अपने हक की लड़ाई तो हर कोई लड़ता है, कभी दूसरों की हक की लड़ाई भी लड़ कर देखना अच्छा लगेगा। शाहिद मूवी देखी है? राजकुमार राउ वाली, हां वही मूवी जिसमें शाहिद दूसरों के लिए लड़ते-लड़ते मारा जाता है कितना अच्छा आदमी था। मरता नहीं तो एकदम मशीहा ही होता। खैर, वो था पेशे से वकील और हम ठहरे आम आदमी तो हम कैसे लड़े किसी और की हक की लड़ाई?
संस्कृत का एक श्लोक कुछ इस प्रकार है-
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥
भावार्थ :
इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता?
परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है।
दूसरों के लिए लड़ना थोड़ा पेचीदा है लेकिन असीम सुख देने वाला है। बात कर रहे हैं LGBT (Lesbian ,Gay Bisexual , Transgender) अधिकार की। पूछिए खुद से क्या समलैंगिक या ट्रांसजेंडर होना किसी की गलती है? जेसै आप मर्द और कोई औरत है, वैसे ही कोई समलैंगिक और कोई ट्रांसजेंडर है। जेसै आपको भगवान ने बनाया वैसे ही इन्हें भी भगवान ने ही बनाया और भगवान तो गलत करते ही नहीं!
दूसरों के हक की लड़ाई लड़ना जिन्हें आता है, उनमें से कुछ lgbtq अधिकारों के लिए लड़े और फैसला भी सुप्रीम कोर्ट ने किया। तो बात यह कि हम क्या कर सकते हैं, तो इसका जवाब है कि हमारा किरदार सुप्रीम कोर्ट से भी ज़्यादा अहमियत रखता है चलिए चर्चा करते है।
आखिर क्यों किसी को ‘गे’ बोलना गाली है? आखिर क्यों किसी को छक्का या हिजड़ा बोलकर हम हंसते हैं या उसे गाली की तरह प्रयोग करते हैं? यहां बात केवल किन्नरों की करूंगा क्योंकि सबसे भयावह स्थिति उसी समुदाय की है। ज़मीनी स्तर की बात करते हैं और आपका पक्ष भी रखेंगे।
बहुत बुरा लगता होगा अगर आपके सामने कोई किन्नर आकर आपसे पैसे मांगने लग जाए और आपके मना करने पर आपसे बदतमीज़ी करे। हो सकता है आपके पैसे ना देने पर अपने नग्न हो जाने की धमकी भी दे लेकिन उस से भी ज़्यादा बुरा आपको इस बात का लगता है कि जब आपके साथ ऐसी स्थिति बनी हुई है और वहीं आस-पास मौजूद सभी लोग मन ही मन मुस्कराए जा रहे हैं।
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खैर, इस बेबसी में आप एक झूठी मुस्कान के साथ पैसे निकाल कर दे देते हैं और सोचते हैं चलो बला टली लेकिन कभी सोचिएगा कि क्या यह हालात हमारे बनाए हुए नहीं हैं? क्या हम उन्हें आम नागरिक की तरह अपना नहीं सकते?
हम ज़्यादातर किन्नरों के जीवन पर चर्चा कर लेते है, जिन्हें पैदा होने के बाद से ही अपनी ज़िन्दगी को कोसना सिखाया जाता है। घर से निकाल देना, समाज से अलग कर देना या फिर पैदा होने के बाद ही किसी किन्नर समुदाय को सौंप देना। ना माँ-बाप का प्यार ना कोई नाते रिस्तेदार, समाज का डर और बड़ी ही वीभत्स परिस्थितियों के बीच बचपन गुज़र जाता है।
शायद यहां बचपन कहना गलत होगा चलिए ज़िन्दगी के शुरुआती पल बोल लेते हैं, जो बड़ी ही कठनाईयों के बीच गुज़र जाते हैं। यहीं-कहीं 4-5 वर्ष हो जाने पर अब समझ आई है कि पेट कैसे पला जाए और दुनियां में कौन है जो अपना पेट पालना नहीं चाहता भला? बाकी सभी की तरह ये भी तरीका तो ढूंढ ही लेते हैं और बाकी कुछ इनका समुदाय सिखा देता है। यह तरीका उनसे वह सब करवाता है, जो शायद कोई भी अपनी मनमर्ज़ी से करना पसंद नहीं करेगा।
नाचना, गाना, भीख मांगना और यहां तक कि अपने जिस्म का सौदा करना यह सब मजबूरियां हैं जो कि हमारे समाज ने बनाई हैं। कई एक बार देह का सौदा उन्हें सामूहिक दुष्कर्म जैसी अमानवीय घटनाओं से सामना करवा देता है। ज़रा सोचिए उस पहलु का जहां किसी लड़की से दुष्कर्म हो जाने के बाद भी पुलिस थाने में उसका बयान नहीं लिखा जाता, वहां अगर कोई किन्नर अपना सामूहिक दुष्कर्म होने का बयान दर्ज़ करने जाए तो 90 प्रतिशत मामलों का नतीजा क्या होगा आप अनुमान लगा सकते हैं।
क्योंकि बात हम ज़मीनी स्तर की कर रहे हैं तो एक उदाहरण और लेते हैं। चलिए माना सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया और किन्नरों ने सरकारी नौकरी या प्राइवेट नौकरी के लिए आवेदन किया और चयनित भी हो गए लेकिन वर्तमान सामाजिक स्थिति के हिसाब से किन्नरों के लिए नौकरी या अपने पद पर बने रह पाना बहुत मुश्किल होगा, क्या हम इसके लिए तैयार है? सुप्रीम कोर्ट का आदेश ही क्या कर लेगा जब समाज अपना आदेश बदलने को तैयार नहीं है।
आखिर क्यों समाज उन्हें साधारण इंसान समझ कर अपना नहीं सकता? सुप्रीम कोर्ट लाख चाहे तो भी क्या कर पाएगा आखिर कानून ही तो बना पाएगा । उससे ज़्यादा जरुरतमंद ज़मीनी स्तर का काम तो हमारी और आपकी ही ज़िमेदारी है साहब! शायद मेरी उस बात का मतलब घूम फिर के यहां आपके सामने आ गया है कि कैसे हमारा किरदार सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ज़्यादा अहिमयत रखता है और कैसे हम दूसरों की हक की लड़ाई लड़ सकते हैं।
माना कि आज किन्नरों को कानूनी पहचान का अधिकार है। जनवरी 2000 में मध्यप्रदेश के कटनी शहर से कमला जान जो कि एक किन्नर प्रत्याशी थी, उन्हें महापौर चुना गया था लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अगस्त में ज़िला जज के आदेश पर उन्हें अपने पद से हटना पड़ा। उसके बाद भी ऐसे कई उदाहरण पेश हुए जिन्हें देखकर आपको यकीन हो जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट और कानून से कहीं ज़्यादा ज़रूरत हमें इस समाज की धारणा को बदलने की है।