राजस्थान के चुरू ज़िले में ह्यूमन फॉर ह्यूमैनिटी के जागरूकता कैंप के दौरान अनुराग से एक महिला ने सवाल पूछा, “आपको भी होता है क्या?” सवाल सुनकर अनुराग और बाकि लोग चौंक गए लेकिन जल्दी ही उन्हें सवाल के पीछे का सार समझ आ गया। माहवारी से जुड़े ना जाने कई सामाजिक बंधन एवं अन्धविश्वास हैं, जिनके खिलाफ अनुराग चौहान और उनकी संस्था के लोग पिछले 3 सालों से सामना कर रहे हैं।
हाल ही में अनुराग को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा सम्मानित किया गया। अनुराग को ‘वॉश-वूमेन सैनिटेशन हाइजीन’ के लिए यह पुरस्कार मिला, जो उनकी संस्था ‘ह्यूमन फॉर ह्यूमैनिटी’ का संचालित एक कार्यक्रम है।
ऐसे हुई शुरुआत
आज से 3 साल पहले अनुराग ने माहवारी से जुड़े अन्धविश्वास और कुरीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के लिए वॉश (WASH) प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसके तहत वह देश के 5 राज्यों में मासिक धर्म से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी देते हैं। अनुराग अपनी संस्था के माध्यम से महिला डॉक्टरों और स्वयंसेवकों द्वारा वूमन सैनिटेशन हाइजीन के बारे में जागरूक करने के लिए युवा लड़कियों के साथ विभिन्न सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में कार्यशालाएं आयोजित करते हैं।
संस्था के सदस्य महिलाओं और लड़कियों को यह भी सिखाते हैं कि कैसे अपना खुद का सैनिटरी नैपकिन बनाया जाए, जो कुछ महिलाओं के लिए कमाई का ज़रिया बन गया है। वे इन नैपकिन्स को थोक में बनाती हैं और इसे घर के पास बहुत कम कीमत पर बेचती हैं।
उनकी संस्था मंदिरों में मासिक धर्म स्वच्छता अभियान चलाकर, महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन उपहार में देकर सभी उम्र की वर्जनाओं को तोड़ रही हैं। झुग्गी-झोपड़ी और गाँव के लोगों को संस्था के सदस्य वहां जाकर इस बात से अवगत कराते हैं कि पीरियड्स होना सामान्य है और इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। महिलाओं को नैपकिन को खरीदने या उन्हें ले जाते समय छिपाने की ज़रूरत नहीं है।
अलग-अलग कार्यशालाओं द्वारा दी जाती हैं माहवारी से जुड़ी जानकारियां
उनकी संस्था डॉक्टरों के माध्यम से नियमित जांच एवं आवश्यक जानकारी देती है। साथ ही वह घर पर ही सैनिटरी नैपकिन बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं, जिसमें कपड़े और रुई के प्रयोग से सस्ते और सुलभ पैड बनाने में मदद मिलती है। संस्था द्वारा महिला डॉक्टरों, पोषण विशेषज्ञ और अनुसंधान विद्वानों की कार्यशालाएं भी लगवाई जाती हैं, जो महिलाओं और लड़कियों को यह समझाते हैं कि माहवारी क्यों होती है। हार्मोनल परिवर्तन, जैविक कारक आदि तथ्यों से उनको अवगत कराते हैं।
अनुराग बताते हैं कि वर्कशॉप के दौरान उन्होंने देखा कि अधिकांशतः महिलाएं एवं किशोरियां दिहाड़ी मज़दूर वर्ग से आती हैं, जो परिवार अपने दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं को बमुश्किल से जुटा पाता हो, वो परिवार बाज़ार से पैड खरीदने की सोच भी नहीं सकता, इसलिए उनकी संस्था की यह कोशिश रहती है कि महिलाओं को ये पैड घर पर ही उपलब्ध कपड़ों से बनाना सीखा सके।
लड़कियां माहवारी को समझ लेती हैं बीमारी
अनुराग बताते हैं कि 3 साल के सफर के दौरान उन्हें बड़ी ही अजीब सच्चाइयों का पता चला। वह बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं आज भी माहवारी के बारे में बात करने में सहज नहीं हो पाती हैं, जब किशोरियों को पहली बार पीरियड होते हैं, तब वह इसे बीमारी समझकर मानसिक तनाव से गुज़रती हैं।
शादी के बाद महिलाएं इस सम्बन्ध में अपने पति से बात करने में सहज नहीं हो पाती। देश के कई हिस्सों में आज भी इस समस्या को श्राप समझा जाता है। ग्रामीण ही नहीं बल्कि बड़े शहरों के कई हिस्से हैं, जो आज भी इन अंधविश्वासों से ग्रसित हैं। 2012 की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष 1 लाख 80000 महिलाए माहवारी से सम्बंधित बीमारियों से मौत होती है लेकिन इस आकंडें पर ज़्यादा कोई बात नहीं करता।
हालांकि सरकार और कई अन्य संस्थायों के प्रयासों से स्थिति में बदलाव आ रहा है लेकिन यह लड़ाई बहुत लम्बी चलने वाली है। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून के रहने वाले अनुराग ने बहुत कम उम्र में ही सामजिक क्रियाकलापों में रुचि रखनी शुरू कर दी थी। जिस उम्र में बच्चे अपनी पढ़ाई और खेलने में व्यस्त रहते हैं उस 18 वर्ष की उम्र में अनुराग चौहान ने ह्यूमन फॉर ह्यूमैनिटी संस्था का निर्माण किया था।
उनकी संस्था उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में कार्य कर रही है। आज अनुराग की संस्था में 17 देशों से लोग जुड़े हुए हैं, जिसकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
अनुराग बताते हैं कि जब उन्होंने वॉश प्रोजेक्ट शुरू किया था तो महिलाएं उनसे बात करने में सहज नहीं होती थी लेकिन धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी। अब महिलाएं और किशोरियां काफी सहज होकर माहवारी से जुड़े अपने अनुभव बताती हैं। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन माहवारी से संबंधित बीमारियों से मरने का आकंड़ा न्यूनतम ज़रूर होगा।