एक ऐसा समाज, जहां व्यक्ति अस्मिता और उसकी नागरिकता द्विध्रुवीय परिपाटी पर सीमित हो जाती है, जहां या तो व्यक्ति तमाम उम्र एक नाम की तलाश में खाक हो जाता है या तो उसे फूल-मालाओं से सजाकर मसीहा बना दिया जाता है। यह रिवायत, हमारे लोकतंत्र के बुनियादी खोखलेपन को ज़ाहिर करती है, जहां आखिरी आदमी का प्रतिनिधित्व हमेशा एक खास प्रतीक या नायक में एकीकृत कर दिया जाता है। आज कन्हैया को प्रतिरोध का प्रतीक बताया जाना उसी सहज, दैवीय प्रतिनिधित्व की राजनीति का बिंब है।
अगर गौर फरमाये तो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया ने इस सुविधावादी, सहज व प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व तैयार करने की परपंरा का आगाज़ इस देश में पूंजीवादी आगमन के साथ ही शुरू कर दिया था। जनमत, जो इस देश की अभिव्यक्ति, वंचित लोगों का बहुरंगी ‘चैतन्य-प्रतिनिधत्व’ था, वो एक कमरे में चार लोगों के मत के बरक्स परोसा जाने लगा। कुछ खास चेहरे बार-बार रहनुमा और विषय-विशेषज्ञ की तरह दिखाए जाने लगे और मुसलसल उसी दिन जनतंत्र के चौथे स्तंभ के हाथों जनमत की ही हत्या कर दी गयी।
यह होना लाज़िमी था, क्योंकि चेतना का समतावादी बंटवारा जो सरोकार की राजनीति के ज़रिए जातीय गुलामी व अन्य दायरों का अपमार्जन करते हुए वर्ग चेतना की तामीर करता, अवश्यम्भावी रूप से पूंजीवादी, ब्राम्हणवादी व अन्य फासीवादी ताकतों के लिए खतरा होता। इसी वजह से सर्वप्रथम ‘शिक्षा का अवरोही प्रसरण’ (educational downward mobility) जो कि सही मायनों में गॉंवों, जंगलों में रहने वाली आवाम तक शैक्षिक स्वायत्तता का वाहक हो सकता था और जिसके लिए संवाद को हाशिये पर रह रहे लोगों तक पहुंचाना अपरिहार्य था, उसको पूंजीवादी ताकतों के ज़रिये एक न्यूज़ आवर के कमरे में कैद कर दिया गया।
कन्हैया को भी इसी स्टेटे क्राफ्टिंग के ज़रिये देखा जाना चाहिए, जहां सवाल व्यक्तिगत रूप से कन्हैया पर नहीं उस संरचना पर है जो जनमत, बदलाव और प्रतिनिधित्व के सवाल पर नित चंद नये नायक परोसती है। अगर बदलाव के इस सामाजिक-राजनैतिक गतिकी का विश्लेषण किया जाए तो निष्कर्ष आपको एक क्रूर सच की तरफ ले जाता है, जहां अधिनायकवाद के प्रतीकात्मक, लाक्षणिक बदलाव के ज़रिये पूरे आवाम के असंतोष का क्षतिपूरण किया जा रहा होता है।
याद रखिये, यह मसीहा बनाये जाने की पहली कवायद नहीं है। मसीहा आए और चले गए पर आज भी हाशिये पर रहने वाला समाज दर्द बांटने की चेष्टा में रोज़ किसी भीड़, सेलेब्रिटी या मीडिया के इंतज़ार में दम तोड़ देता है। इसी समाज में वे तमाम लोग जो जंगलों, पहाड़ों और सड़कों पर दमन के खिलाफ अपनी आवाज़ लामबंद करते हैं, कई दफा सत्ताई ताकतों द्वारा बारूद से भून दिए जाते हैं और उनका वजूद समाज या मीडिया में कोई कोलाहल नहीं पैदा करता।
इन हालातों में सूचना-संचार का एक व्यक्ति-विशेष की तरफ आकृष्ट हो जाना, बहुत सारी जायज़ संवेदनाओं, अभिव्यक्तियों और सूचनाओं की हत्या जैसा है। अगर मीडिया लोकतांत्रिक बदलाव की थाली में नित-नए नायक परोस रहा है तो आप मुगालते में हैं कि ये स्वस्थ बदलाव का परिचायक है। स्वस्थ लोकतंत्र, शिक्षित, स्वयंशासित, जागरूक आवाम तैयार करती है ना कि मसीहा।
भीड़ और अनुचर तैयार करती जनता को संबोधित करने वाला नायक सैद्धांतिक रूप से ताकत की खिलाफत नहीं, ताकत के साथ हो जाने की संभावना रखता है। करिश्माई बदलाव अक्सर खोखले और नाज़ुक होते हैं, इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि बदलाव का स्वाभाविक, दीर्घकालिक, समतावादी और वैज्ञानिक होना ज़रूरी है।