पिछले एक दशक में छोटे शहरों के सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों से आई घरेलू कामगार महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान उसी तेज़ी से उनका शोषण और उनके कानूनी अधिकारों के हनन के भी कई मामले सामने आए हैं लेकिन इन घरेलू कामगार महिलाओं के अधिकारो एवं इनके हालातों को सुधारने के अभी तक कोई ज़मीनी कदम नहीं नज़र आते दिखते हैं।
आदिवासी महिलाएं खुद के परिवार के साथ-साथ दूसरों के परिवारों की देखभाल भी एक घरेलू कामगार के रूप में करती हैं। यह घरेलू कामगार महिलाएं शहरों में किसी ज़रूरतमंद शहरियों के घरों को संभालती हैं। अकसर देखा गया है कि बड़े शहरों में आदिवासी घरेलू कामगार महिलाओं के साथ शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है।
शहर के तथाकथित समाज के संभ्रात लोग जब अपने प्रोफेशनल जीवन में व्यस्त होते हैं तब सुबह से लेकर रात तक पूरे घर की ज़िम्मेदारी यानि घर के किचन से लेकर घर की पूरी साफ-सफाई का ख्याल रखने वाली गरीब परिवारों से आई घरेलू कामगार महिलाएं होती हैं। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने से लेकर रात्रि भोजन का इंतज़ाम भी यही घरेलू कामगार आदिवासी महिलाएं करती हैं।
ऐसे में उनके घरों की ज़िम्मेदारियां संभाल रही हैं ‘डोमेस्टिक हेल्पर’ यानि ‘घरेलू कामगार।’ आभा सूद जो पेशे से एक डॉक्टर हैं उनका कहना है, “इनके बिना हम लोग कुछ नहीं कर सकते हैं। हमारा घर इनके भरोसे ही चल रहा है। इनके हेल्प के बिना मैं अपना प्रोफेशन भी ठीक से नहीं कर सकती हूं। अगर ये ना हों तो हमारा महीने का प्रोफेशनल काम काफी कम हो जाता है। हमारे पास मेरे रिलेटिव्स नहीं है तो यही हमारे रिलेटिव्स हैं।”
आदिवासी प्रथा के अनुसार किसी दूसरे के घरों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता है। आज आदिवासी लड़कियां भूख और गरीबी के कारण दूसरों के घरों में काम करने के लिए मजबूर हैं। दिल्ली शहर में घरेलू कामगार के रूप में झारखंड से आई आइयना कुजूर बताती हैं, “हमारे घर में गरीबी के कारण हालात अच्छे नहीं थे। खाने की भी बहुत दिक्कत थी और इस कारण मुझे दिल्ली जैसे शहर में काम के लिए आना पड़ा।”
मेहनत, कर्मठता और ईमानदारी का पर्याय ये महिलाएं थोड़ी मेहनत और ट्रेनिंग के बाद घर के चूल्हे चौके और बच्चों की देखभाल का पूरा काम बखूबी संभाल लेती हैं। आदिवासी परिवार अपने परिवार के साथ-साथ दूसरों के परिवार को भी संभालती हैं लेकिन इनके कठिन परिश्रम और अथक योगदान को सम्मान और मान्यता देने में भी हमारा समाज और राष्ट्र कंजूसी करती है।
ये घरेलू कामगार अपनी सांस्कृतिक पृष्टभूमि से दूर जाकर असंगठित श्रमिक के तौर पर किसी के निजी घरों में काम करती हैं और इस दौरान इनके साथ अलग-अलग तरह के शोषण भी होते हैं। सुभाष भटनागर कहते हैं, “कोई कानून और नियम तो है नहीं जिस कारण यह लोग रजिस्टर्ड नहीं हो पाते हैं। जो लड़कियां काम पर नहीं जाना चाहती हैं उसके साथ मारपीट और बलात्कार के बल पर जबरन काम पर भेजा जाता है।
खुद के घर से दूर दूसरों के परिवार को संभालती इन कामगारों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। यह महिलाएं जिनके घरों में रात दिन काम करती हैं वह परिवार अपने परिवार के ज़रूरत के लिहाज से इन्हें नौकरी पर रखता और हटाता है। आर्थिंक रूप से आत्मनिर्भर इन लडकियों से शादी करने से भी आदिवासी लड़के डरते हैं।
दिल्ली जैसे महानगरों में काम करने गई इन लडकियों से शादी करने से इंकार करने का उन आदिवासी लड़कों के ज़हन में केवल यह शंका होती है कि यह लड़कियां अच्छी नहीं होंगी। ऐसा सोच इन कामगार लडकियों के वैवाहिक जीवन के लिए परेशानी का सबब बन रहा है जिस वजह से आज कई कामगार लड़कियां कुंवारी ही रह गई हैं।
संघर्ष और कर्मठता की यह प्रतिमूर्ति जीवन भर तल्लीन रहती है उसी देश और परिवार की सेवा में लेकिन इनकी सुरक्षा के लिए बेहतर कानून भी नहीं बना पाते।