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“टीबी के इलाज के लिए सरकारी स्कीम मेरी बीमारी पर मज़ाक थी”

We could not afford to buy time to undergo five stages of grief (denial, anger, bargaining, depression, and acceptance) and landed on the sixth one fairly quickly – resilience.

मुझे वह दिन अब तक याद है, जब मुझे खांसी आनी शुरू हुई थी। मैं बांद्रा में एक छोटी कंपनी में डेटा एंट्री ऑपरेटर का काम करती थी। खांसी शुरू होने के बाद मुझे बुखार और ठंड लगनी भी शुरू हो गई। मेरे डॉक्टर ने इसे न्यूमोनिया बताकर इलाज शुरू कर दिया। एक महीने बाद मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही खांसी और बुखार दोबारा लौट आया। इस बार यह अधिक गंभीर था।

तेजल, कैंसर सर्वाइवर। फोटो क्रेडिट- मानसी खड़े

फिर हमने एक्स-रे कराया तो पता चला कि मुझे टीबी हुई है। मेरा इलाज तुरंत शुरू कर दिया गया। मुझे थोड़ा आराम मिलना शुरू हो गया लेकिन इलाज के साइड-इफेक्ट्स की वजह से मुझे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। मैंने अपने आपको समझाया कि इससे ज़्यादा कोई और मुश्किलें नहीं आएंगी लेकिन मैं गलत थी।

जहां मैं टीबी से लड़ रही थी, वहीं दूसरी तरफ मुझे यह समझ में आने लगा कि यह बीमारी अपने साथ भारी भरकम खर्चे लेकर आई है। जैसे महंगी दवाइयां, डॉक्टर की फीस, नियमित जांच और यहां तक कि मेरे लिए भोजन खरीदना भी महंगा बन चुका था। मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी और मेरी बहन को अपनी पढ़ाई। मेरी मां और बहन दोनों को घर चलाने के लिए काम करना पड़ा। टीबी मेरे लिए आर्थिक मुश्किलों का ज़रिया बन चुकी थी।

फिर जब मैंने यह सुना कि अपना इलाज करा रहे टीबी मरीज़ों के लिए सरकार ‘निक्षय पोषण योजना’ नामक एक स्कीम शुरू करने जा रही रही है, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब मुझसे बेहतर कौन जान सकता है कि भारत को इसकी कितनी ज़रूरत है। फिर मुझे यह जानकर काफी निराशा हुई कि इस योजना में हर मरीज़ को सिर्फ 500 रुपए महीने मिलेंगे। इतने पैसे में तो कोई मरीज़ दो सप्ताह भी अपना पेट नहीं भर सकेगा। फिर इतने पैसे में एक पूरा महीना कैसे गुज़ारा होगा?

काफी नहीं है सरकार की यह योजना

भले ही टीबी का इलाज मुफ्त है लेकिन टीबी मरीज़ों को 500 रुपए जैसी मामूली राशि से काफी अधिक की ज़रूरत है, ताकि वो कम-से-कम खुद का पेट भर सके। अब मेरा ही मामला देखिये, जब मेरी टीबी बढ़ गई तो मैं वडोदरा के सबसे मशहूर पल्मोनोलॉजिस्ट्स डॉ. धर्मेश पटेल के पास गई। उन्होंने मेरी जांच रिपोर्ट देखी और मुझे तुरंत डॉ ज़रीर उदवादिया के पास भेज दिया, जो कि भारत के सबसे मशहूर प्राइवेट टीबी डॉक्टर हैं। लेकिन क्या मैं उनकी फीस चुका सकती थी? नहीं!

भले ही उन्होंने मुझसे पैसे नहीं लिये लेकिन उन तक पहुंचने के लिए यात्रा खर्च भी 500 से अधिक ही था। 2013 में मुझे एक्सटेन्सिवली ड्रग रेज़िस्टेंट टीबी (XDR-टीबी) होने की पुष्टि हुई। इस टीबी में काफी अधिक दवा प्रतिरोधी स्थिति देखने मिलती है। मुझे बेडाक्विलिन दी जाने लगी, यह एक नई दवा थी, जिसे बड़ी मुश्किल से एक कंपैशनेट यूज़ प्रोग्राम के ज़रिये हासिल किया जा सका। मुझे इससे बेहतर तो लगने लगा था लेकिन मुझे बहुत भूख लगती थी। किसी ने मुझे इस बारे में बताने के ज़रूरत ही नहीं समझी। जब आप मरीज़ों से यह उम्मीद करते हैं कि वो सबसे कठोर दवाइयां खाएं, तो फिर आप यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हें भोजन की भी ज़रूरत होगी?

मेरी बीमारी के कारण मेरा परिवार कर्ज़ के बोझ में दबता गया और दोस्तों व रिश्तेदारों से उधार लेना पड़ा। मुझे तो डॉक्टरों से मदद मिली, वडोदरा में धर्मेश पटेल और मुंबई में ज़रीर उदवादिया से। वरना टीबी के इलाज का खर्च उठा पाना मेरे लिए संभव नहीं था। जब हमारी सरकार योजनाओं के बारे में सोचती है, तो बाज़ार जाकर चीज़ों की कीमतें क्यों नहीं पता करती? ऐसा क्यों होता है कि मरीज़ों से यह उम्मीद की जाती है कि हम बिना पर्याप्त पोषण के टीबी से मुक्त हो सकेंगे? ऐसा करने से तो टीबी का इलाज नामुमकिन है।

जब तक मेरा इलाज चलता रहा, मैं यही सोचती रहती थी कि मेरे पास बड़े ही दयालु डॉक्टर हैं, जो मुझे इस मुश्किल दौर से बाहर निकाल रहे हैं। मेरा परिवार मुझसे प्यार करता है और मेरे साथ खड़ा है लेकिन उनका क्या होता होगा जिनके पास ना तो कोई मदद करने वाला है, ना ही पैसे? तब तो टीबी एक मौत की सज़ा जैसी हो गई ना?

इसलिए, अगर सरकार ‘निक्षय पोषण योजना’ शुरू कर रही है, तो यह किसके लिए है? यह तो मेरे लिए किसी काम की नहीं होगी। क्या सरकार को सच में यह लगता है कि टीबी मरीज़ों को हर महीने 500 रुपए देने से उनकी पोषण की ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी? सरकार को अपने कुछ अधिकारियों को बाज़ार में भेजना चाहिए और उन्हें यह पता करने के लिए कहे कि 500 रुपए में क्या खरीद सकते हैं। इसके बाद उन्हें सबकुछ समझ में आएगा।

सरकार को अपनी इस स्कीम की राशि बढ़ानी चाहिए

मैं एक निम्न मध्यम वर्ग (बेहद साधारण) परिवार से हूं। मैंने खुद टीबी के कारण होने वाली गरीबी भरा जीवन देखा है। यह बात सब समझते हैं कि पर्याप्त पोषण ना होने का सीधा परिणाम गरीबी और भुखमरी होती है, इसलिए मैं एक बार फिर से यही पूछूंगी कि क्या 500 रुपए काफी हैं?

मैं अपने खुद के अनुभव से यह बता सकती हूं कि टीबी का इलाज बेहद थकाने वाला और लंबा चलता है। इसका इलाज कराते वक्त आप काम नहीं कर सकते। मैं पूरे यकीन से कह सकती हूं कि 500 रूपए की राशि एक टीबी मरीज़ की पोषण ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी नहीं है। मेरा मानना है कि इस राशि को बढ़ाने से मरीज़ों को बेहतर पोषण और आर्थिक मदद मिल सकेगी और वो ठीक से अपना पेट भर सकेंगे। इसके अलावा, इस योजना के लिए जागरूकता अभियान चलाने से मरीज़ों को इसका लाभ उठाने में मदद भी मिलेगी।

अगर भारत 2025 तक टीबी को समाप्त करने का लक्ष्य रखता है, तो इस योजना को अधिक वास्तविक, संवेदनशील और मरीज़ों पर केंद्रित बनाना होगा। इसे सिर्फ नाम के लिए एक सरकारी योजना बनाने का कोई फायदा नहीं। भारत में दुनियाभर के सबसे अधिक टीबी मरीज़ हैं। हर मिनट टीबी से एक व्यक्ति की मौत होती है। यह मौतें सिर्फ टीबी के कारण नहीं बल्कि गरीबी और खराब पोषण के चलते भी हो रही हैं। हमें टीबी मरीजों को पर्याप्त मदद देने के साथ ही उनका पेट भी भरना होगा।

(तेजल, XDR टीबी विजेता, सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी की सदस्य)

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