ। ब्रिटिश के हाथों में ऑस्ट्रेलिया का विशाल भूखंड मिलते ही ब्रिटेन की जेलों में बंद कैदियों को इस शर्त पर आज़ाद किया गया कि वह वापस ऑस्ट्रेलिया चले जाएं और कभी वापस ना आएं।

उस वक्त बड़ी संख्या में अंग्रेज़ों के ऑस्ट्रेलिया पहुंचने के बाद मूल निवासियों का नरसंहार हुआ। जिसमें तकरीबन दो-तिहाई आबादी समाप्त हो गई। बड़े-बड़े कारखानों, खदानों और बागानों के लगने के बाद आधुनिक ऑस्ट्रेलिया तैयार हुआ।

हालांकि यह इतिहास की बाते हैं। आज का समाज और उनकी  सोच भले ही बदल गई हो कि वे आर्थिक शोषण नहीं करेंगे और गुलाम नहीं बनाएंगे लेकिन आधुनिक लोगों से मेल-मिलाप बढ़ते ही कुछ-ना-कुछ समस्या उत्पन्न हुई है।

70-80 का वह दशक

70-80 के दशक में जब पहली बार अंडमान निकोबार द्वीप के मूल निवासियों, जारवा, ओंगे या निकोबारी से मिलने की कोशिश की गई, तब वे सेंटीलीस की तरह आधुनिक समाज से अलग थे लेकिन स्वभाव से नरम थे।

सरकार ने उनकी मदद के लिए कुपोषण और मलेरिया आदि अन्य बीमारियों से बचाव के लिए टीके लगवाए। उनके लिए पक्के घर बनाए गए। बच्चों के लिए स्कूल खोले गए और परिवारजनों को जीवन यापन का भत्ता भी दिया गया। जिससे उनके पारंपरिक जीवन पर नकारात्मक असर हुआ है क्योंकि इस आरामपूर्ण जीवन से उनके कौशल में कमी आई है।

भोजन व दिनचर्या में बदलाव से उन्हें नए प्रकार के संक्रमण ने भी घेरा है। एक खबर के मुताबिक जारवा जाति की एक वृद्ध महिला, जो 6 हज़ार साल पुरानी भाषा समझ सकती थी और पशु-पक्षी की भाषा बोल व समझ सकती थी। वह उनके मौत के बाद समाप्त हो गई।

कुछ इसी तरह की समस्याएं दुनिया के अन्य मूल निवासियों जैसे- पापुआ न्यू गिनी, जावा, सुमात्रा तथा अफ्रीका आदि के लोगों के साथ भी हो रही है।

जो एंथ्रोपोलॉजिस्ट मूल निवासियों से मिले हैं या उनपर शोध कर चुके हैं, उनका मानना है कि इन सुदूर क्षेत्रों में बसे निवासियों का मूल उद्गम तकरीबन साठ हज़ार साल पुराना है और ये अफ्रीका के नीग्रो प्रजाति से सम्बंधित हैं।

मधुबाला चट्टोपाध्याय। फोटो साभार: सोशल मीडिया

जब मधुमाला चट्टोपाध्याय एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक छात्रा थीं, उस वक्त 4 जनवरी, 1991 को सेंटीलीस के लोगों से मित्रतापूर्वक मुलाकात करने वाली वह पहली इंसान थीं।

वर्तमान में वह भारत सरकार के सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ शोध अधिकारी का मानना है कि वे लोग बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं रखना चाहते हैं। उन्हें प्रकृति, मौसम और पशु -पक्षियों का अच्छा ज्ञान है, जिन्हें वे पूजते भी हैं। उस परिवेश में सौहार्दपूर्वक रहते आ रहे हैं इसलिए उन्हें उनकी अवस्था में छोड़ देना चाहिए। प्राकृतिक आपदा में ही उनकी मदद करनी चाहिए।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य कक्षा ग्यारह के इतिहास की किताब से लिए गए हैं।

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