पुलवामा अटैक पर मौजूदा मेन स्ट्रीम भारतीय मीडिया ने जो रवैया अपनाया है, वह बेहद निंदनीय है। जवानों की वीरगति के बाद जो भावनाएं देश मे उमड़ी हैं, मीडिया उसका बाज़ार बनाकर उनका मज़ाक उड़ाने का काम कर रही है।
पुलवामा अटैक पर मीडिया में एक होड़ सी लगी है कि कौन पहले कितना नीचे गिर सकता है। कुछ एक चैनल को छोड़कर किसी ने भी सधी हुई रिपोर्टिंग नही कर पाई।
अजीब बात है कि टीआरपी कमाने और कौन ज़्यादा राष्ट्रवादी होने के चक्कर में मीडिया अपना किरदार ही भूल बैठा है। मार डालो, काट डालो, बदला लो, आखिर कब? युद्ध करो और मिसाईल चलाओ जैसे सैकड़ों नारों से टीवी स्टूडियो गूंज उठे।
एंकर ऐसे रिएक्ट करने लगे मानो वे देश के सुरक्षा सलाहकार हों और वे जो इंफॉर्मेशन दे रहे हैं या जो ऑप्शन वे बता रहे हैं, वे देश के पीएम और सेना को पता तक नहीं हैं।
शहीदों के परिवारों के प्रति संवेदना जताना तो इनके बस की बात नहीं है लेकिन शहीद की बेटी, पत्नी, बेटा, माँ, बाप और रिश्तेदारों के मुंह में माइक घुसेड़ने के लिए तैयार हैं कि कहीं कोई हेडलाइन मिल जाए जिन्हें ये बेशर्मों की तरह चला पाएं।
टीवी एंकर को देखकर तो लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब लोग इन्हें निश्चित ही देखना बंद कर देंगे। ज़ी न्यूज़ के डीएनए शो के एंकर एक सेवानिवृत्त कर्नल से पूछ रहे थे, “भारत ने अग्नी, पृथ्वी और ब्रह्मोस जैसी मिसाइल्स किस दिन के लिए रखी हुईं हैं।”
अब आप सोचिए यह कैसा बेहूदा सवाल है। क्या एंकर साहब को यह याद नहीं कि परमाणु परीक्षण के वक्त हमारे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि हमने परमाणु हथियार किसी देश पर इस्तेमाल करने के लिए नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिए बनाए हैं।
खैर, उस बात से एंकर साहब को क्या मतलब। उन्हें तो केवल अपने अतिराष्ट्रवादी एजेंडे से मतलब है। कुल मिलाकर बिना लॉजिक की नफरत से भीड़ पैदा करते हुए न्यूज़ चैनल दुनिया ने शायद पहली बार देखें होंगे।
सरकार से सवाल कोई क्यों नही पूछ रहा?
अजीब बिडम्बना है कि हमारे देश ने आतंकवादियों द्वारा किए गए कायराना हमले में अपने बहुमूल्य 40 जवान गवां दिए और उस देश मे उस हमले के प्रति किसी की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है। कोई यह ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं कि जब पहले से इस हमले का इनपुट था तो कमी कहां, कैसे और किसकी रह गई जो आतंकवादी इस घटना को अंजाम देने में सफल हो पाए।
एक सवाल इस पर भी खड़ा होता है कि इस पर देश के प्रधानमंत्री से कोई सवाल नहीं पूछ पा रहा हैं। वह जो रैली में बोल देते हैं, उसको ही जवाब मानकर मीडिया बाहें फाड़ने लगता है, “प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को दी चेतावनी और कहा कि किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा।”
सरकार ने हमले की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान पर डालकर अपना पिंड लगभग छुड़ा लिया है और इसमे कुछ नया भी नहीं था क्योंकि यही इस देश की रिवायत बन गई है। चाहें सरकार में बीजेपी हो या काँग्रेस कोई फर्क नहीं पड़ता है।
सरकार ने हमेशा की तरह कश्मीर को लेकर अपनी खामियां पाकिस्तान की आड़ में छुपा लीं और हम जनता ने भी पाकिस्तान का पुतला फूंककर, पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाकर और मोमबत्ती जलाकर अपने आपको शांत कर लिया।
सरकार से कोई सवाल नहीं पूछा कि सरकार में या हमारे सिस्टम में कौन ज़िम्मेदार है। अपनी किस्मत को रोइए की टीवी स्टूडियो को वॉर-रूम बनाकर युद्ध लड़ने वाली आज की मृत-मीडिया में ज़रा भी हिम्मत नहीं कि सरकार या रूलिंग पार्टी के अध्यक्ष तक से कोई सवाल पूछ सके।
आपको ज्ञात होना चाहिए कि 26/11 को हुए मुंबई हमलों के बाद तत्कालीन गृह मंत्री शिव राज पाटिल, महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और आर. आर. पाटिल ने ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया था लेकिन इस बार तो मीडिया में इस तरह की कोई चर्चा तक नहीं हुई। इसलिए समझिए कि यह शोर-शराबा क्यों मचाया जा रहा था।
बदले से क्या मिला?
जिस बदले की आग भारतीय मीडिया ने पुलवामा अटैक के बाद लोगों के दिलों मे जगाई, उससे आप खुद देखिए कि हमने क्या पाया।
उस बदले में हमने जैश के 3 आतंकी मारे और किस कीमत पर कि हमने मेजर विभूति सहित 4 बहुमूल्य जवान खो दिए। हमारे बदले की आग ने यह किया कि एक पत्नी अपने पति के पार्थिव शरीर को छूकर “I Love You Vibhu” बोल रही है और हम उस वीर शहीद की पत्नी को वीरांगना कहकर अपना पीछा छुड़ा ले रहे हैं।
वह अपने पति से फिर कभी नहीं मिल पाएगी और अपने विभू के गले लगकर “I Love You” भी नहीं कह पाएगी। बेसुरा शोर मचाती मीडिया और उसके सुर में सुर मिलाते हम अपने शहीदों के परिवारों के साथ मज़बूती से खड़े होने की जगह उन पर एक प्रेसर बनाते हैं, जिसमे वे ना तो ढंग से रो सकते हैं और ना उस जाने वाले को ढंग से विदा कर पाते हैं, जो अब उनको कभी नहीं मिलेगा।
शहीदों के परिवार के लोगों से मीडिया जिस तरह बात करता है, वह बहुत घटिया तरीका है और जब उस शहीद की चिता जल जाती है, फिर मीडिया वहां कभी यह जानने नहीं जाता कि अब वे कैसे हैं?
कुल मिलाकर यह टीआरपी का व्यवसाय है और इनको वही चाहिए लेकिन हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता हैं तो हमें सही और गलत को समझना पड़ेगा और मीडिया या सरकार के साथ नहीं बल्कि हमे अपने शहीद भाइयों के परिवारों और अपने देश के साथ डटकर खड़े रहना है।
हमने पाया कि आम कश्मीरियों को देश के अलग-अलग हिस्सों में परेशान किया जाने लगा। कश्मीरी व्यापारियों को खदेड़ते हुए भगाया जाने लगा। हालांकि इसमें कुछ खबरें अफवाह भी साबित हुईं लेकिन कुछ सही भी हैं।
आप ज़रा सोचिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जो कश्मीरी लोग कश्मीर गए हैं, उनके दिलों में हमारे लिए कतनी नफरत होगी। जो कश्मीरी या कोई भी शख्स सेना का अपमान करते हैं या उनके खिलाफ कुछ आपत्तिजनक पोस्ट करते हैं, उन्हें बिल्कुल कानून के तहत सज़ा दीजिये लेकिन यह तरीका गलत है कि आप एक इंसान की वजह से पूरी कम्युनिटी को गलत पेंट करने लगें।
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि ये हिंदू संगठन और मुस्लिम संगठन कौन लोग हैं? इन्हें कानून के किस नियम के तहत ये ऊल-जलूल काम का अधिकार प्राप्त है। एक बात जान लीजिए कि अगर ऐसे धार्मिक संगठनों पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई, तो यह एक दिन हम सब पर भारी पड़ेगा।
मीडिया का सरकारों के नज़दीक रहने का चलन कोई नया नहीं है लेकिन आजकल तो नज़दीक नहीं बल्कि ऐसा लगता है कि ज़्यादातर न्यूज़ एंकर्स सरकार के प्रवक्ता बन बैठे हैं।
ऐसे दौर में हमको और आपको एक दूसरे की आवाज़ बनना होगा ताकि लोकतंत्र ज़िंदा रहे, क्योंकि भारत की आत्मा तभी तक ज़िदा रहेगी जब तक यहां लोकतंत्र है, जो आपको आज़ादी से जीने का अधिकार देता है।
लोकतंत्र में अहंकार की कोई जगह नही है इसलिए इस अहंकारी मीडिया और ऐसी अहंकारी सरकारों के लिए दुष्यन्त कुमार ने पहले ही कह दिया था-
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक ना कर,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं।