सिर्फ महिला दिवस पर ही नहीं, भंवरी देवी को हर दिन याद रखने की ज़रूरत है। आज अगर महिलाएं सुरक्षित वर्क प्लेस को लेकर जागरूक हैं तो उसका श्रेय भंवरी देवी को जाता है। पितृसत्ता की बारिश में नारीवाद की धूप हैं भंवरी देवी।
भंवरी देवी कुम्हार जाति से आती हैं। राजस्थान के भटेरी गांव में राजस्थान सरकार की तरफ से ग्रासरूट वर्कर के रूप में काम करती थीं, उस गांव में गुर्जरों का बोल बाला था, जो जाति में ऊंचे माने जाते थे।
1992 में भंवरी देवी ने गांव में हो रहे बाल विवाह के खिलाफ मुहिम छेड़ी। इससे गांव के गुर्जरों में उनके खिलाफ नाराज़गी बढ़ी। एक शाम जब भंवरी देवी और उनके पति काम कर रहे थे, तभी गुर्जर समाज के पांच लोगों ने भंवरी देवी का बलात्कार किया और उनके पति को पीटकर बेहोश कर दिया। पितृसत्तात्मक समाज अपना रंग दिखा चुका था। जब कोई महिला इस समाज को चुनौती देती है, तब वह रेप को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है।
पुलिस ने बाकी रेप पीड़ितों की तरह भंवरी देवी की रिपोर्ट भी आसानी से दर्ज नहीं की। उन्हें अपना लहंगा सबूत के रूप में छोड़कर जाने के लिए कहा गया। भंवरी देवी अपना लहंगा छोड़कर और अपने पति का साफा (पगड़ी) लपेटकर आधी रात को पुलिस थाने से गांव के लिए निकाल पड़ी। यह पगड़ी नहीं, पितृसत्ता का कफन था।
1995 में ज़िला न्यायालय ने पांचों मुजरिम को छोड़ दिया। जज साहब ने बोला कि एक 50-60 साल का आदमी रेप नहीं कर सकता और अगर रेप हुआ होता तो भंवरी देवी का पति बेहोशी की हालत में भी उन्हें रोक लेता। जज साहब को पितृसत्तात्मक सलाम।
मामला आगे हाईकोर्ट में गया और अभी तक भंवरी देवी को इंसाफ नहीं मिला है। 1997 में विशाखा नाम की एक एनजीओ ने इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर की। पीआईएल में मांग की गई कि चूंकि भंवरी देवी का बलात्कार वर्कप्लेस पर हुआ था, इसलिए महिलाओं को सेफ वर्कप्लेस मिले इसके लिए कानून बनाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को सुरक्षित वर्क प्लेस मुहैया कराने के लिए ऐतिहासिक ‘विशाखा गाइडलाइन’ जारी की।
भंवरी देवी आज तक लड़ रही हैं। सामाजिक बहिष्कार, पुलिस और न्याय व्यवस्था द्वारा मानसिक प्रताड़ना झेलने के बाद भी उनकी हिम्मत बरकरार है। मुझे नहीं पता कि आने वाली पीढ़ी को भंवरी देवी के बारे में पढ़ाया जाएगा या नहीं लेकिन भंवरी देवी मेरी हीरो हैं।