दुनिया के सबसे बड़े फिल्म पुरस्कार में भारतीय सिनेमा में भानु अथैया और सत्यजीत रे को ऑस्कर सम्मान मिलने के बाद जो दो भारतीय फिल्में ऑस्कर सम्मान पाने में सफल रहीं, वह “स्लम डॉग मिलियेनियर” और डॉक्यूमेंट्री फिल्म “पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस” हैं।
“स्लम डॉग मिलियेनियर” को यह सम्मान बेस्ट ओरिजिनल लिरिक्स के लिए मिला जबकि इस साल डॉक्यूमेंट्री फिल्म “पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस” को बेस्ट शार्ट डॉक्यूमेंट्री के लिए मिला।
ऑस्कर सम्मान पाना देश के लिए गर्व की बात है मगर ध्यान से देखें तो “स्लम डॉग मिलियेनियर” और “पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस” हमारे देश की राजनीतिक और सामाजिक-सास्कृतिक विफलता की कहानी है, जो रूपहले पर्दे पर सतरंगी रगों के ज़रिये बयां हो रही हैं।
वह राजनीतिक और सामाजिक-सास्कृतिक विफलताएं जिससे पार पाने की कोशिशों में आज़ादी के बाद से कई पीढ़ियां खप गईं। भारतीय समाज में सामाजिक, सास्कृतिक और राजनीतिक कारणों से जो मानवीय समस्याएं मौजूद हैं, उनका अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान होना हैरान तो करता ही है।
आखिर क्यों किसी समाज के गुरबत का फिल्मांकन ही सम्मानित हो रही है? क्या गुरबत से उपजी मानवीय संवेदनाएं समाज को अधिक झकझोर रही हैं?
गरीबी दिखाकर ऑस्कर लेने पर मिलती हैं तालियां
“स्लम डॉग मिलियेनियर” ने भारत की गरीबी और झुग्गी-बस्तियों का जीवन रूपहले पर्दे पर दिखाकर ऑस्कर अपने नाम कर लिया। उस फिल्म के ठीक दस साल बाद ईरानी निर्देशक राईका जेहताबची और निर्माता गुमीत मोंगा ने पीरियड्स पर डाक्यूमेंट्री बनाकर पेश किया, जिसे ऑस्कर का सम्मान दिया गया है। यह राष्ट्रीय शर्म नहीं तो और क्या?
“राष्ट्रीय शर्म” इसलिए क्योंकि महिलाओं की महावारी की समस्या के समाधान के रास्ते में एक नहीं बल्कि कई बाधाएं हैं। इस संदर्भ में जो समाधान उपलब्ध भी हैं, उनहें सरकारें टैक्स के दायरे से बाहर भी नहीं ला पा रही हैं।
यहां तक कि सैनिटरी पैड्स में जीएसटी के बोझ पड़ने पर चेतनाशील महिला संगठनों को कानूनी लड़ाई का सहारा लेना पड़ गया। “लहू का लगान” जैसे आंदोलनों का सहारा लेना पड़ा। राष्ट्रीय शर्म इसलिए भी क्योंकि इससे जुड़े सांस्कृतिक मूल्य इतने गहरे हैं कि महावारी के दौरान लड़की की मौत समाज को मंजूर है मगर घर में प्रवेश तक वर्जित है।
चंद साल पहले संविधान गठित करने वाला देश नेपाल महावारी के दौरान महिलाओं से भेदभाव करने पर कठोर सज़ा का प्रावधान कर चुका है और आज़ादी के कितने बसंत देख चुका देश आज भी मानसिक गुलामी से आज़ाद नहीं हो सका है।
फिल्मों से इतर वास्तविकता पर काम करने की ज़रूरत
किसी देश को सम्मान दिए जाने पर फक्र महसूस किया जाता है मगर इस साल के ऑस्कर पर कोई फक्र नहीं महसूस कर रहा है। अखबारों, सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया में भी “जय हो” जैसी धुन नहीं बज रही है क्योंकि महावारी के जिस विषय पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए भारत को सम्मान मिला है, वह भारतीय समाज के लिए शर्म की बात है।
इस समस्या पर सिर्फ फिल्में बन रही हैं, टीवी पर हर एक ब्रेक पर चौबीस घंटे सैनिटरी नैपकीन पर प्रचार आ रहा है लेकिन महिलाओं की इस समस्या को लेकर जो स्थिति कल थी, वही आज भी है। इस समस्या को लेकर ज़मीनी स्तर पर भारत एक हारा हुआ देश है और इस हार पर हम आज तक शर्मिदा नहीं है।