अक्सर हम रंगकर्मी थिएटर के खर्चे का रोना रोते रहते हैं। हॉल का किराया, सेट, प्रॉप्स, लाइट्स और म्यूज़िक आदि के खर्चे जुटाते हुए बेचारे रंगकर्मी अपने कलाकारों और लेखकों को भूल ही चुके होते हैं। ऐसे में यह कह सकते हैं कि कलाकारों और लेखकों पर इनका ध्यान ही नहीं होता।
आखिर तकनीकी संसाधनों के आगे मानव संसाधन और मानव श्रम की क्या बिसात! नतीजा, तकनीकी पक्ष पर न्यूनतम लाखों रुपये खर्च करने वाले रंग निर्देशक कलाकारों या लेखकों को कोई मानधन नहीं देते हैं, उल्टा पैसे की कमी का रोना रोते हुए शाश्वत वाक्य दोहराते रहते हैं, “अभी तो आर्थिक तंगी है। आपसी सहयोग से नाटक कर रहे हैं। अभी देने की स्थिति नहीं है। जब स्थिति आएगी, ज़रूर देंगे।”
यकीन मानिए वह स्थिति कभी नहीं आती है। आएगी भी नहीं, क्योंकि स्थिति लाने की नियत ही नहीं होती है। कहावत है, जैसी नियत वैसी बरकत। नियत देने की नहीं तो बजट आए कहां से!
कलाकारों को तो शो के बाद कम-से-कम एक कप चाय और एक समोसा तो मिल जाता है। बेचारे लेखक को वह भी नहीं नसीब होता है। इसमें निर्देशक का दोष नहीं, क्योंकि लेखक वहां होता ही नहीं है। उसे एक शो में बुलाने की भी ज़हमत कोई नहीं उठाता है, क्योंकि नाटक तो संकट में खेला जाता है और आर्थिक संकट में लेखक पर खर्च करके घर के बचे खुचे आटे को गीला कैसे किया जाए!
सोचिए! स्क्रिप्ट अच्छी ना हो तो अच्छे से अच्छा कलाकार भी नाटक को उठा नहीं पाता और स्क्रिप्ट अच्छी हो तो रंग पाठ भी नाटक का आनंद दे जाता है लेकिन तकदीर देखिए कि उसी स्क्रिप्ट के लेखक की कोई पूछ नहीं।
नाटक लेखक, रंगकर्मी और नाट्य कलाकार के रूप में काम करते हुए इन चुनौतियों से बहुत रूबरू होती रही हूं। अंत में इसका निदान मुझे रूम थिएटर जैसे गैर पारंपरिक लेकिन अत्यधिक प्रभावी तरीके में मिला। आप रूम थिएटर कीजिए, आपके बजट में कम से कम 90% की कटौती हो जाएगी। शेष 10 परसेंट में भी आपके पास इतने पैसे रहेंगे कि आप अपने कलाकारों और लेखकों को मानधन दे सकें और रंगकर्म एक आजीविका पर उनका विश्वास बन सके।
मैंने मार्च, 2014 में “न्यूनतम में अधिकतम” की अवधारणा के साथ ‘अवितोको रूम थिएटर’ शुरू किया। उद्देश्य- कम खर्च और कम लागत में सर्वोत्तम देना। मेरी नज़र में नाटक के लिए भोजन के तीन प्रमुख तत्वों- रोटी, दाल, सब्ज़ी की तरह स्क्रिप्ट, निर्देशन और अभिनय- ये तीन तत्व ज़रूरी हैं।
चटनी, अचार, दही और सलाद की तरह सेट, प्रॉप्स और लाइट्स आदि अतिरिक्त सुविधाएं हैं। नि:संदेह, इनसे भोजन का स्वाद बढ़ता है, उसी तरह से इन तत्वों के होने से नाटक की खूबसूरती और प्रभाविता और अधिक बढ़ जाती है लेकिन जहां हमारे पास खर्चने को पैसे नहीं, वहां हम क्यों इतने खर्च की बात करें?
थिएटर के दर्शक बहुत समझदार हैं। आप अपने सीमित संसाधन में उन्हें जो दिखाएंगे, वे देखेंगे और आपके प्रयास से उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता को बढ़ावा मिलता है। गद्देदार बिस्तर बिछाने के बदले उस बिस्तर का अभिनय दर्शकों को भी उसकी कल्पना के विस्तार की ओर ले जाता है।
सामान्यतः दर्शक एक कहानी और उसका एक अच्छा ट्रीटमेंट या प्रस्तुति चाहते हैं। रूम थिएटर में वह उन्हें मिलता है। किसी भी जगह सिनेमा हॉल की तरह हर गली में नाटक के हॉल नहीं होते हैं। पूरे इलाके के लिए एक प्रेक्षागृह में पहुंचना मुमकिन नहीं है। रूम थिएटर के ज़रिये आप हर गली, मोहल्ले में नाटक कर सकते हैं।
स्थानीय लोग आएंगे, नाटक देखेंगे। मुझे खुशी है कि रूम थिएटर के मेरे इस गिलहरी प्रयास के सार्थक नतीजे निकल रहे हैं। लोग मंदिर, स्कूल, सड़क, शादी के हॉल और रेस्तरां आदि गैर पारंपरिक स्थानों पर जेनरल लाइट और बिना स्टेज के नाटक कर रहे हैं। दर्शक उन्हें देख रहे हैं क्योंकि उन्हें उनके इलाके में यह देखने को मिल रहे हैं।
मुम्बई में ही 40 से 70 की क्षमता वाले छोटे-छोटे स्टूडियोनुमा हॉल बन गए हैं। रंगकर्मी बड़े उत्साह के साथ इन जगहों पर नाटक करते हैं। ये सभी रूम थिएटर के दायरे में आते हैं।
तो, बंद करें हम रंगकर्मी थिएटर के खर्चे का रोना और शुरू करें अवितोको रूम थिएटर! रंगमंच दिवस के अवसर पर यह संकल्प लेकर चलें तो निश्चय ही रंगकर्म के साथ-साथ कलाकारों और लेखकों को उनका स्पेस मिलेगा और सबसे बड़ा स्पेस मिलेगा हमारे दर्शकों को, क्योंकि हम उनके स्पेस में उनको दिखा रहे हैं अपना थिएटर, उनका थिएटर।