ज्योग्राफी पढ़ी होगी ना स्कूल में? पता ही होगा भारतीय भूभाग कितना विविध है? यहां हिमालय है, उसकी तराई के इलाके हैं, उत्तर भारत का मैदान हैं, मध्य भारत की पर्वतमालाएं हैं, पश्चिम में रेगिस्तान है, उत्तर-पूर्व के पहाड़ हैं, दक्षिण का पठार है, द्वीप भी हैं, तमाम नदियां हैं, समंदर भी है, महासागर भी है।
इसी तरह हज़ारों तरह के पशु-पक्षी हैं और मनुष्य? मनुष्य भी विविधता से भरा है इस देश का। हर धर्म के लोग हैं यहां। जो अलग-अलग जगहों पर बसते हैं। आज से नहीं सैंकड़ों, हज़ारों सालों से। सभी के अपने-अपने त्यौहार हैं। त्यौहार पता है कब ज़्यादा खूबसूरत लगते हैं? जब किसी दूसरे धर्म का व्यक्ति हमारे त्यौहारों में, हमारे खाने की टेबल पर, हमारे साथ बैठा हो। जब हमारा खाना खाकर वह आनंदित हो तो हमारी खुशी दोगुनी हो जाती है।
जब वह हमारे रिवाज़, हमारी परंपरा समझे, उसे अपना कहे, तो हमारी चर्चाएं सुंदर लगती हैं। हम भी यही करें, उसके त्यौहारों में। भारतीय गणतंत्र की नींव में है विविधता और आपसी समन्वय।
मैं बिहारी हूं। नाम से पता चल गया होगा कि पैदा हिन्दू घर में हुई हूं। मुझे लगता है कि मैं जितना एक बिहारी मुसलमान से रिलेट कर पाऊंगी, उतना राजस्थानी हिन्दू से नहीं। वो बिहारी मुसलमान पटना, नवादा, बेतिया, बेगूसराय, दरभंगा, सिवान, गया जैसी जगहों का होगा। वो जानता होगा कि हम बिहारी समोसे को सिंघाड़ा कहते हैं। उसे पता होगा गर्मी में गमछा कितने काम की चीज़ है। उसे मालूम होगा लालू जी के कितने नौनिहाल हैं। उसे पता होगा पटना की भीड़ का। उसे पता होगा लिट्टी और चोखे का स्वाद। उसे यह भी पता होगा कि हम बिहारी कितने जातिवादी हैं, क्योंकि वह भी जानता है उसकी कौम भी जातिवादी हो गई है।
मैं राजस्थान के एक शहर के बारे में भी नहीं जानती। कैसे रहते हैं लोग, खाना कैसा है, कैसे बातें करते हैं, क्या पहनते हैं। किस चौक-चौराहे पर कितनी भीड़ होती है। मैं गई ही नहीं कभी राजस्थान। कैसे जानूंगी? यहां फिर धर्म क्यों नहीं आ रहा बीच में? क्यों लग रहा है कि वो दूसरी कौम का व्यक्ति मेरा अपना है? क्योंकि शायद वो मेरे अपने इलाके का है।
विदेश जाओ और कोई हिन्दुस्तानी हिन्दू दोस्त मिले ही ना तो? और कोई अपने देश का मुसलमान मिल जाए तो? हो जाएगा ना वो अपना? वो जानता होगा ना कि चांदनी चौक दिल्ली में है और चार मीनार हैदराबाद में? तुम हो जाओगे ना पूरे नॉस्टैल्जिक?
फिर अपने ही देश में, अपने ही लोगों से इतनी नफरत क्यों? क्यों पाल रहे हो इतनी नफरत कि एक सर्फ के विज्ञापन तक में एकता और सौहार्द की बात गले से नहीं उतर रही? कहां पड़े हैं बचपन में लिखे वे ‘अनेकता में एकता’ पर लिखे गए निबंध? खोलो यार अलमारी। देखो पुरानी कॉपियों में होंगे, अपने छोटे भाई-बहनों की नोटबुक्स ही देख लो। बच्चों की कॉपियां देख लो। कहीं तो लिखा होगा। पढ़ो एकबार ज़रा। पूरे मन से। और पूछो कि कहां से आती है ऐसी नफरत?
एक छोटा सा बच्चा है, एक छोटी सी बच्ची है। सड़कों पर लोग जबरन रंग फेंक रहे हैं। उनसे बचाकर बच्ची उस बच्चे को मस्जिद पहुंचा देती है। लड़की कहती है-लौटकर आओगे तो रंग पड़ेगा। लड़का मुस्कुराकर हां में सर हिलाता है कि कोई बात नहीं। इस प्यारे से विज्ञापन से भला क्या समस्या?
मान लो ईद वाले दिन तुम मंदिर में पूजा करने जा रहे हो, भूखे पेट और कोई मुसलमान सेवई लेकर खड़ा हो जाए तुम्हारे सामने। तुम कहो कि आकर खा लूंगा। वो कहे कि नहीं, अभी खाओ। अगर मेरे धर्म की इज्ज़त करते हो तो अभी खाओ। तो क्या तुम वो सेवई पूजा करने से पहले खा लोगे? नहीं ना? तो फिर उस बच्चे को रंग क्यों लगवा लेना चाहिए?
बेमतलब का ज़हर घोल रहे हैं लोग और आप नादान बने उसे पिए जा रहे हैं। एक छोटे से बच्चे और छोटी सी बच्ची की इस प्यारी दोस्ती को लव-जिहाद बुला रहे हैं। कितनी सेक्स कुंठा है ऐसे लोगों में कि बच्चों को इस नज़र से देख रहे हैं। बहिष्कार करना होगा ऐसे लोगों का। ऐसे लोग दूसरे धर्म के लिए ही नहीं, अपने धर्म के लिए भी खतरा हैं। जो बच्चों तक को बच्चा नहीं समझ रहे। असल हिन्दू का फर्ज़ यही है कि ऐसी बेशर्मी से नफरत फैला रहे लोगों का बहिष्कार करें, ना कि उस खूबसूरत से विज्ञापन का।