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“क्या सचमुच गाँधी चाहते तो टल सकती थी भगत सिंह की फांसी?”

भगत सिंह

भगत सिंह

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब प्रांत के लायलपुर ज़िले के बंगा नामक गाँव में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। इनकी माता का नाम विद्यावती कौर और इनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह था।

जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ उस दिन इनके घर में इनके पिता के तीन भाई अजीत सिंह, कृष्ण सिंह और सुवर्ण सिंह जेल से रिहा हो गए, जिसके कारण इनकी दादी बहुत खुश हुईं और बोली बच्चा बहुत भाग्यशाली है।

क्रांतिकारी विचारधारा का आगाज़

भगत सिंह का जीवन प्रारंभ से ही अंग्रेज़ों के दमन और गाँधी के जन-जागरण रूपी अहिंसात्मक आंदोलनों को देख रहा था परंतु आज़ादी की इस लड़ाई में इन्होनें गाँधी के मार्ग को चुनने से इनकार कर दिया।

इसके पीछे कई कारण थे जिनमें जलियांंवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) तथा चौरीचौरा कांड (5 फरवरी 1922) के बाद 12 फरवरी को बारदोली में काँग्रेस कमेटी की बैठक में असहयोग आंदोलन वापस ले लेना तथा रूस की बोल्शेविक क्रांति, समाजवाद और मार्क्सवाद आदि कारणों से भगत सिंह नें क्रांतिकारी विचारों को प्राथमिकता दी।

भगत सिंह।

अक्टूबर 1924 में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना सचीन्द्र सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी और पं. राम प्रसाद बिस्मिल आदि ने की थी। इसी का नाम आगे चलकर 1928 में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ पड़ा जो कि भगत सिंह, आज़ाद (नेतृत्व), राजगुरू और सुखदेव के क्रांतिकारी विचारों का परिणाम था।

घटना 9 अगस्त 1925 की है, जिस दिन सरकारी खज़ाना सहारनपुर से लखनऊ जा रहा था। इसी बीच उस दिन लूट की दो घटनाओं को अंजाम देने के बाद हाथ में कुछ ना आने पर सरकारी खज़ाने को लूटा गया, जिसे काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इनमें राम प्रसाद बिस्मिल, अस्फाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी और सचीन्द्र सान्याल को दोषी पाया गया।

इस मामले में केवल सचीन्द्र सान्याल को आजीवन कारावास हुई और बाकी सभी को 1927 में फांसी हो गई। इसमें पं राम प्रसाद बिस्मिल ने यह कहते हुए कि मैं ब्रिटिश साम्राज्य के पतन की इच्छा करता हूं और फांसी पर झूल गए। इस घटना से भगत सिंंह बहुत उद्विग्न हुए।

साइमन कमीशन

3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत आया जिसका भारत में काफी विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपतराय द्वारा साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाठियों से खूब पीटा गया, जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए और 17 नवंबर को उनका निधन हो गया।

भगत सिंह, लाला लाजपतराय के विचारों (हिंदुवादी) का पूरा समर्थन तो नहीं करते थे लेकिन एक क्रांतिकारी के रूप में उनका सम्मान उन्होंने हमेशा किया।

भगत सिंह।

इसके बाद भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और आज़ाद ने 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स की हत्या कर दी और ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ के विरोध में 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त तथा भगत सिंह ने लाहौर सेन्ट्रल असेबंली में बम फेंका।

इनके साथ और भी लोग थे जो सरकारी गवाह बन गए और सांडर्स की हत्या के ज़ुर्म में 24 मार्च 1931 की सुबह जी सी हिल्टन ने फांसी की सज़ा की तारीख मुकर्रर की और 11 घंटे पहले ही 23 मार्च को फांसी दे दी गई। इसमें सरकारी गवाह हंसराज वोहरा और जय गोपाल थे।

गाँधी की अधूरी कोशिश

भगत सिंह और आज़ाद ने अंतिम दिनों में माना कि हिंसा से आज़ादी मिलना मुश्किल है लेकिन वे गाँधी के आंदोलनों के कभी पक्षधर नहीं रहे। जब भगत सिंह को फांसी की तारीख मुकर्रर हुई, उसके पहले 5 मार्च को ‘गाँधी इरविन पैक्ट’ हुआ, जिसमें गाँधी जी और सभी सत्याग्रहियों को मुक्त करने की मांग की गई थी लेकिन भगत सिंह को जेल से रिहा करना या उनकी सज़ा कम करने की कोई मांग गाँधी द्वारा इस पैक्ट में नहीं की गई थी।

कई लोगों नें यह सवाल भी उठाए और गाँधी के ऊपर आरोप भी लगाया कि इन्होंने कुछ नहीं किया। गाँधी ने कहा था कि भगत सिंह की देशभक्ति का मैं सम्मान करता हूं लेकिन उनके द्वारा अपनाए गए साधनों का मैं विरोध करता हूं। ठीक इसी प्रकार भगत सिंह भी गाँधी का सम्मान करते थे लेकिन उनके कार्यों के तरीकों से सहमत नहीं थे।

भगत सिंह का उद्देश्य अहिंसा नहीं था

महात्मा गाँधी ने कहा था कि यदि मुझे इन युवाओं के साथ काम करने का मौका मिला होता तो मैं निश्चय ही उन्हें संघर्ष के इस तरीके को बदलने के लिए कहता। भगत सिंह ने अहिंसा को कभी अपनाया नहीं लेकिन हिंसा को अपना उद्देश्य भी नहीं बनाया। 14 फरवरी 1931 को मदन मोहन मालवीय ने दया याचिका दायर की जिसे खारिज़ कर दी गई।

18 फरवरी को गाँधी जी ने लोगों की तरफ से सज़ा को कम करवाने का प्रयास किया। गाँधी जी ने माना कि हमने असफल प्रयास किया और भगत सिंह को बचा नहीं पाए लेकिन उन्होंने भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए जो प्रयास किए, वह वास्तव में गैर-ज़रूरी ही था।

गाँधी का वह पत्र

उनके प्रयास का पहला पत्र 23 मार्च 1931 को सुबह लिखा गया। उन्होंने लिखा, “प्रिय मित्र आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है लेकिन शांति के लिए अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्दपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो की सज़ा में रियायत किए जाने की आशा नहीं है, फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। यदि इस पर विचार करनें की गुंज़ाइश हो तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं।”

बकौल गाँधी,

जनमत सही हो व गलत सज़ा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर ना हो तो लोकमत का पालन करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सज़ा हल्की की जाती है, तो आंतरिक शांति की स्थापना करने  में मदद मिलेगी। अन्यथा नि:संदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।

इस पत्र के आग्रह करने के पश्चचात् 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 की वह शाम जब क्रांति का सूर्य अस्त हो गया। इसमें तीन लोगों को फांसी दी गई जिसमें सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर चढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। गाँधी जी ने अपने वक्तव्य में लिखा कि अंग्रेज़ों नें क्रांतिकारियों को शांत करने का एक और मौका गंवा दिया। यह निश्चय ही अपरिमित पशुबल की शक्ति को साबित करने वाला कदम है।

‘गाँधी गो बैक’ के नारे

इसके बाद 25 मार्च को कराची के अधिवेशन में जिसकी अध्यक्षता सरदार पटेल कर रहे थे, उसमें गाँधी जी का बहुत विरोध हुआ। ‘गाँधी गो बैक’ के नारे लगे और काली पट्टी पहनकर उनके खिलाफ प्रदर्शन  किया गया। गाँधी जी ने यह सब देखकर कहा कि ये देशभक्त हैं और इनका गुस्सा जायज़ है।

भगत सिंह के एक कार्य में नेहरू का सहयोग करने पर गाँधी जी ने कहा था कि यह सब हमारे सिद्धांतों के असंगत हैं। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो गाँधी जी ने कभी सार्थक प्रयास नहीं किया था। भले ही वह ये कहते रहे हों कि हम जितनी कोशिश कर सकते थे, हमने किया लेकिन इसके लिए केवल गाँधी जी को ही ज़िम्मेदार ठहराना भी उचित नहीं होगा।

भगत सिंह को जिस वजह से फांसी की सज़ा सुनाई गयी थी, उसमें सरकारी गवाह इनके (भगत सिंह) ही साथ के दो व्यक्ति थे। जय गोपाल और हंसराज वोहरा तथा लाहौर षड्यंत्र केस में इन तीनों लोगों को आजीवन कारावास हुआ था। जिसमें इन लोगों की पहचान खुशवंत सिंह के पिता द्वारा की गई थी।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी

गाँधी जी के विचारों से अहिंसा ही आज़ादी का सर्वोच्च मार्ग था और इससे ही वास्तव में आज़ादी भी मिली लेकिन क्रांति के शौर्य को बचाने का मलाल तो ज़रूर था क्योंकि गांधी जी मृत्यु दंड के प्रबल विरोधी थे। कभी-कभी गाँधी जी को भगत सिंह के समतुल्य दिखाने की कोशिश की जाती है, जो गलत है क्योंकि गांधी जी ने जन-जागरण को महत्व दिया और सतत आज़ादी के प्रयासों का जो तरीका अपनाया, उस तरीके के आगे भगत सिंह को जीवन के अंत समय में झुकना पड़ा था।

यह अलग बात है कि इन तरीकों को कभी भगत सिंह ने नहीं अपनाया। कभी-कभी उन क्रांतिकारी गुटों में केवल भगत सिंह को सर्वोच्च दिखाया जाता है, जो कि गलत है क्योंकि उस संगठन का कोई क्रांतिकारी किसी से कम नही था। सभी बहुत ही वीर और अदम्य साहसरूपी प्रतिभा के धनी थे।

भगत सिंह ने फांसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में जो कुछ लिखा, उससे पता चलता है कि इस फांसी से भगत सिंह तनिक भी दुखी नहीं थे। ऐसा साहस जिसमें शोर्य की कोई सीमा ना हो, जिससे दुश्मन हतोत्साहित हो जाएं और जिनके पराक्रम से आज भी भारत गर्व महसूस करता है, उनके द्वारा लिखे शब्द कुछ इस प्रकार थे-

उन्हें यह फिक्र है हरदम, नई तर्ज़-ए-ज़फा क्या है? हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है? दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें। सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।

ऐसा व्यक्ति जिसने ना तो मौत को गले लगाने में संकोच किया और ना ही मौत से कभी डरा। ऐसे महान व्यक्तित्व को नमन है।

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