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“मैंने टीबी से लड़कर जाना कि मरीज़ों के खिलाफ भेदभाव खत्म करना होगा”

जब मैंने ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) के बारे में बात करनी शुरू की, तो कई सारी महिलाओं ने मुझसे संपर्क किया। वो खुलकर टीबी के खिलाफ अपने संघर्ष के बारे में बात करती – वो बताती कि उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर किया गया और अक्सर अपने ससुराल वालों से अपनी बीमारी को छुपाने के लिए कहा जाता। उन्हें रात में घर के सभी लोगों के सो जाने के बाद अपनी सारी दवाइयां लेनी पड़ती थी। कुछ ऐसी दर्दनाक कहानियां भी थी, जहां महिलाओं से उनके पति तलाक लेना चाहते थे, या उन्हें घर से निकाल दिया जाता, उन्हें अपने बच्चों से दूर रखा जाता था। सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें टीबी है या पहले कभी इस बीमारी की मरीज़ रह चुकी हैं।

जैसे-जैसे मैंने टीबी के साथ अपनी लड़ाई के बारे में अधिक बात करनी शुरु की तो मुझे पता चला कि पुरुषों को भी इसके भेदभाव से बख्शा नहीं गया है। कुछ मरीज़ों को अपनी नौकरी खोनी पड़ी, तो कुछ पुरुषों को अपनी बीमारी की बात छुपाकर रखनी पड़ती थी क्योंकि उन्हें डर था कि इसके बारे में पता चलने पर कुछ बुरा ना हो जाए। महिलाओं को अपने परिवार और समाज में स्वीकार ना किये जाने का डर होता है, तो पुरुषों को भी अपने परिवार और समाज में भेदभाव का शिकार बनना पड़ता है। बस, वो इसके बारे में किसी को बता नहीं पाते हैं।

भारत में जब भी किसी महिला या पुरुष को टीबी की बीमारी होती है, तो उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है। इसके बाद शुरु होता है एक अजीब सा अकेलापन, जहां उन्हें अपनी बीमारी के कारण चुप रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। महिलाओं से तो लोग काफी उटपटांग से सवाल करते हैं। जैसे कि शादी कैसे होगी या फिर माँ बन सकेगी या नहीं। यह दुर्भाग्य की बात है कि टीबी से जुड़े इस भेदभाव के पहलू को काफी कम स्वीकार किया जाता है और ना ही समझा जाता है।

अब ज़रा सोचिये कि उन लाखों लोगों के साथ क्या होता होगा जो हर साल टीबी के शिकार बनते हैं? भारत में दुनिया भर के सबसे अधिक टीबी मरीज़ हैं और यहां हर मिनट एक भारतीय टीबी के कारण मरता है फिर भी हम उनके साथ भेदभाव जारी रखते हैं। हवा से फैलने वाली एक बीमारी से संक्रमित हो जाने पर उनकी क्या गलती है? शायद इसके लिए हमारे समाज की अधूरी जानकारी ज़िम्मेदार है। भारत में टीबी मरीजों के साथ ऑफिसों व स्कूलों में भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार, उनकी अनदेखी और उन्हें बेसहारा छोड़ दिया जाना एक वास्तविकता बन चुकी है। लोग यह सब देखते हैं और चुप रहते हैं।

अगर आप एक बीमारी के बारे में बात नहीं करेंगे या फिर यह स्वीकार नहीं करेंगे कि आपको यह बीमारी हुई है, तो फिर इसका इलाज कैसे करेंगे? आपको टीबी से ठीक होने के बारे में एक आम नज़रिया तैयार करना होगा, जो भेदभाव मिटाने और इसके सर्वाइवर्स की साहसी एवं प्रेरक कहानियां सामने लाने में मदद करेगा। हमारे डॉक्टरों और खासकर स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित करना होगा। आपको मरीज़ के परिवारों और समाज को जागरूक बनाने की ज़रूरत है, ताकि उनका रवैया बदले और वो टीबी प्रभावित लोगों के प्रति संवेदनशील बनें।

मेरी सर्जरी के बाद मेरे माता-पिता को कई सवालों को सामना करना पड़ा, जैसे “इसकी सर्जरी हुई है, अब इससे शादी कौन करेगा?” ऐसे सवालों से आपको यह लगने लगता है कि एक महिला की ज़िंदगी का एकमात्र मकसद शादी करना और बच्चे पैदा करना है। हम यह भूल जाते हैं कि टीबी के शिकार हुए लोगों को हम जो मानसिक तनाव दे रहे हैं, वो टीबी के कारण होने वाली शारीरिक तकलीफ से कहीं ज़्यादा है।

इसके अलावा, टीबी से जुड़े भेदभाव के चलते अक्सर मरीज़ों द्वारा इलाज पूरा करने की कोशिशें कमज़ोर पड़ जाती हैं। उन्हें समाज में अपनी इज्ज़त खोने का डर होता है। शादी ना होने या शादीशुदा जीवन में मुश्किल आने की चिंता रहती है। इससे उन्हें काफी अधिक मानसिक तनाव होता है। मुझे हमेशा ऐसी कहानियां सुनने को मिलती हैं जहां इस भेदभाव के कारण टीबी मरीज़ अपना इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं।
तो इस मुद्दे को हल कौन करेगा? यह काम सरकार का है लेकिन मेडिकल कम्यूनिटी और हम सभी लोगों की भी थोड़ी ज़िम्मेदारी बनती है क्योंकि टीबी किसी भी व्यक्ति को हो सकता है।

भेदभाव इसलिए पैदा होता है क्योंकि समाज और हमारी व्यवस्था में सही जानकारी का अभाव है। हमारे बीच कई सारी गलतफहमियां हैं। सबसे आम कारण लोगों की यह सोच है कि टीबी मरीज़ों से दूसरे लोगों में बीमारी का संक्रमण होने का खतरा रहता है। एक अन्य आम धारणा यह भी है कि साफ-सफाई ना रखने से टीबी की बीमारी होती है और इसलिए यह आपकी गलती है। टीबी मरीज़ों के साथ इसलिए भी भेदभाव होता है क्योंकि इस बीमारी को एचआईवी, गरीबी, कुपोषण या फिर बदनामी से जोड़कर देखा जाता है।

हमें इन गलत धारणाओं को मिटाना होगा और टीबी से जुड़ी चुप्पी तोड़नी होगी। हमें बड़े अभियान चलाने की ज़रूरत है ताकि समाज को टीबी के बारे में शिक्षित और संवेदनशील बनाया जा सके। इसके साथ ही स्कूलों और कॉलेजों में वर्कशॉप एवं सेमिनार चलाने से भी टीबी के बारे में जागरूकता फैलाने में मदद मिलेगी। मरीज़ों के परिवार को भी टीबी के बारे में सही सलाह और जानकारी देने की ज़रूरत है।

टीबी का इलाज काफी मुश्किल है और एक टीबी मरीज़ को भेदभाव से भरी ज़िंदगी नहीं मिलनी चाहिए। उन्हें पूरी तरह से ठीक होने के लिए समाज में स्वीकार करने और अपने आसपास के लोगों की मदद चाहिए। इस भेदभाव के मुद्दे को हल किये बिना टीबी के खिलाफ हमारी लड़ाई अधूरी रहेगी और भारत से टीबी मिटाने का लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो सकेगा।

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