लोकसभा चुनाव को लेकर बिहार में बनी महागठबंधन की दीवार अब दरकनी शुरू हो चुकी है। वजह वही, जो चुनाव से पहले हर राजनीतिक दलों में फूट का कारण बनती है, सीटों का बंटवारा।
बिहार की सियासत में कभी शिखर पर रह चुके, हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा के अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की नाव अब महागठबंधन की सियासी दरिया में डगमगाने लगी है। सियासी साथियों पर पुत्र को तरजीह दिलाने में असफल हो रहे मांझी ने अब अपनी सियासी नाव को पार लगाने के लिए नए पतवार की तलाश शुरू कर दी है।
महागठबंधन में शामिल होने के बाद मांझी अपने क्षेत्र में ढीली हो चुकी राजनीतिक चुले कस नहीं पाए। अब मझधार में फंस चुकी नाव किनारे पर लगाने के लिए उन्होंने हाथ पैर मारने शुरू कर दिए हैं। लोकसभा चुनाव में सम्मानजनक सीटों की खातिर जीतनराम मांझी दर्जनों बार रांची पहुंच कर लालू यादव से गुहार लगा चुके हैं। इसके साथ ही राजद का कार्यभार संभाल रहे तेजस्वी यादव को भी अपनी मांगों को लेकर अवगत करा चुके हैं।
मांझी, सीटों की फरियाद को लेकर कॉंग्रेस की चौखट पर भी अपना शीश नवा कर लौट आए हैं पर उनके मन मुताबिक पतवार मिल नहीं पा रहा है। तमाम भागदौड़ के बाद मांझी को गठबंधन में एक सीट देने की पेशकश की जा रही है, जिसे लेकर मांझी संतुष्ट नहीं हैं।
खुद को बिहार के किसी बड़े सुरमा से कम नहीं मानते हैं मांझी
दरअसल, मांझी एक ऐसे नेता हैं, जो खुद को बिहार के किसी बड़े सुरमा से कम नहीं मानते हैं। साथ ही अपनी रणनीति का आभास किसी को होने नहीं देते हैं। वह चाहते हैं कि किसी भी लड़ाई का सेनापती उन्हें ही बना दिया जाए लेकिन तलवार ना तो वह खुद चलाते हैं ना ही किसी दूसरे को चलाने के लिए सौंपना चाहते हैं। वह अकेले ही रोमांच और रहस्य के साथ खुद को हालात के हवाले कर नई टीम में कूद जाते हैं। इन्हीं कारणों की वजह से वह बिहार की जातीय उर्वरक सियासत में फंस गए हैं।
जीतनराम मांझी ने पिछला बिहार विधानसभा का चुनाव एनडीए के साथ मिलकर लड़ा था, जिसमें वह 23 सीटों में 22 सीट वह हार गए थे। खुद उन्होंने दो सीटों से चुनाव लड़ा था लेकिन उन्हें एक सीट पर हार का सामना करना पड़ा था। चुनाव के बाद बिहार में राजद-कॉंग्रेस और जदयू के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी लेकिन राजग के साथ होने की वजह से मांझी को विपक्ष की कुर्सी पर बैठना पड़ा।
बाद में वह इस कोशिश में लगे कि बीजेपी उन्हें राज्यसभा भेज दे पर बात नहीं बन सकी। इस दौरान नीतीश कुमार ने राजद से किनारा कर अपनी पुरानी सहयोगी बीजेपी का हाथ थाम लिया और मांझी को बीजेपी से अलग होने का बहाना मिल गया। वह अपने बेटे संतोष सुमन को एमएलसी बनाने की शर्त पर लालटेन की रौशनी में बैठ गए हैं।
क्या पार्टी के बोझ के दबाव में हैं मांझी
अब महागठबंधन में भी उनके मनमाफिक बात नहीं होने से वह नाखुश हैं। जानने वाले बताते हैं कि अगर उनकी अपनी पार्टी नहीं होती तो वह परिवर्तन की पगडंडी पर निकल गए होते। पार्टी की बोझ से वह दबाव में हैं। वह नहीं चाहते हैं कि उनका कुनबा चुनाव से पहले अस्थिरता का शिकार हो।
जीतनराम मांझी महागठबंधन की तीनों पार्टियां रालोसपा, राजद और कॉंग्रेस से एक-एक सीट मांग रहे हैं। वह चाहते हैं कि उन्हें तीन सीट किसी भी हाल में मिल जाए। इससे कम सीट मिलने पर शायद ही वह बिहार के महागठबंधन का हिस्सा रह पाए। जीतनराम मांझी अपनी मांगों को लेकर दिल्ली से लेकर रांची तक सहयोगी दलों के नेताओं से मिलकर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वह सहयोगी दलों को अल्टीमेटम दे चुके हैं कि जल्द-से-जल्द सीटों का मामला नहीं सुलझा तो वह किसी और की ताराजू के पाले में बैठ जाएंगे।
दूसरी तरफ लालू यादव भी कॉंग्रेस को हैसियत से अधिक सीटें देने के पक्ष में नहीं हैं, जिसके बाद मांझी भी लालू की बात हाईजैक कर कॉंग्रेस को बार-बार हैसियत दिखा रहे हैं। वह जानते हैं कि यदि कॉंग्रेस को 10 से कम पर रोक दिया गया तो उनकी सीटें बढ़ सकती हैं। मांझी पूरी तरह से मौके की नज़ाकत को समझकर भुनाने की कोशिश में हैं। देखना यह होगा कि जीतनराम मांझी की नाव गठबंधन के किनारे लगेगी या परिवर्तन की धार पकड़ कर किनारा ही बदल लेगी।