हमारे ज़हन में आदिवासी शब्द आते ही एक छवि बनती है, जिससे यकीनन पढ़ाई से जुड़ा कुछ भी नहीं दिखता लेकिन यह वे लोग हैं जो पशुओं से मोहब्बत करते हैं और उन्हें अपने साथ रखते भी हैं।
इन सबके बीच शहरी पढ़ा-लिखा तबका उस समय अपनी आंखें चुरा रहा है, जब आदिवासियों से उनके रहने की जगह छीनी जा रही है। कहीं ना कहीं यह ज़मीन औद्योगिकरण का मामला नज़र आ रहा है।
गौरतलब है कि 16 राज्यों के 11,27,446 आदिवासियों को बेदखल किया जा रहा है और यह फैसला देश की शीर्ष अदालत ने लिया है।
केंद्र सरकार ने आदिवासियों के अधिकारों वाले कानून के बचाव के लिए तीन जजों की पीठ के सामने 13 फरवरी को अपने वकीलो की पेशी ही नहीं की। इसी वजह से पीठ ने राज्यों को आदेश दिया कि वह 27 जुलाई तक उन सभी आदिवासियों को बेदखल कर दें और रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपे।
अब 11 लाख लोग अपनी जगह छोड़ते हुए ज़ाहिर तौर पर शहरों की तरफ जाएंगे और शहरों में ग्रामीण इलाकों के मुकाबले खेती तो होती नहीं है, इसलिए आदिवासियों के पास दूसरों के सामने हाथ फैलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
इन सबके बीच हमलोग खड़े होकर आलोचना करते हुए यह भी कहेंगे कि भीख देना गलत है। इससे पहले कि वे भूखे मर जाएं, उन्हें बता दिया जाए कि तुम्हें मारने की साज़िश रच ली गई है।
बिज़नेस टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 3.3 करोड़ केस पेंडिंग पड़े हैं और न्यायालय द्वारा ज़मीन हड़पने के मामले में अभी फैसला देना समझ से परे है।
‘वाइल्डलाइफ फर्स्ट’ जैसे संगठन की माने तो काफी तेज़ी से जंगलों की कटाई हो रही है। उनके मुताबिक अगर यह कानून बचा रह जाता तब भी 11 लाख लोगों को राज्य सरकार द्वारा बेदखल किया जाता। ऐसे में क्या किसी के पास जवाब है कि इन्हें बेदखल किए जाने के बाद कहां भेजा जाएगा?
इस ‘सो कॉल्ड समाज’ में वे आदिवासी जीवन व्यतित कर करेंगे ही क्या? रिसर्चर ‘सी आर बिजॉय’ के प्रकाशित शोध के अनुसार साल 2002-2004 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जब अंतिम बार देशभर में जनजाति समुदायों को बेदखल किया गया था, तब मध्य भारतीय जनजाति वन इलाकों में हिंसा, हत्याओं और विरोध प्रदर्शनों की बहुत सारी घटनाएं हुईं जिससे 3 लाख लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े।
आज 11 लाख लोगों को अपना आाशियाना छोड़ना पड़ रहा है। मेरे इस लेख का सरकार या सत्ता से कोई सीधा ताल्लुक नहीं है और ना ही न्यायपालिका के खिलाफ मेरा कोई नज़रिया है।
मैं बस यह कहना चाह रहा हूं कि पढ़-लिखकर तो हमने बहुत कुछ कर लिया है लेकिन ज़हन में थोड़ी सी भी इंसानियत होने पर इन गरीब आदिवासियों के बारे में विचार करना चाहिए।
खैर, मौजूदा हालातों में इंसानियत की परिभाषा देना ही गलत है। बस हर किसी को अपने कंफर्ट के हिसाब से सेक्युलर, कम्युनिस्ट, क्रांतिकार और पूंजीवादी जैसे चोले पहन लेने हैं।
अरे भई! यह वे लोग हैं, जिन्हें तुम्हारी किसी भी लिखित परिभाषा से कोई मतलब नहीं है, उन्हें पता है तुम पढ़े-लिखे हो, अब साबित करके कब दिखाओगे कि तुम भी उनकी तरह इंसान ही हो, जो हक और इंसाफ के लिए खड़ा होता है।