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“लड़कियों की इज्ज़त सिर्फ महिला दिवस के रोज़ ही क्यों?”

लड़कियां

लड़कियां

मैं अच्छा हूं और जानता हूं कि मेरी ज़िन्दगी में शामिल सभी लड़कियां अपनी ज़िंदगी में बढ़िया कर रही होंगी। कल महिला दिवस के मौके पर सभी कह रहे थे कि आज महिला दिवस है, तो मैंने उन सभी से स्कूल के दिनों के लहज़े में चिट्ठी के ज़रिये बात करने की सोची।

इस चिट्ठी को यदि कोई और पढ़ेगा तो सोचेगा कि मैं सिर्फ लड़कियों को ही क्यों याद कर रहा हूं? मगर अब उनसे कौन कहे कि मेरी मम्मी भी जब चूड़ा-दालमोट लेकर मेरे साथ बैठकर बातें करती हैं, तो उसकी चालीस साल पुरानी आंखों में मुझे सोलह-सत्रह साल की एक लड़की ही दिखती है।

मम्मी को मैंने कभी ‘आप’ कह कर नहीं बुलाया क्योंकि मम्मी बोलती हैं कि ‘तुम’ में अपनापन होता है। जब आप किसी को ‘तुम’ कहते हैं, तो उसे हम-उम्र समझते हैं और दोस्ती हम-उम्र लोगों में ही ज़्यादा होती है। अब रही बात नानी की, तो मम्मा को हमेशा नानी से दोस्तों की तरह लड़ते-झगड़ते देखा है, इसलिए उनसे दोस्ती कर ली।

मेरी छोटी बहन या मेरी दूसरी माँ थोड़ी चंट है मगर उसकी सबसे बुरी आदत है कि वह बिना वजह ही रोने लगती है। ज़िन्दगी में उससे ज़्यादा लड़ाई शायद ही किसी से की हो फिर भी अकेले में मुझे फटकार लगाकर मेरे सिगरेट पीकर आने की बात सबसे छिपा लेती है।

अब बहन बड़ी हो गई है तो उसका चांटा और भी तेज़ लगता है मगर मेरी सेहत खराब होने पर सारा दिन उससे काम करवाने में और भी ज़्यादा मज़ा आता है।

यह सब तो टुगेदर-फॉरएवर वाली लड़कियां थीं, जिनसे लगभग हर किसी को मोहब्बत होती है। अब वैसी भी लड़कियां हैं, जिन्हें मैं घर नहीं बुलाता। यह वाली फेहरिस्त काफी लम्बी है मगर सबकी बात कैसे करूं?

घर से बाहर किसी लड़की से पहली बार मुखातिब हुआ था तो पांच-छः साल का था और मैंने उसका डॉक्टर सेट तोड़ दिया था। स्कूल जाना शुरू किया तो दोस्तों के मुताबिक सबसे बड़ी सज़ा जो टीचर देती थीं, वह था किसी लड़की की बेंच पर बिठा देना।

वहां लगा कि लड़कियां कितनी गंदी होती हैं कि कोई इनके साथ बैठना नहीं चाहता। मैं चाहता था मगर मेरे दोस्त नहीं चाहते थे, इसलिए मैं भी उनके साथ बैठना नहीं चाहता था।

पांचवीं छठी में समझ आया कि गर्लफ्रेंड भी बनाना होता है मगर यहां तो कोई फ्रेंड भी नहीं है, फिर सिनेमा और इधर-उधर से समझ आया कि लड़कियों के साथ रहना कूल होता है।

दोस्तों को भी यही गलतफहमी थी, तो मुझे भी हो गई मगर अब तक लड़कियों को समझ आ गया था कि हम उनसे कूल बनने के लिए दोस्ती करना चाहते हैं, फिर भी मेरा लंच टेस्टी होता था तो दो-तीन लड़कियों से दोस्ती हो गई मगर वे लड़कियां मेरे बाकी दोस्तों जैसी नहीं थीं।

शर्ट का बटन खोलकर घूमना उनके लिए कूल नहीं था और ना ही वे मेरे साथ गले में हाथ डाल कर चलती थीं। थोड़ा अजीब था मगर चलो, ऐट लिस्ट उनकी हैंडराइटिंग अच्छी थी और मेरे असाइनमेंट्स कर देती थीं।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

सातवीं के फाइनल एग्ज़ाम में एक छठी की लड़की साथ बैठी तो बहुत अच्छा लगा। वह बहुत ज़्यादा अच्छी थी, हर हफ्ते चॉकलेट शेयर करती थी और उसके रूमाल में परफ्यूम लगा होता था। दसवीं तक हम सो कॉल्ड ‘साथ’ रहे, फिर वह चली गई।

बुरा लगा तो दोस्तों ने बोला गाली दो, कम बुरा लगेगा। मैंने काफी गालियां दीं मगर मुझे और भी ज़्यादा बुरा लगा फिर थक हार कर मम्मी को बताया और प्रॉमिस भी लिया कि किसी को बताएंगी नहीं। सबकुछ बताया, मम्मी दो चांटे मारते हुए बोलीं कि वही लड़की तुम्हें गालियां देती तो?

जब कॉलेज पहुंचा तो देखा यहां गर्लफ्रेंड ना बनाओ तो नाक कट जाती है। दो साल कोशिश की मगर नहीं बनी, फिर बारहवीं के रिज़ल्ट के कारण उसी कॉलेज में तीन साल और रहना पड़ा और इस बार गर्लफ्रेंड बनाने का भूत भी उतर गया था।

इस बार कई लड़कियों से दोस्ती हुई। हां, दोस्ती करते वक्त मोनीश बहल का डायलॉग दिमाग में था मगर आगे वह गलत साबित हुआ। इन लड़कियों से मैंने बहुत कुछ सीखा, शर्ट के बटन खोल कर भी चलती थीं और मेरे साथ गले में हाथ डाल कर घूमती भी थीं।

इन्होंने अपनी दिक्कतें भी बताईं और टिफिन भी खिलाया। इन्होंने सिखाया कि बिना हाथ पैर चलाए मज़बूत कैसे बनते हैं और क्यों रोना बहुत ज़रूरी होता है।

कुल मिलाकर जितनी बातें मम्मा ने बताईं, लगभग उतनी ही इन्होंने भी बताईं। मगर खास बात यह है कि मेरी ज़िन्दगी की सारी लड़कियों में से किसी ने भी कभी यह नहीं बोला कि मेरी इज्ज़त बस 8 मार्च को ही करना। सभी हर रोज़ खुश रहना और देर रात तक बाहर घूमना चाहती हैं।

मैं इनको महिला दिवस पर बधाई नहीं दे सकता मगर जितना इन्होंने सिखाया है, उसके बदले चाहता हूं कि यह अपनी ज़िंदगी में जहां भी रहें, आबाद रहें।

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