रंगों का त्यौहार ‘होली’ भारतीयों का एक मुख्य त्यौहार है। यह भारत के हर राज्य में बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है, जहां इसकी अलग-अलग मनोरम छटा देखने को मिलती है। होली लोगों के बीच आपसी भाईचारे का प्रतीक है, जिसके ज़रिये सभी धर्म के लोग एक रंग में रंग जाते हैं।
हिन्दू पंचांग के अनुसार यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है मगर इसकी शुरुआत वसंत पंचमी के फाग गीतों और गुलाल से हो जाती है। दो दिनों तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत होलिका-दहन से होती है। होलिका दहन वाले रोज़ लोग चौक-चौराहों पर लकड़ियां एकत्रित कर भक्त प्रह्लाद की याद में होलिका जलाते हैं और बुराई पर अच्छाई के विजय की कामना करते हैं।
दूसरे दिन लोग ढोल बजाकर गीत गाते हैं और एक-दूसरे को विभिन्न रंगों से रंगते हैं। लोकगीतों की मिठास के साथ मीठी गुजिया का भी आनंद उठाते हैं। पकवानों की आती खुशबु से मन मचल उठता है। मना जाता है इस रोज़ लोग पुरानी कटुता को भुलाकर प्रेम बांटते हैं। बरसाने की लठमार होली हर साल सैलानियों का मुख्य आकर्षण होती हैं।
बिहार में होली की छटा लोकगीतों में झलकती है
बिहार की बात करें तो यहां किसान खेतों में गेहूं की लहलहाती फसल की झूमती बालियों को देखकर झूम उठते हैं और उनकी यह खुशी होली के गीतों के रूप में बाहर निकलती हैं। अन्नदाता की खुशी के साथ ही बिहार में होली का त्यौहार शुरू हो जाता है।
भोजपुरी के पारंपरिक होली गीतों की विभिन्न विद्याएं हैं, जो फगुआ, धमार, पह्पट, झुमरा, जोगीरा, लटका और चटनी आदि नामों से जाने जाते हैं। सभी में भक्ति, श्रृंगार और देशभक्ति के पारंपरिक गीत गए जाते हैं।
पारंपरिक होली गीतों में भक्ति और श्रृंगार
भोजपुरी में पारंपरिक होली लोकगीत समूहों में गाने का रिवाज़ है। वसंत पंचमी के दिन से यह रस्म शुरू होने के बाद सवा महीने तक गाँवों में यह गुंजायमान रहती है। हर दिन किसी-ना-किसी ग्रामीण के घर या मोहल्ले में बारी-बारी से लोकगीतों का सामूहिक गान होता है, जिसकी शुरुआत भगवान शिव की इस सुमिरन ‘बाबा हरिहर नाथ सोनपुर में होली खेले’ से होती है।
कहीं जोगीरा का दांव चलता है तो कहीं महिलाएं अपने प्रेमी के आने की खुशी में गातीं हैं, “खेलब होरी हो खेलब होरी आज अइहें मोर बलमुआ। जब रे बलमुआ टीशनिया (स्टेशन) पर अईले हो अचरा से अंगना बहारे गोरी।”
इसी तरह लोग गीतों के ज़रिये एक-दूसरे को रिझाते हैं। बिहार के मगध इलाके में एक होलो मनाई जाती है लेकिन इसके रंग से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। मगध में इसे बुढ़वा होली के नाम से जाना जाता है। यह होली के अगले दिन मनाया जाता है।
मगध के गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, नवादा, शेखपुरा, नालंदा और जमुई इलाकों में इसका काफी प्रचालन है। धीरे-धीरे इसका स्वरुप व्यापक हो रहा है। यहां भी लोकगीतों की छटा में होली देखने को मिलती है।
आधुनिकता की भेंट चढ़ती होली
आधुनिकता के इस दौर ने होली के प्रारूप को ही बदल दिया है। प्राकृतिक रंगों की जगह अब रासायनिक रंग आ गए हैं। भांग-ठंडाई गुम हो गई है। अब लोग शराब के नशे में चूर होकर सड़कों पर अश्लील हरकत करते दिखते हैं। लोगों को यह समझना पड़ेगा कि होली अश्लील गीतों के ज़रिये यौन कुंठा मिटाने का त्यौहार नहीं है।
गाड़ियों की बेसुध दौड़ में होली के गीत और परंपरा गुम हो रही हैं। भोजपुरी गानों में अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ जाने से होली का उत्साह समाप्त हो गया है। आजकल लोग एक-दूसरे को रंगों की जगह नाले के कीचड़ से रंगना पसंद करते हैं।
जी हां, सड़कों पर बिखरा कीचड़ एक-दूसरे पर फेंकते हैं। बिहार के छपरा ज़िले की हालत और भी खराब है, जहां लोग शौचालयों की टंकी से गंदगी निकलकर एक-दूसरे पर डालते हैं। कुछ लोग आपसी रंज़िश मिटाने के लिए खून की होली तक खेल लेते हैं।
सड़कों का वातावरण बहुत खराब हो जाता है। होली का पारंपरिक चलन अब केवल बिहार के कुछ ग्रामीण इलाकों में ही जीवित है। शहरी परिवेश के बढ़ने से त्यौहार गुम हो रहे हैं और गुम हो रहा है बिहार का लोकगीत और उसमे बसी सादगी और आपसी प्रेम-भाव।