पूरे विश्व में महिला प्रतिभा और संभावनाओं का सबसे बड़ा भंडार है, जिसे एक नहीं अनेक अवसरों पर आधी आबादी ने अपने संघर्षों के श्वेत-रक्त से सींचा भी है, परंतु इसका उपयोग विश्वभर की मानवता ने अपने हित में अब तक नहीं किया है।
पूरी दुनिया की तुलना में भारत में भी यह स्थिति संतोषजनक तो नहीं लेकिन निराशाजनक ज़रूर है, क्योंकि आज़ादी के बाद कमोबेश 75 सालों के लोकतंत्र ने हालिया लोकसभा में मात्र 11.4 फीसदी महिलाओं पर ही भरोसा किया है, जो अब तक के लोकसभा में सबसे बेहतर प्रदर्शन है।
राहुल गाँधी का अनोखा वादा
महिलाओं के सम्मान के लिए चुनावी मैदान में “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे फिज़ाओं में हमेशा सुनने को मिलते हैं। 13 मार्च को तमिलनाडु के चेन्नई में एक सभा को संबोधित करते हुए राहुल गाँधी ने कहा कि अगर काँग्रेस सत्ता में आती है तो वह महिला आरक्षण विधेयक पारित करेगी।
उन्होंने संसद और विधानसभाओं के अलावा सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही। खैर, यह बात अलग है कि महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पास होने के बाद भी अधर में अटका हुआ है। वैसे, 33 प्रतिशत आरक्षण विधेयक लोकसभा में पास कराने का वायदा मौजूदा सरकार ने भी किया था, जो अब तक चुनावी जुमला ही सिद्ध हुआ है।
महिला प्रतिनिधित्व के सवालों पर चुप्पी
जब राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के सवाल पूछे जाते हैं, तो जिताऊ महिला उम्मीदवारों की कमी या पावर शेयरिंग में राजनीतिक दलों की झिझक आधी आबादी के महत्काक्षांओं पर पानी फेर देता है।
कमोबेश हर राजनीतिक दल महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए हर दांव खेलने की कोशिश करते हैं परंतु महिला उम्मीदवारों को प्रतिनिधित्व देने के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं।
मॉडल साबित होगा ओडिशा और बंगाल
इस यथास्थिति में ओडिशा में बीजू जनतादल के अध्यक्ष नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी का लोकसभा चुनाओं में महिला उम्मीदवरों को 33 फीसदी आरक्षण के तहत टिकट देना निराशाओं की ज़मीन पर कुछ उम्मीद तो जगाती है।
देश की क्षेत्रीय राजनीति में दो राजनीतिक दलों में महिलाओं को आगे लाने के लिए जो पहल की गई है, वह बताती है कि संविधान में संशोधन से पहले दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।
कमोबेश हर राजनीतिक दलों का यह मानना है कि चुनाव में विनेबिलिटी फैक्टर को ध्यान में रखकर टिकट दिया जाता है, जो कि महिला वोट बैंक के रूप में महत्वपूर्ण है। अब तक के चुनावों में महिलाओं के मतदान का कोई सेट पैटर्न नहीं रहा है।
महिला वोटरों में संशय
कई जगहों पर जाति के संगठित वोटों में उनका मतदान रूझान दिखता है, तो कई जगहों पर परंपरागत तरीके जिसमें घर-परिवार के प्रमुख सदस्यों का फैसला हावी रहता है। अगर महिला उम्मीदवार चुनावी प्रत्याशी होंगी, तो महिलाएं उनको ही वोट करेंगी, इस तरह का भी कोई सेट ट्रेंड नहीं दिखता है।
महिलाओं को विधायिका में आरक्षण की बात सबसे पहले 1975 में “टुवडर्स इक्वैलिटी” नाम की रिपोर्ट में आई थी। हालांकि तब महिलाओं ने कहा था कि वे आरक्षण के रास्ते नहीं, बल्कि अपने दम-खम पर राजनीति में आना चाहती हैं।
दो क्षेत्रीय दलों तृणमूल काँग्रेस और बीजद ने जो इच्छाशक्ति दिखाई है, जद(यू) ने अपनी इच्छाशक्ति के दम पर यह पहल पंचायत चुनावों में करके दिखाया भी है।
अन्य दलों को भी विचार करने की ज़रूरत
इस तरह की तमाम मज़बूत इच्छाशक्ति के लिए जिस तरह से क्षेत्रीय दल अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दे रहे हैं, उसने यह रास्ता तो सुझाया है कि जब तक लोकसभा में महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन पर कोई सर्वानुमति नहीं बनती, तब तक राजनीतिक दल खुद पहल कर सकते हैं। अर्थात कानून के बिना भी महिला आरक्षण का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
2014 लोकसभा चुनाव में महिला वोटर्स की संख्या 47 फीसदी के आस-पास थी जो अब बढ़कर 48.13 फीसदी हो गई है। महिलाएं अब मताधिकार के प्रयोग में रिकार्ड दर्ज़ करने लगी हैं।
17वीं लोकसभा चुनाव में महिला वोटर्स का बढ़ता प्रतिशत महिला उम्मीदवारों के पक्ष में कितना सहयोगी होगा, यह तो यक्ष प्रश्न सरीखे है। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि महिला उम्मीदवारों पर दो क्षेत्रीय दलों के भरोसे का असर अन्य दलों पर भी पड़ेगा।