पिछले दिनों जब मैं फेसबुक पर ‘औघड़’ की समीक्षा पढ़ रहा था, तब किसी ने लेखक के बारे में लिखा था, “आपको जब UPSC नहीं बांध पाया, तो बाज़ार क्या खाक बांध पाएगा।” इसके साथ ही मेरी उत्सुकता किताब के प्रति बढ़ती गयी। जैसे ही किताब मेरे हाथ आई तो दूसरी दुविधा मेरे साथ उत्पन्न हुई, क्योंकि अगले दिन मेरी परीक्षा थी। फिर भी किसी तरह खुद को समझाया और पहले परीक्षा दिया और उसके पश्चात ‘औघड़’ पढ़ना शुरू किया।
ग्राम्य जीवन को जीता है ‘औघड़’
औघड़ की पूरी कहानी मलखानपुर और सिकंदरपुर गांव के इर्दगिर्द घूमती नज़र आती है, जिसका मुख्य पात्र बिरंची कुमार उर्फ बिरंचिया है। बिरंचिया इतिहास में मास्टर करने के बावजूद भी बेरोज़गार है, जिसका आलम यह है कि वह दिनभर आवारागर्दी और लफंगई करते रहता है।
गांव मे जिस तरह से जातिय भेदभाव देखने को मिलता है, उसे लेखक ने बखूबी अंजाम दिया है, जिसमें लेखक जाति की जड़ को तलाशते हुए कहता है कि हिंदुस्तान में ऊंची जाति के बारे में पता करना तो आसान है लेकिन नीची जाति की खोज आज भी जारी है।
यहां हर एक जाति के नीचे एक छोटी जाति बसती है, जैसे यादव के नीचे बनिया, बनिया के नीचे चमार आता है। क्षत्रिय के लिए तो दोनों नीच जाति के हैं और सबसे ऊपर आती है ब्राह्मण की बारी।
आज भी जिस तरह गांव में सामंती व्यवस्था हावी है, उसे लेखक ने बहुत ही निर्ममतापूर्वक चिन्हित किया है, चाहे राजपूत के बारे में लिखना हो या भूमिहार के बारे में, ब्राह्मण के बारे में लिखना हो या यादव के बारे में, बनिया के बारे में लिखना हो या चमार के बारे में।
गांव में तकनीक और मोबाइल की पहुंच
पिछले एक दशक में गांव, घर और छोटे-छोटे मौहल्ले में जिस तरह से मोबाइल ने अपना अधिपत्य स्थापित किया है उसे लेखक ने समझाने की भरपूर कोशिश की है। मोबाइल किस तरह से लोगों की निजी ज़िन्दगी का एक भाग बन गया किसी को कुछ पता ही नहीं चला। चाहे औरत हो या बच्चे, जवान हो या बूढ़े लोग, अमीर और गरीब के बीच की खाई को मिटाने में मोबाइल का एक अहम योगदान है। इस समय में तकनीक ही एक ऐसी चीज़ है, जिसने कि सामन्तवादी व्यवस्था को बड़ी ही आसानी के साथ पटखनी दी है।
प्रशासन के क्रियाकलापों का उल्लेख
लेखक ने प्रशासन के क्रियाकलापों का बहुत ही निर्ममतापूर्वक उजागर किया है। वर्तमान समय में प्रशासन ज़मींदारों के घर का कुत्ता बनकर अपना कार्य करता है, उसे लेखक ने बहुत ही आसान तरीके से समझाने का कोशिश की है। वर्तमान समय में प्रशासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती भ्रष्टाचार और घूसखोरी से बचना है परन्तु प्रशासन ऐसा कर नहीं पाती है। उसे लेखक ने दरोगा और DSP के ज़रिए समझाने की कोशिश की है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हमला
जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बोला जाता है परंतु वर्तमान परिदृश्य में वह भी कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिज्ञों के हाथ का टट्टु बनकर रह गया है। मीडिया अब जनता के संदेशवाहक नहीं बल्कि राजनीति लोगों के लिए प्रचार सुविधा की तरह काम करती है। उसे भी लेखक ने समझाने का भरपूर प्रयास किया है। अगर हम साधारण भाषा में बोले तो लेखक ने मीडिया पर ज़बरदस्त हमला बोला है लेकिन अगर मीडिया इन बातों को समझ जाए तो वह वास्तव में लोकतंत्र का चौथा खम्भा बन सकता है।
सामंतवादी मानसिकता को चुनौती देता ‘औघड़’
लेखक ने औघड़ के ज़रिए सामंतवादी मानसिकता को पूरी तरह से चुनौती देने का प्रयास किया है। पंचायत चुनाव में फुंकन सिंह के खिलाफ पबित्तर दास का उम्मीदवार बनना इसी कड़ी का एक जंजीर साबित हुआ है। सबसे ज़्यादा हृदय विदारक बात है कि पबित्तर भी खुद को सामंत बनने के चक्कर में या अन्य भाषा में कहें तो राजनीतिज्ञ बनने के चक्कर में वह खुद से ज़्यादा दलित समाज के भरोसा को तोड़ता है, जिसे बिरंचिया ने अपने खून पसीने से सींचा था और बिरंचिया के खून से ही वह राजनीति का पहला ककहरा पढ़ा।
अन्ततः मैं यही कहना चाहूंगा कि ‘औघड़’ मात्र मलखानपुर गांव की कहानी नहीं बल्कि हिंदुस्तान के हर एक गांव की कहानी है, जहां सिस्टम से लड़ने के लिए कितनी बार बिरंचिया जन्म लेता है और कितनी बार मरता है। हर बार वह सामन्त से नहीं बल्कि सामंतवादी मानसिकता से हारता है। हर बार उसे फुंकन सिंह जैसे गुंडे नहीं बल्कि पबित्तर दास जैसे मित्र ही मारते हैं।
लेखक की सबसे बड़ी पूंजी इस पुस्तक में यही है कि वह पाठक को पूरी तरह से बांधे रहता है।