पुलवामा हमले के बाद से सोशल मीडिया पर युद्ध के पक्ष में महिला साथियों की अभिव्यक्ति सर चढ़कर बोल रही है। इन गर्म खून खवातिनों को इल्म नहीं है कि कोई भी युद्ध या दंगा-फसाद महिलाओं के लिए सबसे पहले कहर और तबाही लाता है।
सोशल मीडिया पर जब कुछ महिला मित्रों मैंने पूछा, “क्या आप लोगों ने अपनी स्व-अस्मिता की तलाश करते-करते अपना देश खोज लिया है, जिसकी कल्पना तमाम महिला आंदोलनों के संघर्षों में होती रही हैं।” खैर, मेरे प्रश्न का जवाब मुझे नहीं मिला।
मौजूदा वक्त में यह सवाल पूछने के कारण देशद्रोही जैसी उपाधियां ज़रूर मिली, जिनसे पहले थोड़ी बहुत घबराहट होती थी लेकिन अब फर्क नहीं पड़ता है।
यह सवाल ना चाहते हुए भी देशभक्ति के महौल में फरमाबरदारी करते हुए इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि विश्व की तमाम सभ्यताओं और देशों ने आधी आबादी के पूरे हिस्से के साथ ना सिर्फ नाकाबिल-ए-बर्दाश्त सुलूक किया है बल्कि उन्हें शिक्षा या किसी भी इंसानी अधिकारों से भी हमेशा महरूम रखा।
वास्तव में महिलाओं का अपना कोई देश होता ही नहीं है। ‘वर्जिनिया वुल्फ’ के शब्दों के मुताबिक, “एक औरत के रूप में मेरा अपना कोई देश नहीं है, एक औरत के रूप में मैं अपना कोई देश चाहती भी नहीं हूं और एक औरत के रूप में पूरा विश्व मेरा देश है।”
देशभक्ति के महौल में अपने सेक्स (लिंग) और अतीत में अपने पास ज़मीन और सम्पत्ति के यथास्थिति के अनुसार वह खुद को देश का नागरिक मानने के वहम में ज़रूर होती हैं कि आज उनके पास भौतिकवादी सुख देने की तमाम चीज़ों पर मालिकाना हक है, जो अतीत में पहले कभी नहीं था।
महिलाओं के देश और नागरिकता का सवाल इस तरह एक-दूसरे से गुथे हुए हैं कि भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में राष्ट्र और राष्ट्रवाद अलग-अलग दौर में पुरुषों के संदर्भ में ही परिभाषित हुए हैं। आधी-आबादी के इन सवालों पर अक्सर चुप्पी ही रहती है क्योंकि उन्हें राष्ट्र की संपत्ति के तौर पर देखा जाता है।
आधी आबादी को किसी भी देश के राष्ट्रवाद के दायरे में घसीट लाने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए जाते हैं। उन्हें समाज में बच्चे पैदा करने के रूप में ही देखा जाता है। राष्ट्रीय सीमाओं के प्रजननकर्ता के रूप में देश की ज़रूरतों के हिसाब से आधी आबादी के यौनिकता पर नियंत्रण लादी जाती हैं।
पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात करने वाले देश में सेना प्रमुख महिलाओं के युद्ध में भागीदारी पर असहमति जताते हैं। तमाम बाधाओं के बाद भी जोश से लबरेज़ महिलाएं सेना में हर रोज़ नई इबारत की कहानियां लिख रही हैं। यह सभी कोशिशें आधी-आबादी को विशेष रूप से निर्मित करती हैं।
भारत की ऐतिहासिक यात्रा में रज़िया सुल्तान से लेकर लक्ष्मीबाई और मौजूदा दौर में सैकड़ों महिलाओं ने देशप्रेम के सामने अपनी जेंडरकृत अस्मिता को ठोकर मारकर यह सिद्ध किया कि देश के प्रति देशभक्ति विशिष्टत: केवल पुरुषवादी स्मृति, आहत पौरूष और पुरुषवादी आशा से ही उत्पन्न होता है।
हाल ही में रिलीज़ फिल्म ‘राज़ी’ और ‘मणिकर्णिका’ में मुख्य चरित्र को राष्ट्रवाद के तौर पर पेश करने की कोशिश को भी लोगों ने काफी पसंद किया।
“देश के आगे कोई नहीं, मैं भी नहीं तुम भी नही” और “मैं रहूं ना रहूं, देश रहना चाहिए” जैसे संवाद-गीतों के ज़रिये महिला चरित्र के देशभक्ति के जज़्बे सर चढ़कर बोल रहे होते हैं।
यह भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी युद्ध या युद्धोउन्माद में आधी आबादी ही अपने सारे सम्बंधों की कुर्बानी सबसे पहले देती हैं, शायद इसलिए वे कभी भी युद्ध की ना ही खुदमुख्तारी करती हैं और ना ही युद्ध रोकने की कोशिशों में शामिल होती हैं।