फौज़ में काम करने वाले देश के जवानों के घर का सदस्य होना बड़ा ही मुश्किल काम होता है। एक माँ को दिल पर पत्थर रखकर अपने बेटे को देश की रक्षा के लिए सरहद पर भेजना पड़ता है।
देश के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह लिए जब कोई भी फौज़ में भर्ती होता है, तब उसके घरवाले खुश तो होते हैं लेकिन कहीं ना कहीं ज़हन में डर सा लगा रहता है। उसी डर की बानगी पुलवामा आतंकी हमले में देखने को मिली।
एक फौजी जब घर से निकलता है तो वह अपने पिता और माँ को सीने से लगाकर अपनी पत्नी को थोड़ा सा प्यार देकर घर से विदा होता है।उसके जाने के बाद पिता बस हर खबर पर नज़र बनाए रखते हैं कि कहीं कोई बुरी खबर ना आए।
माँ बार-बार दरवाज़े की तरफ देखती रहती हैं, पत्नी कभी फोन तो कभी शादी वाली तस्वीरें निहारती रहती हैं। सब एक ही आस के साथ जीते हैं कि इस बार छुट्टियों में बेटा ज़रूर आएगा लेकिन जब वही बेटा ताबूत में बंद होकर घर लौटता है तब परिवार पर क्या गुज़रती है, वह उनसे बेहतर कौन समझ सकता है।
यह सब देखकर बहुत अजीब लगता है क्योंकि जो बेटा हंसते-खलते सरहद पर गया था, वह शांत होकर लौटा है। पिता के पैर नहीं छुए, माँ को गले नहीं लगाया और पत्नी से प्यार भरी बातें भी नहीं की। अपनी आंखें मुंदकर बस ताबूत में लेट गया।
एक फौजी का जीवन उतना आसान भी नहीं होता है। वह चाहे अपने घर में ही क्यों ना रहें लेकिन उन्हें जानकारी होती है कि उनकी अनुपस्थिति में उनके तमाम साथी किस प्रकार से सरहत पर तैनात हैं।
पुलवामा हमले में शहीद हुए 40 से ज़्यादा जवानों के साथ भी तो यही हुआ। उन जवानों के ज़हन में देश की रक्षा और परिवार वालों को बेहतर जीवन देने के लिए ना जाने कितनी चीज़ें होंगी लेकिन एक झटके में ही सब खत्म हो गया।
एक पत्नी के लिए कितना मुश्किल होता होगा अपने पति को सरहद पर भेजकर अकेले एक उम्मीद के सहारे जीवन व्यतित करना।
हमारे देश में कई आतंकवादी हमले हुए हैं लेकिन हमने पूर्व के हमलों से कुछ सीखा ही नहीं है। इस वक्त देश के हालात काफी नाज़ुक मोड़ पर हैं, जहां हर तरफ पुलवामा आतंकी हमले का विरोध करते हुए लोग हिंसा कर रहे हैं।
ऐसे संवेदनशील वक्त पर हमें हिंसा जैसी चीज़ों से बचने की ज़रूरत है। हम हिंसा का रास्ता ना चुनकर शहीदों के घरवालों का सपोर्ट भी कर सकते हैं। इस लेख के ज़रिये मैं आपलोगों से अपील करती हूं कि देश के अलग-अलग इलाकों में हंगामा ना मचाकर मुल्क में शांति बनाए रखें।
जय हिंद।