“उदास क्यों होती है, बस शादी में दो महीने ही तो बाकि हैं मेरी जान। उसके बाद तो उम्र भर साथ रहेंगे।”
“जम्मू वाली इस पोस्टिंग के बाद होम पोस्टिंग मिलेगी फिर तुझे भी ले चलूंंगा।”
“जाते वक्त तू यूं रोयेगी तो मुझे सफर में तेरी रोती हुई सूरत याद रहेगी।”
“अगली बार घर आऊंगा तो पापा की आंखों का ऑपरेशन करवा दूंगा।”
“कोई नहीं तेरे अगले जन्मदिन पर पक्का तुझे तेरी पसंद वाली गुड़िया दिलवाऊंगा। हां-हां तेरे जन्मदिन पर मैं आऊंगा।”
“तू जानती है ना, मैं वादे का पक्का हूं। तेरे लिए वापिस आऊंगा।”
घर से जाते वक्त किए ऐसे और भी ना जानें कितने वादे हमेशा-हमेशा के लिए अधूरे रह गए। इन्हें पूरा करने के लिए अब वे कभी लौट कर नहीं आएंगे। बिछड़ने से पहले आने का वादा करते हुए जो प्रेमिका के माथे को चूमा होगा, पापा को गले से लगाया होगा, बेटी के गालों को छू कर दुलराया होगा, बस वह छुअन ही आखिरी छुअन बन कर रह गई।
आज प्रधानमंत्री जी पाकिस्तान को अल्टीमेटम दे रहे हैं और रक्षामंत्री करारा जवाब देने की बात कर रहे हैं मगर यह हम और आप भी जानते हैं कि इन भाषणों में कितनी सच्चाई है।
उरी अटैक हुआ, उस पर फिल्म बनीं, मोदी जी भाषण में उस फिल्म का डायलॉग बोलते हुए समझने लगे कि आतंक का खात्मा कर दिए हैं। सर्जिकल स्ट्राइक का क्रेडिट ऐसे ले रहें हैं जैसे खुद मोर्चा संभाली थी।
पुलवामा हमलों की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान के सिर पर मढ़ कर तालियां बटोरेंगे। आने वाले दिनों में ना तो मोदी जी को और ना ही किसी भी बड़े राजनेता को फर्क पड़ने वाला है, चाहे वे सत्ता या फिर विपक्ष में ही क्यों ना बैठे हों।
आइए बताती हूं कि फर्क किन्हें पड़ता है। हम जैसे मिडिल क्लास वालों को फर्क पड़ता है क्योंकि हमारे बच्चे 10वीं और 12वीं पास करते ही सेना में भर्ती होने के लिए दौड़ने लगते हैं।
हमारे पास उनको डॉक्टर और इंजीनियर बनाने के लिए पैसे नहीं होते हैं। हमारे घरों के लड़के ठीक-ठाक ज़िंदगी की उम्मीद में सेना में भर्ती होते हैं। आमतौर पर इनके माँ-बाप किसान होते हैं जिस वजह से यह सोच लेते हैं कि कम-से-कम बाहरी आमदनी तो आ जाएगी।
मेरी बातें कड़वी लगे मगर सच्चाई यह है कि अगर उनके पास पैसा हो तो वे अपने बेटों को यूं मौत के मुंह में नहीं ढकेलेंगे। फिल्मों में जोश और पैशन जो दिखाते हैं ना वे सिर्फ ईक्के-दुक्के लड़कों की कहानी है।
बाकि के लड़के अपने घरों की आर्थिक हालत को सुधारने के लिहाज़ से फौज़ में भर्ती होते हैं क्योंकि उन्होंने अपने माँ-बाप को खेतों में झुलस कर दो वक्त की रोटी के लिए स्ट्रगल करते देखा होता है।
ऐसे में जब घर के वही बच्चे शहीद हो जाते हैं, तब उनके घरों की क्या दशा होती होगी। यह चीज़ें ना तो किसी नेता को पता है और ना ही न्यूज़ चैनल वालों को उनके हालातों से कोई फर्क पड़ता है।
जवानों के शहीद होने के दो-चार दिनों तक नेताजी अपने भाषणों के ज़रिये लोकप्रियता बटोर लेते हैं और चैनल भी टीआरपी कमा लेता है। उसके बाद उस शहीद के घरवालों पर क्या गुज़रती है, यह कोई नहीं जानता।
आप शायद यकीन ना करें लेकिन इस वक्त मेरे घर में टीवी पर यह न्यूज़ नहीं चल रहा है क्योंकि मेरी बहन के पति डिफेन्स में हैं। वह किसी ऐसी जगह पोस्टेड हैं, जहां ऑक्सीजन भी ढंग से नहीं मिल पा रहा।
आप खुद सोचिए इस वक्त उनके मन पर क्या गुज़र रही होगी? अपनी बेटी को यूं डरा देख क्या मेरे माँ-बाप चैन से सांस ले पा रहे होंगे?
लोग अपने-अपने कम्फर्ट ज़ोन में बैठ कर सोशल मीडिया पर लिख रहें हैं कि वे कुर्बानी देने को तैयार हैं। बदला लेना है उन्हें और भी बहुत कुछ। यह बदला और कुर्बानी की बात तो छोड़िए, ज़रा इनसे पूछिए क्या ये कल को इन शहीदों के घरवालों की मदद के लिए अपना एक पैसा भी खर्च करेंगे?
क्या किसी शहीद सैनिक की बेटी से बिना दहेज़ लिए अपने बेटे की शादी करवाएंगे? क्या किसी सैनिक की विधवा को दूसरी ज़िंदगी देने की सोचेंगे? क्या एक विधवा अगर शादी कर लेगी तो उसे जज नहीं करेंगे?
सुनिए, यह कहना, “शहीदों की कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी, देश चुन-चुन कर बदला लेगा, जब तक सूरज-चांद रहेगा शहीदों आपका नाम रहेगा” से कुछ नहीं होने वाला है।
हममें से कितने लोगों को उरी में शहीद हुए सैनिकों का नाम याद है? नहीं ना? फिर ढोंग क्यों? अगर इन शहीदों के प्रति सच में आपके मन में श्रद्धा है तो दिल और दिमाग दोनों खोल कर जो आस-पास घट रहा है, उस पर नज़र डालिए।
देखिए कि इन 42 जवानों की मौत पर कौन किस तरह की रोटियां सेंकने की कोशिश कर रहा है। कौन उनके भले के लिए सोच रहा और कौन सियासत कर रहा है। खैर, हमारे सामने सैकड़ों सवालों को छोड़कर देश के वे जवान शहीद हो गए।
नोट: यह लेख पंकज प्रभु के अकाउंट से अन्नु रॉय ने लिखी है।