बेशक देश में पंचायत से लेकर लोकसभा चुनावों में महिलाएं पुरुषों से अधिक मतदान करने का कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं लेकिन मतदान में महिलाओं की भागीदारी का कोई तयशुदा मिज़ाज देखने को नहीं मिलता है।
उनके मतदान का रूझान ना ही जेंडर मुद्दों के समझ के अनुसार और ना ही जाति, वर्ग या धर्म जैसे सामाजिक मानकों के सामाजीकरण से तय होता है।
राजनीतिक पंडित इसका जायज़ा ज़रूर लेना चाहते है कि पूरी आधी-आबादी अपने मतों का प्रयोग किस तरह से करती है? परन्तु अभी तक इसका कोई सेट ट्रेंड देखने को नहीं मिला है।
इन सबके बीच आने वाले लोकसभा चुनावों में नए मतदाताओं में महिला और नए युवा महिला मतदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है।
इतिहास जानना ज़रूरी है
इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा है जब भारतीय महिलाओं के मतदान के हक को लेकर हर वर्ग, धर्म और भाषा की जागरूक महिलाएं बेहद मजबूरी और सख्ती से अपनी बात रख रही थीं।
आज वोट डालने वाली लड़कियों और महिलाओं के लिए यह ख्याल कल्पना से भी परे हो सकता है कि एक समय महिलाओं को वोट डालने के लायक ही नहीं समझा जाता था।
एक अजीब विडंबना यह भी है कि भारतीय महिलाओं को विश्व के अन्य देशों की तरह मताधिकार के लिए लैंगिंक युद्ध या एक-दूसरे के सर काटने की लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। यहां तक कि भारत को पूरी दुनिया में महिलाओं के शोषण करने वाले देश के रूप में बताया गया।
भारतीय समाज-सुधारकों ने भारतीय महिलाओं की यथास्थिति को विश्व की दूसरी महिलाओं से हमेशा अलग समझा। आज़ाद भारत में महिलाओं को वोट देने का अधिकार उस दिन के साथ ही मिल गया जिस दिन देश का जन्म हुआ।
आज़ादी के तुरंत बाद विभाजन की त्रासदी झेल रहे देश के लिए यह एक बहुत बड़ा फैसला था लेकिन औपनिवेशिक भारत में महिलाओं ने इसके लिए संघर्ष की शुरुआत 1920 के दशक से कर दी थी।
पहले बांम्बे और मद्रास (आज के मुंबई और चेन्नई) प्रांत बने जहां सीमित तौर पर महिलाओं को वोट के अधिकार दिए गए, अलग-अलग प्रांतों में उसके अपने-अपने नियम थे। महिलाओं के मतदाता की पात्रता उसके पति की संपत्ति, योग्यता और सामाजिक स्थिति पर निर्भर थी।
महिलाओं से मतदान का अधिकार छीनने की कोशिश
बिहार और ओडिशा प्रांत की सरकार ने मतदाताओं की संख्या कम करने के लिए महिलाओं से मतदान का अधिकार छीनने की कोशिश भी की। प्रारंभ में सरकार तलाकशुदा, विधवा या जिनके पास संपत्ति नहीं है, उनका नाम मतदाता सूची में शामिल भी नहीं करना चाहती थी मगर पूर्वोतर के मातृसतात्मक समाज को देखकर सरकार की सारी मंशा बदली। बाद में अन्य प्रातों में भी महिलाओं को वोटिंग का अधिकार मिला।
औपनिवेशिक भारत में महिलाओं के मतदान अधिकार के लिए संघर्ष करने वाली मृणालनी सेन ‘चांद पत्रिका’ में अपने लेख में लिखती हैं कि ब्रितानी सरकार के बनाए सभी कानून महिलाओं पर लागू होते हैं। अगर उनके पास संपत्ति है, तो उन्हें टैक्स भी देना होता है लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं है।
चांद पत्रिका के मुताबिक, “यह कुछ इस प्रकार का है मानो ब्रितानी सरकार महिलाओं से कह रहे हों कि न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की बजाए वे खुद ही स्थित से निपटें।
“हाऊ इंडिया बिकेम डेमोक्रेटिक सिटीज़नशिप ऐट द मेंकिंग आंफ द यूनिवर्सल फ्रैचाइज़ी” में डॉ. ओर्निट शनि लिखती हैं, “शुरुआत में महात्मा गाँधी ने वोटिंग का अधिकार पाने में महिलाओं का समर्थन नहीं किया। उनका कहना था औपनिवेशिक शासकों से लड़ने के लिए उन्हें पुरुषों की मदद करनी चाहिए।”
संघर्ष के बाद मिला महिलाओं को मतदान का अधिकार
1924, 1926 और 1930 तक के आम चुनावों में महिलाओं को मताधिकार का हक नहीं था। जब इंगलैड में 1928 में महिलाओं को लंबे संघर्ष के बाद यह अधिकार मिला, तब ब्रिटिश हुक्मरानों ने 1935 में भारतीय महिलाओं को यह अधिकार दिया।
भारतीय समाज सुधारकों ने भी इसके पक्ष में मन बनाया। बेगम रुकैया, बेगम शाह नवाज़ और सरोजिनी नायडू दोनों ने महिलाओं के मताधिकार पर अनूठा तर्क दिया।
उनके मुताबिक, “औरतें मताधिकार और राष्ट्र के मामले संभाल सकती हैं क्योंकि उन्हें घर से ही प्रशासनिक दक्षता हासिल हो जाती है। एक औरत जन्मजात प्रशासक होती है। भले पुरुष रोज़ी-रोटी कमाता हो लेकिन घर में तो स्त्री ही वास्तविक शासक होती है। चूंकि औरतें अपने बच्चों में राष्ट्रवाद का आदर्श भर सकती हैं, इसलिए उनको मताधिकार का अधिकार मिलना चाहिए।”
इन सारे तर्क के साथ-साथ महिलाओं को मतदान के अधिकार से दूर रखने के लिए पति और बच्चे की उपेक्षा होगी जैसे तर्क दिए जाते थे। यह भी कह दिया जाता था कि राजनीतिक काम करने से महिलाएं स्तनपान कराने में असमर्थ हो जाएंगी।
1935 में देश के 3 करोड़ लोगों को वोट देने का अधिकार दिया गया। यह संख्या देश की कुल व्यस्क आबादी का पांचवा हिस्सा था। इसमें महिलाओं की संख्या 80 हज़ार के आस-पास मतदाता सूची में थी।
आपको बता दें 1947 में जब मतदाता सूची का काम शुरू हुआ, तब वोटरों की संख्या जब 17 करोड़ 30 लाख तक पहुंच चुकी थी। इसमें आधी आबादी की संख्या 8 करोड़ ही थी, जिसमें करीब 85 फीसदी ने कभी वोट नहीं दिया था।
इसमें करीब 28 लाख महिलाओं का नाम वोटर लिस्ट से हटा देना पड़ा था क्योंकि उन्होंने अपने नाम ही नहीं बताए। महिलाओं को अपना और अपने पति का नाम बताने तक में आपत्ति होती थी। वह स्वयं को किसी की माँ या बेटी के रूप में पेश करती थी। सरकार जब महिलाओं के नाम से ही पंजीकरण के लिए सख्त हुई, तब महिलाओं ने अपना पंजीयन करवाया।
आज़ाद भारत में जब देश ने व्यस्कों को वोट करने का यानि अपनी सरकार खुद चुनने का अधिकार दिया, तब चीज़ें बदलने की शुरुआत हुई। धीरे-धीरे सार्वभौमिक मताधिकार और चुनावी लोकतंत्र की सोच पुख्ता हुई, जिससे बहुत सुधार हुए।
सरकार ने मीडिया का सहारा लेकर इसके लिए प्रचार करने का काम किया और अपने हितों की रक्षा के लिए खुद मतदाता बनने के लिए प्रोत्साहित किया।
प्रांतों से राज्य बनने के बाद देश की पहली संसद की चुनाव के लिए मतदान केंद्रों पर महिलाओं के लिए अलग बूथ की व्यवस्था की गई, जहां महिलाओं को लंबी कतारों में मतदान के लिए इंतज़ार करते देखना अपने आप में एक बहुत बड़ी जीत रही।
महिलाओं के हकों की लड़ाई अपने देश में आज भी जारी है। भारत अन्य देशों की तरह महिलाओं के अधिकार हासिल करने के लिए अपने-अपने मोर्चों पर संघर्ष भी कर रहा है।
मौजूदा राजनीतिक दौर में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और नागरिकता के सवाल नए सिरे से पुन: परिभाषित होते हुए लग रहे हैं। आज पहले से कहीं अधिक महिलाएं मतदान भी कर रही हैं मगर चुनाव में बतौर उम्मीदवार महिलाओं की कम भागीदारी अफसोसजनक भी है।
इस रास्ते में संघर्ष की बाधाएं थोड़ी नहीं बल्कि बहुत अधिक जटिल हैं। परंतु, जिस तरह से मतदाता के रूप में आधी आबादी की भागीदारी की तस्वीर बदली है, आज नहीं तो कल भारतीय राजनीति में आधी आबादी के सवाल राजनीतिक सवाल के रूप स्थापित ज़रूर होंगे। चुनावों में महिला उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ेगी।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य डॉ. ओर्निट शनि किताब “हाऊ इंडिया बिकेम डेमोक्रेटिक सिटीज़नशिप ऐट द मेंकिंग आंफ द यूनिवर्सल फ्रैचाइज़ी”, चांद पत्रिका के महिला अंक और बेगम रुकैया की आत्मकथा ‘मोतीचूर’ से लिए गए हैं।