जब सत्ता के गलियारे में सवाल पहुंचने से पहले ही अपना दम तोड़ दे या फिर व्यापक संचार तंत्र में वह किसी अजनबी चेहरे की तरह अपनी गुमशुदा वजूद की तलाश करता नज़र आए, तब निरंकुशता के बादल जम्हूरियत के फलक पर स्वतः मंडराते हुए आवाम के लिए किसी तूफानी विभीषिका के सूचक बन जाते हैं।
इसकी गर्जन किसी भी प्रतिरोध की आवाज़ को अपने शोर में दबा कर खत्म कर सकती है। लोकतंत्र में सत्ता की जवाबदेही की गैर-मौजूदगी, लोकतंत्र के पतन और तानाशाही के उदय के लिए सबसे माकूल परिस्थितियों का सृजन करती हैं।
दुष्यंत ने लिखा है, “तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की यह एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।” पिछले कुछ वक्त से घटनाएं एक के बाद एक मुसलसल जिस ओर अपने कदम बढ़ा रही हैं या उनका संचालन हुकूमत द्वारा किया जा रहा है, उसके बाद शायद ही कोई शक की गुंज़ाइश किसी भी सचेत मन मे ज़रा भी शेष रह जाती है।
इसकी प्रतिध्वनि बार-बार अलग आवाज़ों में पृथक चेहरों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती हुई नज़र आती है। जब साक्षी महाराज ने यह कहा कि 2019 चुनाव आखरी चुनाव साबित होगा फिर कोई चुनाव निकट भविष्य में नहीं दोहराया जाएगा, तो यह कोई आकस्मिक अभिव्यक्ति नहीं थी, क्योंकि ऐसी बातें पहले भी सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्राध्यक्ष के मुख से निकल चुकी है कि उनकी पार्टी अगले पचास सालों तक मुल्क पर राज़ करेगी।
इन तमाम बातों से हमारे मुल्क के हुक्मरानों की नीयत, लोकतंत्र के लिए उनकी प्रतिबद्धता और संजीदगी की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। पहले तो किसी भी लोकतंत्र में वाशिंदों को “राज” शब्द पर ही घोर आपत्ति दर्ज़ करानी चाहिए और ऐसे किसी भी विचार का यथा शीघ्र प्रतिकार होना चाहिए।
संविधान जलाना शर्मनाक
राज शब्द की आवश्यकता लोकशाही में नहीं, दमनकारी राजतंत्र में होती है। हमने पिछले ही साल लोकतंत्र के मंदिर के चौखट पर हमारे अधिकारों का संविधान धू-धू कर जलते देखा था। दिलचस्प यह है कि जो निज़ाम हमे बार-बार अति राष्ट्रवाद की चक्की में पीस कर हमे वतन परस्ती की कसौटी पर तौलता रहता है, इस घटना के पश्चात उनके कानों पर जूं तक ना रेंगी।
हमारे बुनियादी अधिकारों की चिताएं जलाने वाले, अपराध के बनिस्पत महान गौरव की अनुभूति कर रहे थे। यहां स्वाभाविक प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि क्या संविधान जलाने वालों और हमारे हुक्मरानों के दरमियान कोई वैचारिक एकता अप्रत्यक्ष रूप से नेपथ्य में काम कर रही है।
न्यूज़ चैनलों में मुद्दों को दबाया जाता है
आज विरोध में उठती, अपना हक मांगती और सड़कों पर प्रतिरोध करती आवाज़ सत्ता के पूंजी द्वारा संचालित संचार तंत्र में प्रवेश करते ही बन जाती है राष्ट्रविरोधी और सत्ता बन जाती है राष्ट्र का पर्याय। हर तर्क को रात के टीवी डिबेट में एंकर के शोर के बल पर मिटाया जाता है।
कभी-कभी टीवी स्टूडियो सैन्य छावनियों में तब्दील हो जाती है और एंकर मध्यस्थ की अपनी भूमिका को बिसरा कर मिलिट्री वर्दी में वतन के अंदर के दुश्मन की तलाश में, युद्ध का बिगुल फूंक कर सारे देश को युद्धोन्माद में ढकेलते नज़र आते हैं।
जब युद्धोन्माद से उतपन्न परिस्थितियां अपना व्यापक असर जनता के मनोदशा को बदलने में कारगर नहीं हो पाती तो स्टूडियो में धर्म की चौपाल लगाई जाती है। जिसमें एक तथाकथित विचारक, एक पंडित और एक मौलवी फिरकापरस्ती में बराबर के भागीदार बनकर घंटों मज़हब की चिंगारी सुलगा कर मुल्क में अलगाव और टकराव की स्थितियां पैदा करते हैं।
दंगो के संचालन का भार अब कट्टरपंथी संगठनों की जगह टीवी स्टूडियो अपने कंधों पर लेता जा रहा है। गौर करने की बात यह है कि इन गैर-ज़रूरी बहसों में जनता के बुनियादी मुद्दे अपनी जगह नहीं बना पाते हैं। शिक्षा, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, गैर-बराबरी, सामाजिक न्याय और कृषि समस्या जैसे मौलिक प्रश्न संचार के बाज़ार में नहीं बिक पाते हैं।
कोशिश चार वर्षों से नफरत, साम्प्रदायिकता, अतिवाद और छद्म राष्ट्रवाद को संचार के मंडी में बेचने के लिए अंधे उपभोक्ता की व्यापक फौज तैयार करने की है। जिसके फलस्वरूप हमने पिछले साल कठुआ में 8 साल की बच्ची के बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकाल कर अपनी खोखली राष्ट्रवाद का भद्दा प्रदर्शन करते देखा था।
टीवी से संचालित बहुसंख्यक राष्ट्रवाद 15 साल के बच्चे जुनैद की हत्या का कारण बना। यही मानसिकता अखलाक के हत्यारों को तिरंगे में लपेट कर श्रद्धांजलि अर्पण करती है। हद तो तब हो गई जब केंद्रीय मंत्री द्वारा हत्या के आरोपी तथाकथित गौ-रक्षकों को माल्यार्पण किया गया।
गैर-ज़रूरी मुद्दे शीर्ष पर होते हैं
यही वो राष्ट्रवादी लिबास है, जिसका निर्माण अपने अंधे उपभोक्ताओं को उसके पीछे छुपे नफरत को बेचने के लिए हर रात टीवी स्टूडियो में किया जाता है। इन वाहियात मुद्दों के पीछे जो पूंजी लगी है, उसका बहुआयामी उद्देश्य होता है।
उसका एक पहलू जनता में पनप रहे असंतोष को पर्दे से गायब करना भी होता है। किस तरह बेरोज़गारी पर NSSO की लीक हुई रिपोर्ट के अनुसार 45 सालों का बेरोज़गारी आंकड़ा राष्ट्रवादी मीडिया से विलुप्त हो जाता है। वहीं, बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रम अपने कर्मचारियों को पहली दफा वेतन वक्त पर देने में असमर्थ नज़र आते हैं।
सभी सार्वजनिक संस्थानों की आर्थिक लाचारी उनके निजीकरण करने के बहाने देकर सरकार की विफलता को ढकने का आवरण प्रदान करते हैं। हमने देखा है कि किस तरह सरकार की फिसड्डी अर्थनीति ने देश के मध्यम और लघु उद्योगों की कमर तोड़ कर रख दी मगर उन उद्योगों की आर्थिक दुर्दशा की ओर राष्ट्रवादी कैमरा कैसे मुड़ सकता है, जब उसके सामने अयोध्या हो।
जब हमारा पूंजीवादी संचार तंत्र हमारे लिए ऐसी परिस्थितियां बुन रहा है, जहां वतन परस्ती की तस्दीक अपने मौलिक अधिकारों की हत्या करने, बुनियादी प्रश्नों को अप्रासंगिक करने और सत्ता की जवाबदेही खत्म करने से होगी, तब लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ ही इसकी जड़ें खोदता हुआ उसके पतन का हथियार बन जाता है।