‘सरकारी विद्यालय में पढ़े हो क्या?’ ‘ओ खिचड़ी खाने जाते थे क्या?’ ऐसे वाक्य हममें से कितनों ने बोला होगा या सुना होगा। सरकारी विद्यालयों और उनमें पढ़ने वालों पर सैकड़ों चुटकुले हम-आप जानते होंगे। सरकारी विद्यालयों के प्रति दुर्भावना एक दिन में नहीं बनी, वर्षों लगे इसकी नकारात्मक छवि बनाने में और आज यह वर्तमान परिस्थिति सामने है। आज सरकारी विद्यालयों में उन्हीं के बच्चे पढ़ रहे हैं जिनकी आर्थिक और शैक्षिक स्थिति कमजोर है। जो थोड़े से सम्पन्न हो गए वो निजी विद्यालयों की ओर दौड़ रहे हैं। निजी स्कूलों में पढ़ाना एक सामाजिक स्टेटस सा बन गया है।
सबसे पहले हमें यह सोचना होगा कि ये बच्चे किसके हैं?- समाज के, देश के। अगर इन बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ होगा तो परोक्ष रुप से देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। जब हमारी नींव ही कमजोर होगी तो डिजिटल इंडिया का खाक करेंगे। रात एक फिल्म देख रहा था, ‘द रिटर्न्स ऑफ अभिमन्यु’। इस फिल्म में दिखाया गया कि हमें कैसे लूटा जाता है? कैसे बैंकों से, एटीएम से पैसे उड़ाए जाते हैं। अंत में संदेश दिया जाता है कि तकनीकी रूप से हमें बेहतर होना चाहिए। अब सवाल यह है कि जहां लगभग 40% आबादी या तो अंगूठा छाप है या फिर सिर्फ साक्षर मात्र है वहां ये कैसे संभव हो सकता है? हमारी नींव ही खोखली है। इसपर बना महल एक दिन गिरेगा ही।
सबसे पहले हम सरकारी विद्यालय और निजी विद्यालयों के शिक्षकों की तुलनात्मक अध्ययन कर लें क्योंकि समान शिक्षा में सबसे बड़ी बाधा यही बताई जाती है। पुराने शिक्षकों से लोगों की कोई शिकायत नहीं है। शिकायत हम जैसे नए शिक्षकों से है। 2011 में पहली बार बिहार टीइटी परीक्षा हुई। इसमें करीब 27 लाख लोगों ने आवेदन किया। इसमें पास होने के लिए बस 60% (55% आरक्षित कोटे में) अंक लाना था चाहे आप जैसे भी लाएं। अगर सभी के सभी आवेदक भी उस मानक को पार कर लेते तो सभी पास हो जाते पर पास लगभग 1 लाख अभ्यर्थी किये। जो आज निजी विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं निःसंदेह उन्होंने भी आवेदन दिया होगा पर वांछित सफलता नहीं मिली होगी इस कारणवश अभी भी निजी विद्यालयों में हैं। कुछ लोगों का कहना है कि प्रश्नपत्र आउट हुए, धांधली हुई। बात सही है पर सबके सब वैसे ही आये हों ये संभव नहीं है। 1-2% वैसे होंगे, बहुत होगा तो 5% वैसे होंगे। इससे ज्यादा नहीं हो सकते हैं। तो यह मान कर चले कि शिक्षकों की योग्यता सिर्फ कुतर्क गढ़ने के लिए है। धरातल पर ये कोई समस्या नहीं है।
आखिर योग्य शिक्षक होने के बावजूद क्यों विद्यालय बदनाम हो रहे?
योग्य शिक्षक हैं, विद्यालय है और बच्चे भी हैं फिर समस्या कहाँ पर है? साजिश के तहत सरकारी विद्यालयों को बदनाम किया जा रहा है। विद्यालयों में गैर शैक्षणिक कार्यों का भरमार है। विद्यालय को सिर्फ डाटा संग्रह करने का ऑफिस बना दिया गया है। संसाधनों का घोर अभाव है। सरकारी विद्यालयों की नकारात्मक छवि दिखा कर निजी विद्यालयों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ये एक संगठित लूट तंत्र बना हुआ है जिसमें सबकी भागीदारी है। ड्रेस से लेकर एक पेंसिल तक का कारोबार हो रहा है। प्रत्येक सत्र में ड्रेस, किताब को बदल दिया जाता है। पुनः नामांकन के नाम पर लूटा जाता है। एक एनजीओ के द्वारा ‘WHERE INDIA READS’ शीर्षक के साथ एक रिपोर्ट छपी थी जिसमें यह बताया गया कि निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले 10 में से 9 बच्चे अपनी योग्यता अनुरूप अंग्रेजी पढ़ने में अक्षम हैं। यहां कुकुरमुत्ते की तरह खुले निजी विद्यालयों का दावा है कि वो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाते हैं। मतलब हमें कहीं न कहीं ठगा जा रहा है। फेयर एंड लवली क्रीम के विज्ञापन की तरह हमें मूर्ख बनाया जा रहा कि इसको लगाने से गोरे हो जाएंगे।
क्यों समान शिक्षा जरूरी है?
समाज में जातिगत वर्गीकरण के साथ-साथ एक नया वर्गीकरण उभर रहा है। निम्न जाति और आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए सरकारी विद्यालय, निम्न मध्यवर्गीय के लिए निम्नस्तरीय निजी स्कूल, उच्च मध्यवर्गीय के लिए उच्चस्तरीय और सम्पन्न लोगों के लिए वातानुकूलित विद्यालय। सरकारी विद्यालयों के श्रेणी में केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक विद्यालय भी आते हैं पर वो सबों के लिए नहीं उपलब्ध है। जातिगत वर्गीकरण का दंश तो देश झेल ही रहा है अब इस नए वर्गीकरण का दंश भी आगामी समय में देश को झेलना होगा।
एक बच्चा जो गरीब घर में पैदा होता है और उसके माता-पिता अशिक्षित हैं तो उसमें उस बच्चे का दोष नहीं है। बच्चे का जन्म उसकी मर्जी से नहीं होता है। वहीं दूसरी ओर एक बच्चा जो शिक्षित और सम्पन्न घर में जन्म लेता है उसे अनेक सुविधाएं जन्मजात मिल जाती है। तो कहीं न कहीं हम भेदभाव कर रहे हैं। उस गरीब के बच्चे का दिमाग तेज होगा पर सही प्रशिक्षण और गाइडलाइंस के अभाव में वो उस औसत बच्चे से पिछड़ जाता है जिसका जन्म सम्पन्न और शिक्षित परिवार में हुआ था। इसके अलावे हम देखते हैं कि सभी अधिकारियों, नेताओं के बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। जिस कारण सरकारी विद्यालयों पर इनका ध्यान नहीं रहता है। बस छात्रवृत्ति/ पोशाक और मध्याह्न भोजन योजना सही से चल जाए हो गया। न कंप्यूटर शिक्षा, न पुस्तकालय, न प्रयोगशाला और न बुनियादी सुविधा देने की कोशिश की जाती है। अगर कभी जांच में गए भी तो उनका उद्देश्य सिर्फ पैसा बनाना रहता है। अगर इनके भी बच्चे पढ़ते तो क्या ऐसा होता? बाजारीकरण के इस दौर में आर्थिक रूप से वंचित तबका गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए कहाँ जाएगा?
2005 में, माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी, जो स्वयं को सामाजिक न्याय व समानता के सिपाही बताते हैं, के द्वारा प्रोफेसर मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में ‘समान स्कूल प्रणाली’ आयोग बनाया गया। इस आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसे मुख्यमंत्री जी आज तक लागू नहीं करवा पाए। अगर कोई स्वयं को लोहियावादी बताता है या फिर उनकी राजनीतिक विरासत को सहेजना चाहता है तो उन्हें लोहिया जी के शब्दों को लागू कराना चाहिए। डॉ राम मनोहर लोहिया जी कहते थे -” राष्ट्रपति हो या निर्धन की संतान, सबकी शिक्षा एक समान”।
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने एक आदेश दिया कि सरकारी कर्मचारी अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाएं। यह स्वागतयोग्य फैसला था पर इसका काट सबको मालूम है। सरकार चाहे तो सबकुछ कर सकती है। बिहार में शराबबंदी एक दिन में लागू हो गयी तो क्या समान शिक्षा नीति लागू नहीं कि जा सकती? अगर सरकार इसमें असमर्थ है तो प्रत्येक सरकारी विद्यालय को उच्च स्तरीय बनाये। यूँ लावारिस की तरह नहीं छोड़ें। अगर यह भी नहीं करना चाहते तो कम से कम ऐसी प्रणाली विकसित करे जिससे एक बच्चा केवल एक जगह ही नामांकित हो सके और सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को अलग से आरक्षण दिया जाय।
समान शिक्षा नीति लागू नहीं होने की स्तिथि में सबसे ज्यादा चरित्र हनन किसी का हो रहा है तो वे सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हैं। हर शिक्षक अपना शत प्रतिशत देने को तैयार है। शिक्षक हरसंभव सहयोग के लिए तैयार हैं पर करना सरकार को होगा और अगर नहीं हो रहा तो दोषी यहां का वंचित समाज है। वंचित समाज से निवेदन है कि आप सिर्फ वजीफ़ा और मध्याह्न भोजन के चक्कर में न फसें। आप अपने समाज के नेता पर दवाब बनाएं, सरकार पर दबाव बनाएं और अपने बच्चों का भविष्य सवारें।