देश मे लोकतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और संविधान ने इसके लिए कुछ सीमाओं का उल्लेख भी किया है लेकिन उन्हें मानता कौन है? वैसे अभी कुछ समय से देश मे एक नई मुहिम शुरू की गई है। यह मुहिम किसी विशेष समुदाय के कुछ लोगों के साथ कुछ राजनीतिक दलों के आपसी सामंजस्य से शुरू हुई है।
इसमें शारीरिक श्रम की आवश्यकता तो बिल्कुल नहीं है बस कुछ मानसिक क्रियाकलाप एवं शाब्दिक प्रयोगों से इसे फैलाया जा रहा है। इसके अंतर्गत हिंदी के शब्दकोशों से कुछ बड़े-बड़े शब्द निकाल कर लाए जा रहे हैं।
सोशल मीडिया के ज़रिये शब्दों का अविष्कार
इन शब्दों के बारे में तो स्नातक में हिंदी को मुख्य विषय के रूप में पढ़ने वाले भी अब तक नहीं सुने होते हैं, फिर शुरू होता है शब्द युद्ध। इन चीज़ों को अंजाम दने के लिए सोशल मीडिया का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है।
देश के तमाम न्यूज़ चैनल ऐसे मामलों पर मसाला डालने का काम करते हैं। मैं तो खुद ही हैरान था जब ‘असहिष्णुता’ शब्द जिसका उच्चारण तक लोगों को नहीं आता था, वह इस कदर प्रचलित हुआ जैसे पृथ्वी पर फिर डायनासोर की उपस्थिति हो गई है।
सबसे हैरानी की बात यह थी कि लोग ऐसे शब्दों का समर्थन भी कर रहे थे। मतलब जिन्हें देखो वही सहिष्णुता और असहिष्णुता पर विचार विमर्श करने लगे। अब असहिष्णुता भी वैसे लोगों को महसूस हुई जिन्हें देश में सर्वाधिक स्वतंत्रता प्राप्त है और अपनी मर्ज़ी से पर्व त्यौहार मनाने के अलावा तमाम सुविधाओं का उपयोग भी कर रहे हैं।
तुष्टिकरण का इज़ाद
इस बीच तुष्टिकरण शब्द भी काफी फेमस हो गया। अब वे लोग हिन्दू तुष्टिकरण की बात करने लगे जो स्वयं हिन्दू होने के बाद टोपी पहनकर नमाज़ पढ़ते हैं। एक सुप्रसिद्ध अभिनेता जी को भी अपने एवं अपने बच्चों के भविष्य के लिए डर लगने लगा।
अब यह सब बातें तो देश में सदैव आती और जाती हैं लेकिन एक और शब्द ‘अंधभक्त’ जो पिछले कुछ दिनों से काफी प्रचलित है। मौजूदा वक्त में समस्या यह है कि अगर आप चौक पर खड़े होकर पिछले कुछ वर्षों में परिवहन एवं संचार के विस्तार पर चर्चा करते हैं, तो आप अंधभक्त हैं।
अगर कभी गलती से आपने 2जी और 3जी कोल का पोल खोलना शुरू किया तो आप अंधभक्त हैं। अरे यह सब छोड़िए अगर आप विदेशों से भारत के अच्छे संबंध बनने की बात कर देते हैं, तो भी आप अंधभक्त ही माने जाएंगे।
कौन हैं अंधभक्त कहलाने वाले लोग?
अब बताते हैं यह अंधभक्त कहने वाले लोग कौन हैं। यह वही लोग हैं जो जन्म से टूटी हुई सड़कों पर 10 किलोमीटर में चार बार साईकल गिरा कर बड़े हुए हैं और सूचना प्रद्योगिकी के बारे में जानना तो दूर, इन लोगों ने सुना भी नहीं था।
इस प्रकार के लोग तब कहां थे जब सोनिया गाँधी के इशारे पर मनमोहन सिंह कोई भी फैसला लेते थे। अब यह बात इन्हें कैसे पचे कि एक प्रधानमंत्री स्वयं फैसले लेने लगा है और देश की व्यवस्था में सुधार के साथ अपनी विदेश नीति से कई देशों को भी झुकने पर मजबूर कर दिया है।
ऐसे लोग सर्जिकल स्ट्राइक जैसी घटना पर भी सबूत मांगते हैं लेकिन सैनिकों के सर कटने पर चुप्पी साध लेते हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद के बढ़ते स्तर को, देश मे कुछ विशेष समुदाय की करतूतों को और देश में पूर्व में हुए भ्रष्टाचार एवं घोटालों को दर्शाने पर कुछ लोग अंधभक्त बताते हैं।
इसे बताने पर इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता बस इनकी चाटुकारिता की भावना संतुष्ट हो जाती है। यहां सवाल यह नहीं है कि लोग अंधभक्त शब्द का प्रयोग क्यों करते हैं बल्कि मसला यह है कि इनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है। ऐसे लोग केवल भड़ास निकालना जानते हैं।
ऐसे वक्त पर ज़रूरत है कि हम इन चीज़ों को नज़रअंदाज़ करते हुए अपने काम में लगे रहें। सरकार के कार्यों को देखने, विचार करने और निष्कर्ष निकालने के बाद ही कुछ कहें। लोगों का क्या है, वे कुछ भी बोलेंगे, झूठ और भ्रष्टाचार के जाल में फंसे रहकर चाटुकारिता करते रहने से अच्छा है सच्चाई का साथ देकर अंधभक्त बनना।