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अचानक पर्यावरण मुद्दे पर दुनियाभर की सड़कों पर क्यों उतरे स्कूली स्टूडेंट्स?

महात्मा गांधी कहा करते थे,

प्रकृति के पास सभी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफी संसाधन हैं, पर किसी एक भी व्यक्ति के लालच के लिए ये संसाधन हमेशा कम पड़ेंगे।

सतत विकास का प्रण और प्रतिबद्धता-

अंतरारष्ट्रीय संबंधों और कानून के क्षेत्र में पढ़ाई के दौरान एक विषय आता है, “सतत विकास” का। “सतत विकास” का आम बोलचाल की भाषा में अर्थ है, “आज की पीढ़ी द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा सदुपयोग, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी संसाधन उपलब्ध रहे और सबका जीवन सुखी बना रहे।” पर सतत और टिकाऊ विकास तभी संभव है, जब हमारे पास पर्याप्त मात्रा में संसाधन भी उपलब्ध हो। बीते 15 मार्च को जब हम और आप, इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे, ठीक उसी वक्त दुनियाभर के 120 से भी ज़्यादा देशों के 2500 अलग-अलग शहरों में लाखों की तादाद में स्कूली छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर चुके थे। आइए, जानते हैं क्यों?

16 वर्षीया ग्रेटा थन्बर्ग की दिमागी उपज का परिणाम है यह आंदोलन:

यह सब शुरू हुआ, स्वीडिश मूल की ग्रेटा थन्बर्ग नाम की 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता के शुक्रवार को ‘स्कूल बंक’ करने से। ग्रेटा ने अगस्त, 2018 से हर शुक्रवार को स्कूल जाना छोड़ दिया है। हर शुक्रवार को ग्रेटा, स्कूल जाने की बजाय स्वीडन के संसद भवन के सामने जाकर बदलते मौसम और पर्यावरण बदलावों के मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज कराती हैं।

ग्रेटा का यह कारनामा तब दुनिया के सामने आया, जब ‘विश्व आर्थिक परिषद’ की बैठक के दौरान उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरीकी राष्ट्रपति ट्रंप के सामने दिए गए अपने भाषण में, मोदी और ट्रंप सहित दुनियाभर के नेताओं पर पर्यावरण मुद्दों की अनदेखी का आरोप लगाया।

ग्रेटा ने साफ शब्दों में कहा है,

जब तक स्वीडिश संसद में पेरिस समझौते को लेकर ठोस कानून नहीं बनाए जाते, वह हर शुक्रवार को अपना स्कूल छोड़ती रहेंगी।

पेरिस समझौते का मुख्य बिंदु यह है,

इस शताब्दी में वैश्विक तापमान एक दशमलव पांच डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा ना बढ़े।

ग्रेटा की इन्हीं कोशिशों के मद्देनज़र, उन्हें नॉर्वे के तीन सांसदों ने ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ के लिए भी नामित किया था।

दुनियाभर के स्कूली स्टूडेंट्स ने किया समर्थन:

ग्रेटा के इस कदम ने दुनियाभर के स्टूडेंट्स और युवाओं को प्रेरित किया है। ग्रेटा के समर्थन में, शुक्रवार को दुनियाभर के 120 से भी ज़्यादा देशों के 2500 अलग-अलग शहरों में लाखों की तादाद में स्कूली छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर पड़ें और अपनी-अपनी सरकारों से पर्यावरण संबंधी कानूनों को सही ढंग से लागू करने की मांग रखी।

भारत में भी बंगलुरु, हैदराबाद और मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ-साथ राजस्थान, गुजरात, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के छोटे-छोटे शहरों में भी स्कूली बच्चों ने ग्रेटा की इस मुहीम का समर्थन किया। पर्यावरण बदलावों के लिए अमेरीकी युवाओं की एक संस्था की संस्थापक, 12 वर्षीया हेवेन कोलमैन ने कहा,

आज लाखों की तादाद में बच्चे सड़कों पर उतरे हैं, ऐसा इसलिए नहीं है कि हमलोग स्कूल नहीं जाना चाहते, बल्कि इसलिए है क्योंकि हम डरे हुए हैं।

कोलमैन आगे कहती हैं,

पर्यावरण बदलाव आज हमारे जीवन का सबसे बड़ा खतरा है, हमारे भविष्य का भी और इस विश्व का भी।

दुनियाभर से मिली प्रतिक्रिया

ग्रेटा थन्बर्ग के इस आंदोलनकारी कदम को दुनियाभर में सराहना मिली है। पेरिस की मेयर ऐनी हिडैल्गो कहती हैं,

यह वाकई प्रेरणादायी है कि स्कूली बच्चों ने अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए, पर्यावरण संबंधी कानूनों में कड़ाई और सख्ती की मांग की है। राजनेता और व्यसक होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी, इन बच्चों की अपेक्षा काफी बड़ी है और हमें इस बात को समझना होगा।

वहीं दूसरी ओर इंग्लैंड की प्रधानमंत्री थेरेसा मे के प्रवक्ता ने इस कदम को स्कूली बच्चों का समय बर्बाद करने का तरीका बताया है। उन्होंने कहा,

सड़कों पर उतरने की बजाय बच्चों को स्कूल में पढ़ाई करके वैज्ञानिक या इंजीनियर बनकर सरकार की मदद करनी चाहिए, ताकि इस समस्या से निज़ात पाया जा सके।

चुनावी मौसम में भारतीय राजनेताओं ने किया पर्यावरण मुद्दों से किनारा

अब बात करते हैं भारत की, तो यहां चूंकि चुनाव का मौसम है इसलिए ग्रेटा का विश्व के बदलते पर्यावरण और मौसम पर इस नेक कदम की सराहना करने का वक्त कोई भी राजनेता नहीं निकाल पाया। यह वाकई अफसोसजनक है कि एक ओर जहां पूरे विश्व में बदलता पर्यावरण और बढ़ता तापमान एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनकर उभरा है, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह कोई मुद्दा ही नहीं है।

नेताओं और जनप्रतिनिधियों को यह बात समझने की ज़रूरत है कि इंसान को सांस लेने के लिए किसी मंदिर-मस्जिद की नहीं, साफ और शुद्ध हवा की ज़रूरत है। ज़ाहिर सी बात है, जब बड़े अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेंगे तो बच्चे ही विश्व को राह दिखाएंगे।

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