मोदी सरकार द्वारा लोकसभा चुनावों से ठीक पहले राष्ट्रवाद का सहारा लेना उनकी असफलताओं की पोल खोलता दिखाई पड़ रहा है। इन दिनों लगभग हर चुनावी रैलियों में मोदी जी रोज़गार, शिक्षा और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रवाद के नाम पर सियासत कर रहे हैं।
इसके पीछे की मानसिकता यह है कि राष्ट्रवाद की चर्चाओं के बीच लोगों का ध्यान ज़रूरी मुद्दों से हट सके। बीते 2014 के लोकसभा चुनावों में जिन वादों के सहारे नरेन्द्र मोदी सत्ता में काबिज़ हुए, उन वादों में से कोई भी एक वादा इन्होंने पूरा नही किया है।
चाहे वह युवाओं को रोज़गार देने का मामला हो या कालाधन लाने का मामला, किसानों को उचित अधिकार देने की बात हो या सबसे बड़ा जुमला कि सभी के बैंक खाते में 15 लाख रुपये आएंगे, इन सभी वादों के ज़रिये मोदी सरकार ने आम जनता को गुमराह करने का काम किया है।
जनता पूरी तरह मोदी सरकार के झांसे में आकर उन्हें सत्ता पर काबिज़ करा दिया लेकिन कुर्सी मिलने के बाद जिस तरीके से देश के आम लोगों को अलग-अलग मसलों के ज़रिये ध्यान बांटना शुरू किया, वह बेहद शर्मनाक है।
आलम यह हुआ कि देश के अलग-अलग इलाकों से किसानों को अपनी मांगें लेकर दिल्ली आना पड़ा, युवाओं ने रोज़गार के लिए सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और अल्पसंख्यकों के बीच डर का माहल पैदा किया गया जिससे उनके ज़हन में भी मोदी सरकार के खिलाफ नाराज़गी का उबाल काफी बढ़ गया।
सरकार अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए लगातार राष्ट्रवाद का सहारा ले रही है। अभी पुलवामा में जो हमारे जवानों के ऊपर हमला हुआ, वह भी कहीं ना कहीं सरकार की नाकामियों को उजागर करता है।
जब हमारे देश के जवान पुलवामा हमले का बदला लेते हैं, तो सरकार अपने जवानों की मेहनत को ऐसा बताती है जैसे सबकुछ उसी ने किया हो।
ऐसा प्रतीत होता है कि एयर स्ट्राइक का श्रेय सिर्फ मोदी जी और अमित शाह को जाता है। अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा लीजिए कि तमाम ज़रूरी मुद्दों के बीच किस प्रकार से पुलवामा आतंकी हमले के बाद से देश में राष्ट्रवाद का एक माहौल बनाया गया।
जनता को एकजुट होकर अब सरकार से 2014 के वादों पर सवाल पूछना शुरू करना होगा। अब वह वक्त आ चुका है कि जुमलेबाज़ों को सत्ता से हटाकर विकास के आधार पर वोट मांगने वाली सरकार को मौका दिया जाए।