पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समाज में महिलाओं को हमेशा कमज़ोर की संज्ञा दी गई है। हमारे समाज ने यूं तो महिलाओं के लिए कई डेफिनेशन दिए हैं लेकिन ‘किचन में घूसकर खाना पकाओ’ वाली बात सबसे प्रासंगिक है। ऐसे में दलित महिलाओं का ज़िक्र करने पर उनके लिए राह तो और कठिन है।
दलित रिक्शा चालक के पीछे बैठने पर हमे गुरेज़ नहीं होता लेकिन घरेलू कामगार महिला यदि दलित है फिर तो भौंहे पहले ही तन जाती हैं। हमने दलितों के लिए ज़हन में एक ऐसी तस्वीर बना ली है जैसे मानो दलित होना अपराध है।
दलित महिलाओं के उत्थान के लिए यूं तो कई सामाजिक संगठनों द्वारा कोशिशें जारी हैं लेकिन इस संदर्भ में बिहार के पटना की प्रतिमा पासवान ने समाज के लिए दलित होने के मायने बदल दिए हैं।
उल्लेखनीय है कि प्रतिमा पटना और आस-पास के इलाकों में समाज सेवा के कार्यों के ज़रिये लोगों के बीच अलख जगाने का काम कर रही हैं। उनकी संस्था ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच’ सामाजिक समावेश को लेकर अल्पसंख्य लड़कियों के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मसलों पर काम करती हैं।
प्रतिमा के लिए दलित महिलाओं की बेहतरी के लिए काम करना आसान रही है। इसकी शुरुआत तब होती है जब साल 2006 में अपने एक जानने वाले के घर जाने पर उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एक जानकार के घर पर चाय पीने के बाद जब प्रतीमा ग्लास रखती हैं, तब वही ग्लास तीन साल का अबोध बच्चा उठाकर ले जाता है, फिर उस बच्चे को घर की एक बुज़ुर्ग महिला ज़ोर की डांट लगाते हुए कहती हैं, “सब बर्बाद हो गया।”
यह कोई पहली घटना नहीं है जब प्रतिमा को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा हो। एक अन्य घटना का ज़िक्र करते हुए प्रतिमा बताती हैं कि साल 2008 की बात है जब मैं पटना में ही एक संस्था के साथ काम करती थी। उस दौरान एक प्रोजेक्ट की सफलता के बाद सेलिब्रेशन मनाया जा रहा था, जहां मैं भी आमंत्रित थी।
वह आगे कहती हैं, “कार्यक्रम के दौरान खाने की चीज़ें दी गईं और जब मेरा खाना समाप्त हुआ तब उनके घर के एक सदस्य ने कहा कि देखो प्रतिमा तुम तो जानती हो कि तुम्हारी जाति के बारे में सभी को पता है और आज काम वाली महिला भी नहीं आई हैं। प्लीज़ तुम अपनी प्लेट धो दो। मुझे उनकी बातें अच्छी नहीं लगी और अगले दिन से मैंने काम पर आना बंद कर दिया।”
प्रतिमा बताती हैं,
हिन्दुस्तान में कास्ट सिस्टम सदियों से चली आ रही है, जहां इंसान हमेशा दूसरे को खुद से नीचा और गिरा हुआ समझता है। ऐसी बात नहीं है कि जातिवाद सिर्फ ब्राहमणों में ही है, बल्कि मौजूदा वक्त में शेड्यूल कास्ट के लोग आपस में ही जातिवाद को बढ़ावा देने लगे हैं। जैसे- ‘चमार’ जाति का व्यक्ति ‘मुसहर’ से जातिवाद कर रहा होता है तो ‘मुसहर’ किसी और समुदाय से भेदभाव करता है। यह मुझे बहुत पीड़ादायक लगता है। ब्राहमणों ने शायद रीति फैलाई होगी लेकिन उससे ज़्यादा जातिवाद का दंश आज दलित समुदाय में है।
फुटबॉल के ज़रिये लड़कियों को बनाती हैं आत्मनिर्भर
सामाजिक कार्यों के प्रति प्रतिमा का जुनून औरों से अलहदा है। बिल्कुल ही नायाब तरीके से दलित लड़कियों को आत्मविश्वास से लबरेज़ कर रही हैं। बातचीत के दौरान प्रतिमा बताती हैं कि लड़कियों के साथ हमारी पहचान फुटबॉल को लेकर है।
वह आगे कहती हैं, “लड़कियों की दिलचस्पी हम पहले फुटबॉल के प्रति जगाते हैं, फिर उन्हें इस खेल के ज़रिय जेंडर और सेक्सुअलिटी जैसी बहुत सारी चीज़ें सिखाते हैं। हम उन्हें फुटबॉल इसलिए खेलने को कहते हैं ताकि वे ग्रूप वर्क सीखते हुए लंबे वक्त तक सस्टेनेबल रहें।”
उल्लेखनीय है कि प्रतिमा के पिता स्व. चंदेश्वर पासवान ज़िला स्तर के फुटबॉलर रह चुके हैं। प्रतिमा को भी फुटबॉल के प्रति जुनून अपने पिता से ही मिली है।
प्रतिमा की पहल से जब एक दलित महिला को मिली न्याय
प्रतिमा कहती हैं कि साल 2016 की घटना है जब एक दलित महिला खेत में काम करने के लिए गई थीं। इसी बीच गाँव का एक रसूखदार व्यक्ति उस महिला की जाति पर तंज करते हुए कहता है, “हगै चमेनिया, कहां जाए छी गे?”
बकौल प्रतिमा, “उस व्यक्ति की बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए वह महिला खेतों में काम पर चली गईं लेकिन जब वह वापस आ रही थी तब उसके माथे पर भारी बोझा था, जिसका फायदा उठाते हुए उस व्यक्ति ने पीछे से आकर महिला को पकड़ लिया और छेड़खानी शुरू कर दी। वह महिला किसी तरह बोझा गिराकर रोती हुई घर चली गई।”
दलित महिला के घर पर आग लगा दिया
उस घटना के बाद रात काफी हो गई थी इसलिए दलित महिला के परिवारवालों ने पुलिस में शिकायद दर्ज़ नहीं की। हालांकि इस बीच किसी ने उस रसूखदार व्यक्ति तक यह खबर पहुंचा दिया कि तुम्हारे खिलाफ थाने में शिकायत किया गया है।
उस व्यक्ति ने दलित महिला के घर को बाहर से लॉक करते हुए आग लगा दिया। दलित महिला, पति, दो बच्चे और बूढ़ी माँ आग की लपटों के बीच घर के अंदर ही थीं। किसी तरह पड़ोस के लोगों ने ताला तोड़कर उन्हें बाहर निकाला।
इस बात की जानकारी जब प्रतिमा को मिली तब उन्होंने पुलिस स्टोशन जाकर उस व्यक्ति के खिलाफ एफआईआई दर्ज़ कराई। पुलिसवाले एट्रोसिटी एक्ट नहीं लगा रहे थे लेकिन प्रतिमा के लगातार दबाव बनाने पर पुलिस को एट्रोसिटी एक्ट लगानी पड़ी। बाद में जब रसूखदार व्यक्ति को पकड़कर लाया गया तब उसने अपना गुनाह कुबूल किया।
प्रतिमा की कोशिशों के ज़रिय उस दलित महिला के साथ छेड़छाड़ करने और उसके घर को जलाने वाले व्यक्ति को तीन साल की सज़ा हुई और साथ ही साथ महिला को मुआवज़ा भी दिया गया।
मोहब्बत के दुश्मनों के खिलाफ प्रतिमा की लड़ाई
मामला दरभंगा के पास का है जहां एक दलित (पासी) लड़के ने प्रेम-प्रसंग में ओबीसी की लड़की से शादी कर ली। दोनों ने शादी तो अपनी मर्ज़ी से की लेकिन लड़की के पिता के लिए इज्ज़त का सवाल था कि दलित लड़के से भला उसकी बेटी की शादी कैसेे हो सकती थी।
लड़की के पिता ने गुंडों के बल पर लड़के के परिवारवालों की पिटाई करा दी। गुंडों ने लड़के के परिवारवालों को काफी पीटा। लड़की वालों ने पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराते हुए लड़के को जेल भेज दिया।
प्रतिमा बताती हैं, “मामले की जानकारी मुझे मिलने के बाद मैंने एसपी से मुलाकात की और उन्होंने मेरे कहने पर लड़की वालों पर एट्रोसिटी एक्ट लगाई। चूंकि लड़की के पिता की राजनीतिक पहुंच अच्छी थी जिस वजह से ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ से कुछ लोग मेरे पास पैरवी लेकर आ गए, जिन्हें मैंने साफ मना कर दिया।
मैंने लड़के को जेल से छुड़वाया और उन बदमाशों को जेल भिजवाया। अभी लड़का और लड़की अगल ज़रूर रह रहे हैं लेकिन दोनों परिवारों के बीच हिंसात्मक घटनाएं नहीं हो रही हैं।
इस देश में दलितों के साथ हो रहे अत्याचार के बीच प्रतिमा की कहानी मिसाल पेश करती है। दलित महिला के तौर पर जातिगत दंश झेलने के बाद प्रतीमा ने ना सिर्फ अपनी किस्मत की रेखाओं को बदलते हुए नायाब रुख अख्तियार किया, बल्कि संस्था की संचालिका के तौर भी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभा रही हैं।