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“क्या कन्हैया कुमार देश की वामपंथी राजनीति को नई दिशा दे पाएंगे?”

कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार

‘वामपंथ’ शब्द सुनाई देते ही लोगों के दिमाग में अलग-अलग ख्याल आते हैं। जो लोग थोड़ा भी वामपंथ के बारे में जानते हैं, यह नाम सुनते ही उनके ज़हन में लाल झंडे, क्रांति, रैलियां, संघर्ष, कॉमरेड और लाल सलाम जैसे शब्द अपने आप आते हैं।

जिन लोगों ने वामपंथ के बारे सिर्फ व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के ज़रिये जानकारी हासिल की है, उनके लिए वामपंथी एक तरह से गाली है। उनके अनुसार वामपंथी वह होता है, जो नक्सली हिंसा को समर्थन करता है, जिसे चीन से पैसा आता है, जो देश विरोधी है और वो सफेद दाढ़ी के साथ घुंगराले बालों वाला एक बुढ़ा व्यक्ति होता है, जिसने कुर्ता-पयजामा पहना है और कंधे पर एक झोला लटकाया हुआ है।

क्या कन्हैया कुमार को वामपंथ के लिए संजीवनी माना जाए?

साल 2015 में जब मैं अपनी ग्रेजुएशन के आखिरी साल में था, तब मेरे कॉलेज में कोई वामपंथ विचारधारा को जानता तक नहीं था। देश में छात्रों के लिए दो ही पार्टियां थी। एक- काँग्रेस और दूसरी बीजेपी।

कन्हैया उनकी स्टूडेंट विंग के सदस्य इसलिए थे क्योंकि उनके परिवार दोनों पार्टियों में से किसी एक पार्टी के नेता हुआ करते थे। उन्हें विचारों और सिद्धांतों से कोई मतलब नहीं था। वामपंथ सिर्फ ABVP की बैठकों में गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द था।

बस पर 2016 में जेएनयू में कन्हैया कुमार के साथ जो हुआ, उसने लोगों को खास कर छात्र वर्ग को वामपंथ के बारे में जानने के लिए मजबूर कर दिया। वे उस दौर में यह चीज़ें पढ़ने और समझने लगे, जब देश में फासीवाद हावी है। तब छात्र अन्याय और शोषण के खिलाफ खड़े होने लगे।

कन्हैया कुमार। फोटो साभार: Getty Images

कन्हैया कुमार की जो छवि मीडिया ने बनाने की कोशिश की, वह धूल गई और बड़ी संख्या में युवा तबका उससे जुड़ने लगा। अभी हाल ही में कन्हैया कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस को मीडिया ने जिस तरह का कवरेज दिया, क्या आपको याद है आखिरी बार किस वामपंथी नेता को इस तरह का कवरेज मिला?

मेरी छोटी राजनितिक समझ के हिसाब से जब यूपीए प्रथम से वामपंथी पार्टियों ने 2008 में अपना समर्थन वापस ले लिया था। तब इन्हें इस तरह की कवरेज मिली थी। उसके बाद यह पहली बार हुआ है कि किसी वामपंथी नेता को इस तरह से कवरेज मिली हो और उस नेता के लोकसभा क्षेत्र को मीडिया ने हॉट सीट घोषित किया हो।

कन्हैया कुमार इस लोकप्रियता को जीत में बदल पाते है या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है क्योंकि बिहार में तेजस्वी यादव कभी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके कद का युवा नेता बिहार की राजनीति से उभरे और कहीं ना कहीं यही कारण रहा महागठबंधन की तरफ से कन्हैया को उम्मीदवार नहीं बनाया गया। तेजस्वी को डर है कन्हैया की लोकप्रियता से और यही डर उन्हें कन्हैया को हराने के लिए मजबूर करेगा।

क्या वामपंथ का पतन हो गया है?

कुछ वक़्त पहले की बात है ABVP के कुछ बड़े नेताओं के साथ बैठा था तो उनमें से एक ने कहा की फला प्रोफेसर तो वामपंथी है इस पर उसके सीनियर ने कहा की वामपंथी होना कोई बुरी बात नहीं है तुम इसे एक गाली के तौर पर क्यों कह रहे हो हर वो शख्स वामपंथी है जो अपने हक़ के लिए शोषण के विरुद्ध संघर्ष करता है।

जब भी किसी मज़दूर या किसान के साथ अन्याय होता है, तब वह वामपंथी बन जाता है। हर वह महिला जिनका शोषण होता है, वह वामपंथी बन सड़क से अदालत तक अपने न्याय के लिए लड़ती हैं।

हर वह युवा तब वामपंथी बन जाता है, जब उसको उसकी योग्यता के अनुरूप रोज़गार नहीं मिलता है। हर आदिवासी तब वामपंथी बन जाता है तब उसके जंगल उससे छिन कर बड़े-बड़े उद्योगपतियों को दे दिए जाते हैं। हर दलित तब वामपंथी बन जाता है, जब उसके साथ अन्याय, छुआछुत और शोषण होता है।

यानि कि वामपंथ एक विचार है, जिसका पतन संभव नहीं है। यह हर शोषण, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होगा और कदम से कदम मिलाते हुए सत्ता के सर पर चढ़ कर नाचेगा।

वामपंथी वोट क्यों नहीं बटोर पाते हैं?

इस देश की राजनीति हमेशा से चेहरे के दम पर चलती आ रही है। देश की अधिकांश राजनैतिक पार्टियां कुछ परिवारों की बपौती है, तो उन पार्टियों को उन परिवारों के चेहरों और उनके उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट मिल जाते हैं मगर देश में दो कैडर बेस पार्टियां हैं यानि जिनका निर्णय कार्यकर्ता लेता है। एक बीजेपी और दूसरी वामपंथी पार्टियां मगर वामपंथी पार्टियां अपने नेताओं के चेहरों की ब्रांडिंग करने में कभी सफल नहीं रही हैं। वहीं, दूसरी और बीजेपी के पास हमेशा से बड़े चेहरे रहे हैं, जिनके दम पर वह चुनाव लड़ती है।

2014 के चुनावों में जब बीजेपी या अन्य पार्टियां चुनाव प्रचार के नए-नए तरीके अपना रही थी,  मोदी जी 3डी सभाएं कर रहे थे और सोशल मीडिया का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा था, तब इस देश का वामपंथी पूंजीवाद से लड़ने की बाते कहते हुए सिद्धांतों की ढपली बजाकर दीवारों पर अपनी पार्टी के निशान के फर्मो से कलर कर रहे थे और पार्टी का निशान उकेर रहे थे। फिर आलम यह हुआ कि पूंजी के सामने सबकुछ नतमस्तक हो गया।

कन्हैया कुमार। फोटो साभार: Getty Images

वामपंथी पार्टियों के कमज़ोर होने का बड़ा कारण यह भी है कि वे चुनावों में पैसे खर्च नहीं करती हैं। यह इस देश की विसंगति ही कहिए कि लोग एक पव्वे या एक किलो गोश्त के लिए अपना ईमान ताक पर रख देते हैं और देश की लगभग सभी पार्टियां चुनावों में अपार पैसे खर्च करती है मगर वामपंथी पार्टियां सिर्फ विचारों के दम पर चुनाव जीतना चाहती है। उन विचारों को भी इतना क्लिष्ट बना दिया गया है कि एक आम इंसान उन्हें समझ ही नहीं सके। अब आपको वोट देने के लिए कोई मार्क्स या लेनिन को पढ़ने तो नहीं बैठेगा ना! वह तो उसी को वोट दे आएगा जो इसे प्रत्यक्ष रूप से फायदा पंहुचा रहा है।

कन्हैया कुमार के आने के बाद वामपंथी राजनीति को देश में एक नई दिशा मिली है। उन्होंने वामपंथ को सरल शब्दों में लोगों के सामने रखा है। उनके नारे ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ ने दलितों और शोषितों को साथ लाकर खड़ा किया है।

इन सबके बीच मीडिया ने उनकी ब्रांडिंग तो कर ही दी। वह वामपंथी राजनीति के पुराने नेताओं से अलग सोच रखते हुए वाम एकता की बात करते हैं। अब देखना यह है कि कन्हैया कुमार के सहारे इस देश की वाम राजनीति अपनी नैया को कितनी दूर तक ले जाती है। अब ऐसा लगता है कि आने वाले भविष्य में वामपंथ की सारी राजनीति कन्हैया के इर्द गिर्द ही घूमेगी और अगर वामपंथ लोगो के ज़हन में फिर से एक राजनितिक शक्ति के रूप में उभरा, तो इसका श्रेय भी कन्हैया को ही जाएगा।

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