पहला भाग
स्कूल में दो ऐसी कविता थी जिसे पढ़ते समय झूम-कर, नाच-कर पढ़ती थी, एक केदारनाथ अग्रवाल की “बसंती हवा” और दूसरी सुभद्रा कुमारी चौहान की “झांसी की रानी”। अभी भी पढ़ती हूं तो रक्त प्रवाह तेज़ हो जाती है, विशेषकर झांसी की रानी गाते समय। कहानियों में सुनती थी कि लक्ष्मीबाई दोनों हाथ से तलवार चला लेती थी, अपने घोड़े के साथ ऐसी दोस्ती की दुश्मनों से घिर जाने पर कई बार घोड़े के पेट में नीचे छिप जाती थी। यह सब सुनी-सुनाई बात-चीत है लेकिन कॉलेज में आकर पता चला कि फेमिनिस्ट डिस्कोर्स कुछ हदतक सुभद्रा कुमारी चौहान की आलोचना करती है, मैं आश्चर्य थी, भई क्यों?
मतलब- ख़ूब लड़ी ‘मर्दानी’ वो तो झांसी वाली रानी थी, ‘जनानी’ क्यों नहीं? पावर, बोल्डनेस, लीडरशिप यह सारे पौरुष सूचक रहे हैं। मर्दानी वैसे ही बोलते हैं जैसे गौरवान्वित हो। माँ-बाप अपनी बेटी को कहते हैं ये तो बेटा जैसी है. बेटी बोल्ड है, कॉन्फिडेंट है तो भी बेटी जैसी ही होनी चाहिए! बेटा जैसी क्यों? क्योंकि प्रशासन, राजनीति, अर्थशास्त्र या एक शब्द में कहूं तो सार्वजनिक जीवन, पुरूषों का डोमेन रहा है. महिलाएं रही भी तो कहने भर की.
क्रिकपैट्रिक (krikpatrick) 1980 के दशक में संयुक्त राष्ट्र संघ में यूएस.ए. की राजदूत थीं तो उन्होंने अपने आपको “mouse in a man’s world” कहकर संबोधित किया। क्रिकपैट्रिक की टिप्पणी 1980 के दशक की है, रानी का इतिहास तो उससे डेढ़सौ साल पहले का है। सार्वजनिक जीवन महिलाओं के लिए वर्जित ही था। जो स्त्री सार्वजिनक जीवन में आई वह स्त्री ना रह सकीं वो पुरूष जैसी कहलाईं, या मर्दानी, और अभी भी कहलातीं ही हैं!
मैंने जब लिखना शुरू किया तो नेशनलिस्ट, फेमिनिस्ट, मार्कसिस्ट, सबलर्टन, सोशलिस्ट इन सभी डिस्कोर्स को तथ्यों के अनुसार ध्यान में ज़रूर रखा लेकिन किसी एक को आधार नहीं बनाया। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘झांसी की रानी’ से पहले वृंदावन लाल वर्मा की किताब ‘झांसी की रानी’ ख्याति प्राप्त कर चुकी थी, उसके बाद महाश्वेता देवी ने अपना पहला उपन्यास ‘झांसी की रानी’ लिखा। लेकिन सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ने रानी के संपूर्ण जीवन को जन-जन तक पहुंचाया।
नीचे में पूना, उंचे में काशी
सबसे सुंदर बीच में झांसी
उन दिनों स्थानीय बोला करते थे। झांसी नगर का विवरण पर्यटक विष्णुभट्ट गोडसे ने किया है, वे लिखते हैं झांसी नगर अतयन्त समृद्धशाली है, शहर के पश्चिम में एक सुंदर जलाशय है। झांसी महल इतना बड़ा और भव्य है कि उसे पूरा देखने में एक महीना लग जाए। बुंदेलखंड में मराठा वंश की स्थापना होने के पहले झांसी में नेवलकर वंश आ गया था। इसी नेवलकर वंश की बहू बनकर आईं मणिकर्णिका। बुंदेलखंड बुन्देला लोगों का देश था उस समय राजधानी थी ओरछा।
रानी कैसी थी?
सुभद्रा कुमारी चौहान कहतीं है,
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसके तलवारों की वार..
रानी की विमाता चिमाबाई, रानी के जाने के बाद अपनी पुत्री समान दुर्गा से अक्सर कहा करती थीं कि “ बाई साहिबा जैसा तेरे भाल पर भी मैं अर्धचंद्राकार बना दूंगी। ऐसा होने पर तू भी उन्हीं जैसी भाग्यवती होगी।” इतना बोलते ही घर से किसी ने कहा कि “बाई साहिबा का सौभाग्य तूने कहां से देख लिया? वह स्वंय तो भाग्यहीन थी ही, तेरा भी जो विनाश हुआ है वह भी उसी के कारण।”
चिमाबाई से रहा नहीं गया, उन्होंने कहा “मैं विधवा हो गई, मेरी संपत्ति नष्ट हो गई, फिर भी मैं कहूंगी वे परम भाग्यशालिनी थीं। वे रिश्ते में मेरी पूत्री हैं, फिर भी मैं उनपर श्रद्धा करती हूं। आज भी देखो, कितने लोग आकर उनकी बातें मेरे पास बैठकर आंसू भरी आंखों से सुना जाते हैं। कितने भाग्य से ऐसी श्रद्धा मिलती है, क्या इसे तुम नहीं समझते हो?”
साहित्याकार लिखते हैं, मिट्टी जिसके हाथ को छूकर संग्राम को उद्यत सैनिक हो उठती थी, काठ जिसके हाथ के स्पर्श से तलवार हो उठती थी, पहाड़ हो उठता था गतिचंचल अश्व, तब फिर पूछने वाली बात है कि वह स्त्री किस प्रकार की होगी?
रानी के पिता मोरोपंत या मोरेश्वर तांबे थे। मोरोपंत का विवाह भागीरथी बाई से हुआ। भागीरथी बाई सुसराल वालों का दिया हुआ नाम था असली नाम की जानकारी नहीं। महिलाओं का असली नाम कहां पता चलता था। 21 नंवबर 1835 ईं में भागरथी बाई ने एक कन्या को जन्म दिया, भागरथी देवी ने बेटी का नाम मणिकर्णिका रखा, प्यार से मनु। मनु का जन्म अस्सी घाट वाले घर में हुआ था. मनु दो साल की थी तो भागरीथी देवी चल बसी।
मोरोपंत की एकमात्र संतान थी उससे अलग न रह सके और झांसी में ही रहने लगे, उनके लिए एक मुरलीधर मंदिर बना और वे वहां के पुजारी बन गए। इस समय मोरोपंत की उम्र बत्तीस वर्ष। मोरोपंत बत्तीस वर्ष के थे, एक कन्या से उनका विवाह करवाया गया जिन्हें ससुराल में नाम दिया गया चिमाबाई (जिनका ज़िक्र उपर किया है)। चिमाबाई, मनु से दो से तीन मास बड़ी थीं दोनों के बीच माता, सखी, सहेली का मिला-जुला मधुर संबंध बन गया।
अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय थे, उन दिनों तकरीबन दस हज़ार व्यक्ति पेशवा पर निर्भर होकर बिठूर में रहा करते थे। बिठूर घाट के पास मोरोपंत ने अपना घर बनाया। मोरोपंत को पेशवा के यहां पूजा-अर्चना का काम मिल गया। बाजीराव मनु से बहुत स्नेह रखते थे, बाजीराव पेशवा द्वितीय के उत्तराधिकारी थे नाना धूधूपन्त, मनु से अठारह वर्ष बड़े। याद करिएगा सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता की यह लाइन :
नाना के संग पढ़ती थी वो,
नाना के संग खेली थी,
बरछी ढाल कृपाण,
कटारी उसकी प्रिय सहेली थी,
वीर शिवाजी की गाथाएं उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
बाजीराव मनु को दुलार से छबीली बुलाते थे। एक दिन नाना धूधूपंत पेशवा के निजी हाथी से कहीं जा रहे थे। मनु ने ज़िद किया मुझे भी जाना है, धूधूपंत ने ध्यान नहीं दिया, मोरोपंत ने अपनी बेटी से कहा ‘तुम्हारी किस्मत में हाथी कहां? तू मामूली व्यक्ति की बेटी है’। मनु ने जवाब दिया ‘मेरी किस्मत में एक दिन दस हाथी होंगे’, इस समय मणिकर्णिका आठ वर्ष की थी।
जाति व्यवस्था के आधार पर ब्राह्मण कहे जाने वाले महाराष्ट्रियन के घर आठ वर्ष में गौरी दान यानि कन्या विवाह की प्रथा थी। मोरोपंत चिंतित रहने लगे मनु आठ साल की तो हो गई थी, तभी तात्या दीक्षित बिठूर आए, उन्होंने मनु को देखा और झांसी के राजा गंगाधर राव से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. मोरोपंत प्रसन्न थे और इस तरह बालिका वधू बनकर सन 1842 ई. को मणिकर्णिका अपने पिता संग झांसी पहुंची। जहां ससुराल में वधू का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। अब वह हो गईं झांसी की रानी लक्ष्मी बाई।
दूसरा भाग
विवाहोपरांत रानी राज-परिवार में व्यस्त थीं। रानी के रूप-चित्रण के संबंध में प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा है कि गोल मुख, पक्का गेहुँआ रंग, भरे हुए भुट्टे की तरह कसे हुए दंत, न अत्यंत लंबी, न छोटी, भरे हुए केश राशि, भारी कंठ स्वर, बड़ी आंख, गंगाधर राव के जीवित रहने तक नाक में नथ, कंठ में सोने की पेटी, कंठी, सतलरी मुक्ताहार, कान में कर्णफूल, हाथों में कंगन और नूपुर पहना करती थीं।
साल 1851 में नाबालिग रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, और गंगाधर राव ने अपने बेटे का नाम रखा दामोदर गंगाधर राव। लेकिन दामोदर तीन महीने से ज्यादा जीवित न रह सका, गंगाधर राव रानी को क्या संभालते इस शोक से ख़ुद न उबर पाए। एक पुत्र गोद लेने की बात हुई। दशहरा उत्सव पर परोला से कुछ लोग आए जिनसे गंगाधर राव की घनिष्ठता थी। ये नेवलकर वंश से ही थे, वासुदेव अपने पांच वर्ष के पुत्र आनंद को भी साथ लेकर आए। 20 नंवबर को गोद लेने का दिन तय हो गया। क्योंकि वंश बेटे से चलता है भले बेटी, मणिकर्णिका जैसी ही क्यों न हो! इधर तत्कालीन वायसराय डलहौजी ने पुराने कानून को बहाल कर भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया था, कानून का नाम था Doctrine of lapse, दत्तक पुत्र स्वीकार न करने की नीति।
20 नवम्बर को वासूदेव ने आनंद के उपर से अपने सारे अधिकारों का त्याग करके उसे गंगाधर राव को सौंप दिया, अब आनंद का नाम हुआ दामोदर गगांधर राव। लेकिन रानी ने कभी आनंद को दामोदर नाम से न पुकारा, यह एक मां के लिए अत्यंत पीड़ादायक है कि वे अपने मृत बच्चे का नाम किसी और को दे दे, रानी हमेंशा आनंद से ही पुकारती रहीं।
21 नवम्बर, दिन में एक बजे गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। उस समय उनकी उम्र थी चालीस वर्ष और उसी दिन मणिकर्णका की उम्र हुई अठारह वर्ष। रानी जिस दिन बालिग हुईं उसी दिन विधवा। मुखाग्नि गंगाधर राव ने दिया। झांसी लक्ष्मीताल के पास उनका दाह संस्कार हुआ, बहुत दिनों तक उनकी छतरी वहां मौजूद थी- The chhatri of Maharaja Gangadhar Rao of Jhansi. 1813-1853. अभी क्या स्थिति है जानकारी नहीं।
गंगाधर राव की जीवित अवस्था में रानी का चरित्र उस रूप में व्यक्त नहीं हो पाया था जैसी वे थीं। फिरंगियों से लड़ना है यह तो तय था लेकिन, उनके पास बंदूक थी, रानी भी नारियल पर सफेद चिन्ह लगाकर पिस्तौल से निशाना लगाने की प्रैक्टिस करती थी, लेकिन कहती थी यह अस्त्र मेरे लिए नहीं है मुझे तलवार से ही सुविधा होती है। खाने में घी पका कर खाना और भुट्टा पसंद था, विधवा स्त्री बाल नहीं रखती इसे सामाजिक स्वीकारोक्ति थी। गंगाधर राव के जाने के बाद रानी की इच्छा थी की बाल मुडवा लें लेकिन अंग्रेजों ने कहीं भी आने-जाने पर पाबंदी लगा रखा था,फलस्वरूप प्रायश्चित के लिए रानी तुलसीवृक्ष में जल देती थी, (यह पढ़कर कोई राय मत बना लीजिएगा, रानी के विषय में बहुत अंदर जाना होगा किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए)।
पठानी पोशाक, नीला रंग पसंद था, तो सिर पर नीला या सफेद मुरैठा भी बांधती थी। और गले में सफेद मोतियों वाला माला, हाथ में धारदार तलवार। रानी विद्रोहियों को सेना में भर्ती कर लेती थी, आलोचक कहते थे डाकुओं को भर्ती किया जा रहा है और एक दिन यही डाकू अंग्रेजों से लड़ गए थे। झांसी महल में विख्यात पुस्कालय पर रानी का विशेष ज़ोर था, स्वयं गीता की एक प्रति अपने पास रखती थीं।
रानी मराठी बोलती थी, मराठी से याद आया कि महाराष्ट्रीय घुड़सवारी में निपुण होते थे। उन दिनों भारत में घुड़सवारी में तीन अश्वारोहियों का नाम विख्यात था, नाना धूधूपन्त, बाबासाहब आप्टे ग्वालियर और रानी झांसी, मेरा मन कहता है रानी जैसी इन दोनों में कोई नहीं थे।
एक दिन एक घोड़ा बेचने वाला रानी के पास दो घोड़ा लेकर आया, रानी ने जो घोड़ा दिखने में सुंदर था उसकी कीमत पचास रुपया और दूसरे की कीमत हज़ार रुपया लगाया। घोड़ा वाला हैरान, उसने कहा अच्छा वाला घोड़ा तो यह है। रानी ने कहा इसकी गतिविधि देखने से पता चलता है कि इसे कहीं जख्म है। घोड़ा वाला मान गया बोला जख्म फेफड़े के पास है, मैंने ऊपर से तैयार कर दिया लेकिन जख्म ठीक न हो पाया।
एक दिन एक घोड़ा वाला उदास मन से रानी के पास आया बोला यह घोड़ी कोई नहीं खरीदता, जैसे ही सवार बैठते हैं घोड़ी उन्हें नीचे फेक देती। रानी घोड़ी के पीठ पर बैठ गई, और एक चक्कर लगाया। घोड़ी से उतरी और कहा इसके दाहिने भाग में चोट है जैसे ही सवार पैर से धक्का लगाता है इसे तकलीफ़ होती है। रानी ने घोड़ी खरीद लिया, अश्व चिकित्सक आए, कील निकला गया, रानी ने घोड़ी का नाम सारंगी रखा। यह नाम, सारंगी याद रखिएगा।
एकदिन कोंकणस्थ नाटक मंडली झांसी पहुंचा। उनके ठहरने का प्रबंध किया गया। उन्होंने महल में राजा हरिश्चंद्र नाटक का मंचन किया। श्मशान वाला दृश्य दिखाया जाने लगा, मृत कलश फोड़ना था, वहां बैठे लोगों ने आपत्ति जताई यह महल के लिए अपशकुन है। रानी ने कहा यह नाटक का मंचन हो रहा है होने दिया जाए। बाक़ी लोग उठकर चले गए रानी बैठी रहीं।
विष्णुभट्ट ने अपनी पर्यटन यात्रा में लिखा है कि एक दिन रानी ने यज्ञ का अनुष्ठान किया, रानी ने दामोदर के साथ आसन ग्रहण किया, अनुष्ठान तो शुरू हुआ लेकिन नान्दी श्राद्ध जब प्रारंभ हुआ तो रानी के बदले दामोदर राव ने मंत्र बोलना शुरू किया। विष्णुभट्ट ने विचारा की सारे यज्ञ, संकलप रानी के नाम से हुए हैं लेकिन श्राद्ध प्रारंभ हुआ तो रानी के बदले दामोदर ने बोलना शुरू किया, फिर थोड़ी चर्चा के बाद यह समाधान निकला की यज्ञ दामोदर करेंगे (यह बोलकर गृहयज्ञ विधायिन्या मम मातु: मतलब गृहयज्ञ करने वाली मेरी माता है)।
इसका ज़िक्र इसलिए किया की श्राद्ध, वैदिक कर्मकांड से औरतों को दूर रखा गया था भले ही रानी ही क्यों न हो।
इधर, फिरंगियों की राजनीति शुरू होती है। झांसी का प्रतिनिधि है एलिस, राजा ने जीवित रहते हुए एलिस को पत्र दिया “ मेरी विधवा पत्नी को इस लड़के की मां के रूप में स्वीकार कर लिया जाए, लड़के के नाबालिग रहने की अवधि में मेरी पत्नी को इस राज्य की रानी और शासिका के रूप में स्वीकृत किया जाए, उसके साथ कोई अन्याय न हो उसी तरह निगाह रखी जाए।” एलिस ने यह पत्र अपने सीनियर मेलकम को दिया, जो ग्वालियर, रींवा और बुंदेलखंड का राजनीतिक प्रतिनिधि था।
महाराजा गंगाधर राव के शव के साथ एक अंग्रेज चला था वो मेजर एलिस था। एलिस ने अपनी तरफ से कोशिश की राजा की मांग मान ली जाए। उसने मेलकम को जानकारी दी झांसी के दत्तक लेने के अधिकार को खारिज करना अन्याय है। मेलकम ने अपने सहकारी के पत्र पर कोई टिप्पणी न करके उसे डलहौजी के पास भेज दिया। रानी ने स्वयं भी डलहौजी को सन 16-2-1854 एक विस्तृत खरीता लिखा। डलहौजी हिला भी नहीं, झांसी का गोदनामा सवीकृत नहीं हुआ, झांसी को ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया।
एलिस की रानी के प्रति शुभाकांक्षा को दूसरे रूप में व्याख्या की गई, रानी के चरित्र पर लांछन लगाया गया।
गंगाधर राव, लक्ष्मीबाई एंव शेक्सपीयर नाम का प्रयोग करते हुए गिलियन नाम के तथाकथित लेखक ने ‘The Rane’ नाम से उपन्यास लिखा।(यहां शेक्सपीयर का मतलब एलिस से था) और इसी समय रानी को आधार बनाकर ‘Seeta’ लिखी गई। इन सबका उदेश्य था रानी के व्यक्तित्व को मटियामेट करना, लेकिन उन उपन्यासों को इंग्लैंड में भी पाठक नसीब न हुआ। 16-3-1854 एलिस ने दरबार में जाकर रानी को डलहौजी का आदेश पत्र का सुनाया, रानी और एलिस के बीच एक पर्दे की आड़ होती थी। एलिस का पढ़ना अभी बाक़ी ही था रानी ने पर्दे की आड़ से चार शब्द कहा-
‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’
यह महज चार शब्द नहीं एक ऐतिहासिक उक्ति है। मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी, रानी की यह उक्ति उस दौर में आई जब भारत में ब्रिटिश राज फैल रहा था, और एक-एक कर सभी भारतीय रियासतों के मालिक ने आत्मसमपर्ण किया प्रतिवाद नहीं।
लोकगीतों में यह उक्ति प्रचलित थी।
बड़ी बढ़ियां थी जो रानी।
जिन्ने झांसी न छोडूंगी बोली बानी
जिन्ने सिपाहियों के लिए लड़ाई की।
और अपने खाई गोली।।
जबतक अजेय भारत का पानी।
तब तक अमर झांसी की रानी।।
आगे बढ़ते हैं, रानी के फैसले के बाद भी झांसी को झुकना पड़ा और किला ब्रिटिश अधिकार में चला गया। झांसी की विजय पताका उतार दी गई, एलिस और मेकलम से झांसी का भार लेकर एरस्काइन और स्कीन को नियुक्त किया गया।
अब रानी की दिनचर्या पहले से बदल चुकी थी, सवेरे उठना, पार्थिव शिव लिंग बनाना और शिवार्चन करना, उसके बाद सुबह आठ-ग्यारह घुड़सवारी, फिर वापस आकर ,भोजन, विश्राम, इन सबमें दामोदर साथ होता था। इधर ब्रिटिश सरकार ने रानी पर राजा का ऋण चुकाने का दबाव डालना शुरू कर दिया, कुल ऋण थे छत्तीस हजार। ब्रिटिश सरकार ने संदेश भिजवाया कि यह ऋण रानी को दिए जाने वाले पेंशन से किश्तों से काटा जाएगा। इतिहासकार, T.Rice Holmes-History of indian mutiny में लिखते हैं- “अगर सरकार रानी पर अपने पति का ऋण चुकाने के लिए छह हजार पौंड वार्षिक पेंशन में से दवाब न डाला होता तो मध्यभारत में क्रांति न होती।“
1857 विद्रोह की पृष्ठभूमि न तो एकदिन में तैयार हुई और न ही किसी एक कारण की वजह से विद्रोह हुआ। स्कूल ऑफ हिस्ट्री में इसे लेकर अलग-अलग मत है, कैंब्रीज स्कूल ऑफ़ हिस्ट्री (जो मूल रूप से प्रो ब्रिटिश माने जाते हैं) इसे महज सिपाहियों का विद्रोह माना। नेश्नलिस्ट स्कूल ने इसे प्रथम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन माना, और कुछ अन्य इतिहासकारों ने मिला-जुला तर्क रखा है। सन 1857 में राष्ट्रवाद की भावना का उभार तो नहीं हुआ था लेकिन ब्रिटिश राज के खिलाफ लोग कुछ मांगो को लेकर पहली बार एकत्र तो ज़रूर हुए थे।
मंदिर को जब्त कर लिया गया, रानी ने विरोध जताया। स्कीन ने कहा ’your God is our responsibility’ तुम्हारा भगवान हमारी जिम्मेदारी है। स्कीन ने नगर में कसाईखाना खुलवाया जहां गाय और सूअर दोनों काटे जाते थे। वे यही करने आए थे और सफलतापूर्वक करके गए। सिर्फ मांस की ज़रूरत नहीं थी बल्कि मरे पशुओं का ख़ून से सना चमड़ा टांगकर राजपथ से ले जाते थे, अब क्या था हिन्दू-मुसलमान दोनों आहत। रानी ने प्रतिवाद किया लेकिन चली नहीं।
इन्ही सब के बीच समय गुज़रता गया, साल 1855 आया और दामोदर राव आठ बरस के हो गए। रानी का एकमात्र सहारा दामोदर, जहां जाती दामोदर साथ होता, खिलाना-पिलाना, सिखाना सबकुछ। साल 1857 आ गया, भारत में जागरण की तैयारी। सड़कों पर लोग घूम-घूम कर बोल रहे थे 1761 (पानीपत का अंतिम युद्ध) के बाद अठारह 1857 आया है अब तो अंग्रेजी राज खत्म होने चला है।
जैसा कि पहले चर्चा हुई है कि अंग्रेज इतिहासकार इसे महज एक सैनिक विद्रोह कह गए और कारण बताते हैं चर्बीयुक्त कारतूस। दरअसल एक एनफील्ड प्रिचेड राइफल (Enfield Pritched Rifle) थी, जिसमें एक ओर चर्बी लगी रहती थी और दांत से काटकर कारतूस को भरना होता था, यह चर्बी गाय-सूअर की होती थी सो फिर भावना आहत हुई। यह एक मात्र कारण हो सकता है लेकिन 1857 का विद्रोह मजह एक सिपाहियों का विद्रोह था ऐसा कहना विद्रोह की अहमियत को गौण करना है।
1857 के विद्रोह का मुख्य क्षेत्र था उत्तर और मध्य भारत, इधर बंबई बंदरगाह पर साल 1857 में एक जहाज रुका, उसमें से एक शख्स भारत आया जिसका नाम था ह्यूरोज। यह शांति स्थापना के लिए आया था। इसने बुंदेलखंड और मध्यभारत की भू-राजनैतिक (geo-political) जानकारी लेकर उसने मध्यभारत थल सेना की दो ब्रिगेड सेना का नेतृत्व ग्रहण किया।