पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले से आज पूरा देश व्यथित है। धर्म और नफरत की आग में हमारे 42 जवान शहीद हो गए। पूरा देश इस हमले की निंदा कर रहा है। आतंकियों के इस कायरतापूर्ण कृत्य को लेकर देश के लोगों में काफी आक्रोश है। हर कोई अपने जवानों की शहादत का बदला चाह रहा है लेकिन क्या हिंसा और नफरत के इस सफर का कोई अंत है?
शायद नहीं, क्योंकि नफरत से नफरत ही पनप सकती है, प्रेम और दोस्ती नहीं। क्यों ना हम एक ऐसा देश बनाएं, जहां धर्म और जाति जैसी क्षुद्र भावनाओं की कोई जगह ही ना हो, जहां केवल एक धर्म हो इंसानियत का और एक ही मज़हब हो भाईचारे का। इसी दिशा में तमिलनाडु की रहने वाली एमए स्नेहा ने एक बेहद खूबसूरत पहल की है। 35 वर्षीया वकील एमए स्नेहा प्रतिभाराजा का कहना है,
जो लोग जाति और धर्म में यकीन करते हैं, जब उन्हें उसका सर्टिफिकेट मिल सकता है, तो फिर हम जैसे लोगों को क्यों नहीं, जो किसी जाति-धर्म को नहीं मानते?
बचपन से ही खुद को भारतीय कहने की मिली थी सीख
बचपन से ही स्नेहा की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई, जो जाति-धर्म जैसी चीज़ों में यकीन नहीं करता है। यही वजह है कि स्नेहा के जन्म से लेकर स्कूल-कॉलेज तक के सारे सर्टिफिकेट्स में जाति और धर्म का कॉलम हमेशा खाली रहा। जब भी स्नेहा से उसकी जाति या धर्म पूछी जाती, तो वह खुद को ‘भारतीय’ बताती, क्योंकि उनके पेरेंट्स ने उन्हें यही सिखाया था।
उन्होंने महसूस किया कि किसी भी सरकारी फॉर्म को भरते समय जाति प्रमाणपत्र देने की अनिवार्यता होती है, इसलिए उन्होंने निर्णय किया कि वह जाति-धर्म से परे अपनी एक अलग पहचान हासिल करेंगी। स्नेहा कहती हैं कि उनके फ्रेंड्स और रिलेटिव्स ने भी उनके इस निर्णय का हमेशा सम्मान किया और उन्हें पूरा सपोर्ट किया।
अलग पहचान के लिए नौ साल किया संघर्ष
जाति-धर्म से अलग अपनी एक अलग पहचान हासिल करने के लिए स्नेहा को नौ साल तक कठिन संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 2010 से लेकर 2017 के बीच उन्होंने पांच बार नो कास्ट, नो रिलीजन सर्टिफिकेट पाने के लिए आवेदन दिया पर हर बार सरकारी अधिकारी यह कहते हुए उनके आवेदन को अस्वीकार कर देते कि उनके पहले अब तक किसी को भी इस तरह का प्रमाणपत्र जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। अंतत: 2017 में स्नेहा ने छठी बार ग्रामीण प्रशासनिक पदाधिकारी और तहसीलदार को अपना आवेदन प्रस्तुत किया और उन्हें यह स्पष्ट किया कि वह किसी तरह की सरकारी योजना आदि का लाभ नहीं उठाना चाहती, इसलिए उनके आवेदन पर विचार किया जाना चाहिए।
‘नो कास्ट-नो रिलीजन’ सर्टिफिकेट की प्रथम प्राप्तकर्ता
आखिरकार गत 5 फरवरी को स्नेहा की कोशिशे रंग लाईं और तिरुपत्तूर के तहसीलदार टीएस साथियामूर्ति द्वारा उनके नाम पर देश का पहला ‘नो कास्ट, नो रिलिजन’ सर्टिफिकेट जारी कर दिया गया।
साथियामूर्ति जी कहती हैं,
स्नेहा का आवेदन मिलने पर हमने जब उनके डॉक्यूमेंट्स की जांच की तो पाया कि उनमें से किसी में भी उनकी जाति और धर्म का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि उनका पूरा परिवार इस परंपरा का निर्वहन कर रहा है, इसलिए उन्हें उनकी वास्तविक पहचान मिलनी चाहिए थी। वैसे भी आरक्षण व्यवस्था का विरोध करना कोई गलती नहीं है। हमारी लड़ाई शोषण के खिलाफ है, जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ नहीं।
अभिनेता ने राजनेता बने कमल हासन ने भी स्नेहा के इस अचीवमेंट को ट्वीट करते हुए उन्हें बधाई दी है। स्नेहा के पति प्रतिभाराजा कहते हैं, “जाति-धर्म के बंधनों को ना मानने की ज़िद ने ही हमें एक-दूसरे के करीब आने का मौका दिया। स्नेहा ने इससे इतर अपनी पहचान पाने के लिए कई वर्षों तक संघर्ष किया है। आज जबकि उसकी यह कोशिश कामयाब हुई है, तो हम सब इससे काफी खुश हैं। अब हमें ऐसे कई लोगों के कॉल आ रहे हैं और वे हमसे इस तरह का प्रमाणपत्र पाने का तरीका पूछ रहे हैं”।
वह आगे कहते हैं,
हम जाति-धर्म रहित एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं, जहां लोगों को उसी रूप में स्वीकार किया जाये, जैसे वे हैं, क्योंकिे जब तक समाज में जाति-धर्म की व्यवस्था रहेगी, गरीबों व असहायों का शोषण होता रहेगा।
पितृसत्तामक समाज को दी चुनौती
स्नेहा अपने माता-पिता की सबसे बड़ी संतान हैं। उनके पिता आनंदकृष्णन और मां मनिमोझी ने बगैर किसी वैदिक मंत्रोच्चार और संस्कार के अंतर्जातीय विवाह किया था। स्नेहा भी पितृसत्तात्मक सामाजिक परंपरा को अस्वीकार करते हुए अपने नाम के आगे अपनी मां का पहले और फिर अपने पिता का नाम बाद में यूज़ करती हैं। इस तरह उनका पूरा नाम मनिमोझी आनंदकृष्णन स्नेहा प्रतिभाराजा है।
यही नहीं उनकी बहनों के नाम क्रमश: मुमताज सुरैया और जेनिफर है, जो कि भिन्न धर्म-संप्रदाय से संबंध रखते हैं।
स्नेहा कहती हैं,
हमारा बचपन अन्य बच्चों की तरह आसान नहीं था। हमें आए दिन नयी-नयी चुनौतियों और तानों का सामना करना पड़ता था। हमारे पेरेंट्स से अक्सर लोग यह पूछते थे कि बिना जाति प्रमाणपत्र के वे हमारी शादी कैसे करेंगे या फिर उन्हें आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा? इसके बावजूद हमारे पेरेंट्स ने अपना निर्णय नहीं बदला।
स्नेहा ने भी अपने पेरेंट्स का अनुसरण करते हुए बिना किसी वैदिक मंत्र-संस्कार के प्रोफेसर प्रतिभाराजा ने शादी की। वर्तमान में उनकी तीन बेटियां हैं, आथिरा नजरीन, आथिला इरेन और आरिफा जेसी। इन तीनों के नाम भी जाति-धर्म की सीमाओं से परे हैं।
स्नेहा कहती हैं,
जिस तरह मेरे पेरेंट्स ने मुझे किसी तरह के जाति-धर्म के बंधनों से मुक्त रखा, उसी तरह हम भी अपने बच्चों को सिर्फ एक इंसान बनने की प्रेरणा देना चाहते हैं।
कार्ल मार्क्स, डॉ अंबेदकर और पेरियार को अपना आदर्श माननेवाली स्नेहा जाति-धर्म से परे एक ऐसा समाज बनाना चाहती हैं, जहां बस प्यार और इंसानियत का वास हो।
लाखों लोग और भी हैं इस मुहिम में शामिल
जाति-धर्म से परे भारतीयता की एक अलग पहचान हासिल करने की यह मुहिम अकेले केवल स्नेहा की नहीं है। हैदराबाद निवासी डीवी रामाकृष्णा भी पिछले आठ वर्षों से यह लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके अलावा, मार्च 2018 में केरल के करीब सवा लाख से अधिक स्कूली छात्रों ने अपने स्कूल एडमिशन फॉर्म में जाति और धर्म से संबंधित कॉलम को नहीं भरा। राज्य शिक्षा मंत्री सी रविंद्रनाथ ने भी इस बात की पुष्टि की है।
आज एक ओर जहां देश में आये दिन जाति, धर्म, मज़हब, भाषा आदि जैसी विभिन्नताओं की आड़ में लोग एक-दूसरे की जान लेने से भी नहीं चूक रहे हैं, देश के भीतर द्वेष और वैमनयस्ता का माहौल बनता जा रहा है और हर इंसान खासकर अल्पसंख्यक समुदाय डर के साये में जीने को मजबूर है, ऐसे माहौल में स्नेहा और रामाकृष्णा जैसे लोगों की पहल हमें इस बात का एहसास दिलाती है कि इंसानियत अब भी ज़िन्दा है और हमें एक खूबसूरत दुनिया बनाने की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।