“निष्पक्ष रूप से उस व्यक्ति के विषय में कहना बहुत कठिन हो जाता है, जिसे लाखों व्यक्ति ईश्वर की भांति पूजते हों। वहीं, अन्य लाखों लोग जिन्हें पिशाच मानकर घृणा भी करते हों। यदि मार्क्स के अध्ययन की आवश्यकता का प्रश्न हटाया जा सके, तो इन कटु आलोचनाओं से बचा जा सकता है, परन्तु उस व्यक्ति को कैसे भुलाया जा सकता है, जिसके विचारों ने विश्व को प्रतिद्वंद्वी शिविरों में बांट दिया हो। ऐसे व्यक्ति के सम्बंध में विचार करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि भावुकता को मस्तिष्क की खिड़की से बाहर फेंककर उसे समझने की चेष्टा की जाए।”
उक्त बातें प्रख्यात राजनीतिक चिंतक मैक्सी ने कार्ल मार्क्स के संदर्भ में कही थी।
मार्क्स का जन्म सन् 1819 में जर्मनी के ट्रीब्ज़ नामक स्थान में एक यहूदी परिवार में हुआ था लेकिन मार्क्स जब 6 वर्ष के थे, तब उनके माता-पिता ने यहूदी धर्म त्याग कर ईसाई धर्म अपना लिया था। मार्क्स की प्रारम्भिक शिक्षा उनके भावी श्वसुर वैस्टफेलन के घर पर हुई।
17 वर्ष की आयु में वह बॉन विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा प्राप्त करने गए लेकिन अगले ही वर्ष उन्होने कानून की पढ़ाई को छोड़ कर दर्शन और इतिहास का अध्ययन प्रारम्भ किया।
बर्लिन और जेना विश्वविद्यालय में मार्क्स ने इन विषयों का अध्ययन किया और इसी समय मार्क्स हीगल के द्वंद्वात्मक दर्शन के संपर्क में आए।1848 में जेना विश्वविद्यालय से मार्क्स ने ‘डेमोक्रिटस और एपिक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन में भेद’ पर थीसिस लिख कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
ऐसे हुआ मार्क्स का बौद्धिक विकास
1843 में मार्क्स का विवाह उनके बचपन की मित्र जैनी से हुई। नवंबर 1843 को मार्क्स पेरिस चले गए। वहीं से उनके बौद्धिक विकास का युग शुरू होता है। पेरिस में मार्क्स ने बहुत से सुधारवादी और उदारवादी सिद्धांतों का अध्ययन किया।
1844 में मार्क्स फ्रेडरिक एंजिल्स से मिले जिनसे उनकी जीवनपर्यंत मित्रता रही। 1845 में फ्रांस की सरकार ने मार्क्स को बुनकरों के विद्रोह का समर्थन करने के कारण पेरिस से निष्कासित कर दिया। 1856 तक मार्क्स की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी क्योंकि 1867 में आने वाली पुस्तक दास कैपिटल के लिए वह अपना समय पूंजीवाद के अध्ययन में व्यतीत कर रहे थे।
1856 में उनकी एक बच्चे की कुपोषण के कारण मृत्यु हो गई। उस वक्त हालात ऐसे थे कि मार्क्स के पास बच्चे के कॉफिन बनवाने तक के पैसे नहीं थे।
पत्नी और पुत्री के जाने का गम बर्दाश्त नहीं कर पाए
1881 में मार्क्स की पत्नी की भी म्रत्यु हो गई थी। एक वर्ष के बाद ही उनकी सबसे बड़ी पुत्री भी संसार में नहीं रहीं। इन आघातों से मार्क्स अपने को नहीं बचा सके और अध्ययन कक्ष की आराम कुर्सी पर बैठे हुए 14 मार्च 1883 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। उनकी म्रत्यु पर उनके मित्र एंजिल्स द्वारा पढ़ी गई कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
“जीवन में उसका उद्देश्य प्रत्येक संभव तरीके से पूंजीवादी समाज का अंत करना था। संघर्ष उसके जीवन का मुख्य तत्व था और उसने अदम्य उत्साह, साहस और सफलता से संघर्ष किया जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है। परिणामतः वह अपने समय का सबसे घृणा और श्रद्धा का पात्र व्यक्ति था। उसका नाम युग-युग तक जीवित रहेगा।”
मार्क्स ने विश्व को क्या दिया?
मार्क्स द्वारा इस दुनिया को कई चीज़ें दी गई हैं। जैसे- श्रमिक वर्ग में वर्गीय चेतना और एकता को जन्म देने के साथ-साथ उसकी स्थिति मे सुधार करना, पूंजीपतियों के सम्मुख उनकी स्थिति को सबलता प्रदान करना और पूंजीवाद के खिलाफ अंतिम संघर्ष के लिए तैयार करना।
‘पूंजीवाद का अंत और साम्यवाद का आगमन अवश्यंभावी है’, ‘विश्व के मज़दूरों एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने के लिए केवल जंज़ीरें हैं और पाने के लिए समस्त विश्व पड़ा है।’ मार्क्स के इन नारों ने श्रमिक वर्ग में वर्गीय चेतना उत्पन्न करने में अद्वितीय सफलता हासिल की।
मार्क्स ने प्रथम अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ का निर्माण कर श्रमिक वर्ग को संगठित भी किया। मार्क्स और उनकी विचारधारा का महत्व इस बात ने बढ़ा दिया है कि वह पूर्णतया शोषित वर्गों के कल्याण हेतु समर्पित हैं और उनकी इसी बात ने उनको महान व्यक्ति बना दिया है।
अलहदा है मार्क्स का क्रांतिकारी तेवर
इसाह बर्लिन ने मार्क्स के बारें में कहा है, “9वीं शताब्दी में ऐसे अनेक सामाजिक आलोचक और क्रांतिकारी पैदा हुए हैं, जिन्हें मार्क्स की तुलना में कम मौलिक, कम हिंसक या कम कट्टर सिद्धांतवादी नहीं कहा जा सकता है लेकिन इनमें मार्क्स से किसी ने भी एकनिष्ठ होकर अपने आपको एक ही किसी ऐसे तात्कालिक व्यावहारिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समर्पित नहीं किया, जिसके कोई भी त्याग महान नहीं हो सकता।”
मार्क्स द्वारा विभिन्न विचारों से यह स्पष्ट होता है कि मार्क्स बौद्धिक जनता में सबसे अधिक प्रभावपूर्ण लेकिन उतने ही विवादित विचारक रहें हैं। उनके विचारों की जितनी आलोचना की गई, शायद ही अन्य किसी विचारक की हुई हो।
इसके बाद भी सच यह है कि मार्क्स ने अपने विचारों से दुनिया के जितने बड़े भाग को प्रभावित किया है, उतना प्रभाव शायद ही कोई दूसरा विद्वान जन-मानस पर डालने में सफल हुआ हो।
मार्क्स केवल एक विचारक नहीं थे बल्कि वह संसार के मज़दूरों के महान नेता भी थे। इस दशा में उनके द्वारा एक ऐसी विचारधारा को विकसित करना बहुत स्वाभाविक था, जो कामगरों में नई आशा का संचार करने के अलावा उन्हें संगठित होने की प्रेरणा देने में सफल होते और मार्क्स इसमें पूरी तरह सफल हुए।
भारत में भी मार्क्स की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। मार्क्स के विचारों को आज देश के किसानों और श्रमिक वर्गों में स्वीकार्यता मिल रही है। मज़दूरों या किसानो को कोई भी आन्दोलन करना होता है, तो तो वे लाल झंडे का प्रयोग करते हैं।
किसानों के आन्दोलनों में कोई उनका सहयोग करे या ना करे लेकिन लाल झंडे वाले ज़रूर करते हैं। यह सच है कि कुछ लोग मार्क्स से नफरत कर सकते हैं लेकिन गरीब मज़दूर, किसान या मैला ढोने वाले के पास मार्क्स से नफरत करने का कोई कारण नहीं है।
मार्क्स तो उनके मसीहा हैं। आज मार्क्स को यह संसार छोड़े 136 वर्ष हो गए लेकिन ‘सर्वहारा वर्ग’ के दिलों दिमाग में मार्क्स अभी ज़िंदा है।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य डॉ. गोपाल कृष्ण अग्रवाल की सोशियोलॉजी और पुखराज जैन की पोलिटिकल साइंस की किताब से लिए गए हैं।