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“मुक्तिबोध की कविताओं में फंतासी है मगर सपनों के परे नहीं”

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध

एक बड़े कालांतर में मुक्तिबोध को प्रगतिवादी कविता एवं नई कविता के बीच का सेतु माना गया है। कहा जाता है मुक्तिबोध के जीते जी उन्हें वो अहमियत और मुकाम नहीं मिला जिसके वह हकदार हैं। सच में अगर देखा जाए तो मुक्तिबोध को उनके मरणोपरांत हिंदी की नई कविता के युग में भी वह मुकाम नहीं मिल पाया।

कविता की हर शैली में पाठकों की एक बहुत बड़ी संख्या को वही कविताएं पसंद आती हैं, जो उन्हें हकीकत से दूर एक ऐसी दुनिया में ले जाए जहां सब अच्छा हो। कविता के केवल वही रस हो जो पाठ्यक्रम में पढ़ाए गए हैं। जो वे कवि से चाहते हैं, वही उन्हें परोसा जाए।

मुक्तिबोध इस बंधन में रहने वाले कवि नहीं थे। मुक्तिबोध को पढ़ने के लिए पाठकों को तैयार होना होता है। सच्चाई, यथार्थ और जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए, जो उनकी इन पंक्तियों में साफ झलकता है।

शांत रहो, धीर धरो,

और उल्टे पैर ही निकल जाओ यहां से,

ज़माना खराब है हवा बदमस्त है;

बात साफ-साफ है,

यहां सब त्रस्त हैं ;

दर्रों में भयानक चोरों की गश्त हैं।

मुक्तिबोध कोरा मद (हैंगओवर) नहीं परोसते। वह उस अच्छी दिखने वाली दुनिया का नशा उतारना चाहते हैं और उनका ऐसा करना शायद किसी को पसंद नहीं आता।

सहर्ष स्वीकारा है...

मुक्तिबोध की कविताएं आपको प्रेम करना नहीं सिखाती। उनकी कविताओं में प्रेमी अपनी प्रेमिका को गुलाब नहीं दिया करता, ना ही फूलों से उसकी तुलना करता है। मुक्तिबोध सच कहते हैं और सच को स्वीकार करने की सलाह देते हैं। दुनिया बदलनी चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन ज़रूरी है पहले इस दुनिया को इसके असली रूप में सहर्ष स्वीकार किया जाए।

सचमुच मुझे दण्ड दो कि हो जाऊं

पाताली अंधेरे की गुहाओं में विवरों में

धुएं के बादलों में

बिलकुल मैं लापता

लापता कि वहां भी तो तुम्हारा ही सहारा है

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है

सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है

अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है

सहर्ष स्वीकारा है

इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है

वह तुम्हें प्यारा है।

मुक्तिबोध की दुनिया

वैसे देखा जाए तो दुनिया काफी आर्बिट्रेरी शब्द है। दुनिया कुछ भी हो सकती है, हर इन्सान की अपनी एक अलग। मुक्तिबोध की कविताओं की भी एक दुनिया है, जो हमेशा खोजती रहती है पहचान अपने अस्तित्व की। जो पाठक की दुनिया में अपना जवाब तो देती है मगर पूरा नहीं और अधूरा छोड़ देती है सिर्फ उतना ही जितने में पाठक अपना दर्शन और अपने अस्तित्व की खोज कर पाए।

पल-भर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूं,

प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूं,

इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूं,

अजीब है ज़िन्दगी !!

बेवकूफ बनने की खतिर ही

सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूं;

और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है

कि मैं ठगा जाता हूं

हृदय में मेरे ही,

प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है

हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है

कि जगत्… स्वायत्त हुआ जाता है।

थोड़ा और स्पष्ट रूप से कहा जाए तो मुक्तिबोध के स्वीकारने और समझौते में अंतर स्पष्ट है। मुक्तिबोध ने दुनिया का अस्तित्व स्वीकारा है मगर शोषण और दमन के साथ कभी समझौता नहीं किया। वह अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात किया करते हैं।

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार

हरिशंकर परसाई मुक्तिबोध के लिए कहते हैं, “जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अंदाज़ कभी नहीं आया। वरना यहां ऐसे उनके समकालीन खड़े हैं, जो प्रगतिवादी आंदोलन के कंधे पर चढ़कर ‘नया पथ’ में फ्रंट पेजित भी होते थे, फिर पंडित द्वारकाप्रसाद मिश्र की कृष्णयान का धूप-दीप के साथ पाठ करके फूलने लगे और अब जनसंघ (आज के समय में भाजपा) की राजमाता की जय बोलकर फल रहे हैं।”

मुक्तिबोध की फंतासी

मुक्तिबोध की कविताओं में फंतासी है मगर उनकी फंतासी की वह दुनिया सात आसमानों के पार और सपनों के परे नहीं है। मुक्तिबोध की फंतासी इसी दुनिया में रहती है और इस दुनिया में भी पर्वतों, समन्दरों, हिल स्टेशन पर नहीं, बल्कि हमारे ही आसपास गलियों, राजनैतिक और वैश्विक परिस्थितियों या किसी आम मनुष्य के व्यक्तित्व में रहती है। मुक्तिबोध की कविताएं अपनी फंतासी को मिथ्या हो जाने से बचाना चाहती हैं और इस कोशिश में दुविधा में हैं।

मुझे कदम-कदम पर

चौराहे मिलते हैं

बांहे फैलाए !!

एक पैर रखता हूं

कि सौ राहें फूटतीं,

व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूं

बहुत अच्छे लगते हैं

उनके तजुर्बे और अपने सपने…

सब सच्चे लगते हैं;

अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है

मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूं,

जाने क्या मिल जाए !!

एक लम्बे समय से मुक्तिबोध को कवियों तथा कविताओं की किसी ‘एक’ श्रेणी में डालने का प्रयास रहा है। मज़े की बात यह है कि उन्होंने हमेशा खुद को सबसे अलग साबित किया है। मुक्तिबोध अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दर्शाते हैं जो कभी उनकी खुद (कवि) की होती है और कभी पाठक की या कभी कोई ब्रह्मराक्षस की।

मुक्तिबोध को शब्दों में बांधना मुश्किल है। उनका मार्क्सवादी या समाजवादी होना उनके व्यक्तित्व को पूर्णतः नहीं दर्शाता। ऐसा करना मानो उनके दर्शन को सीमित करना है। मुक्तिबोध की कवितायें बेचैन हैं और बेचैन है उनका दर्शन।

बेचैन चील!!

उस जैसा मैं पर्यटनशील

प्यासा-प्यासा,

देखता रहुंगा एक दमकती हुई झील

या पानी का कोरा झांसा

जिसकी सफेद चिलचिलाहटों में है अजीब

इनकार एक सूना!!

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