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पुलवामा: “क्या टीआरपी की संजीवनी के लिए मीडिया का तेवर उग्र है?

फोटो पत्रकार

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लोकतंत्र में मीडिया को जनता और सत्ता के बीच का पुल माना जाता है। मीडिया से हमेशा उम्मीद की जाती है कि वे अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए सच को सच और झूठ को झूठ कहें लेकिन पिछले कई वर्षों से मीडिया की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं।

पिछले 15 दिनों से एक पड़ोसी मुल्क के साथ तनाव की स्थिति में मीडिया का जो रवैया रहा, उसे लोग उम्र-भर नहीं भूल पाएंगे।

पुलवामा में जवानों की शहादत का गम पुरे देश को हुआ और होना भी चाहिए। उनकी शहादत का जवाब देने और बदला लेने के लिए देश में पूरा तंत्र चल रहा है, जो पूर्ण सक्षम है तथा हम सभी को विश्वास है कि वे माकूल जवाब देंगे।

चैनलों में युद्ध जैसी स्थिति

पुलवामा आतंकी हमले के बाद से मीडिया को जैसे टीआरपी की संजीवनी मिल गई हो। बड़े दिनों से हिन्दू-मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद से वह भी उक्ता चुका था, शायद इसी वजह से अपने न्यूज़रूम में भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छेड़ दी।

न्यूज़रूम का नाम वॉर रूम रख दिया गया। तब से ही मारो-काटो, तबाह कर दो और नक्शे से मिटा दो जैसी आवाज़े भी आ रही हैं। सोशल मीडिया पर इससे पहले जब भी किसी फेक न्यूज़ का बोलबाला होता था, तब इसी मीडिया द्वारा चेक किया जाता था कि बात सही है या नहीं मगर अब तो मुख्य मीडिया ही धड़ल्ले से फेक न्यूज़ चला रहा है।

झूठ का अड्डा बना मीडिया

बड़ी खबर और ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर जल्दबाज़ी और बिना रिसर्च के बड़ी-बड़ी खबरें बना दी जाती हैं और बाद में पता चलता है कि वह झूठ था। किसी ज़माने में मीडिया द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द “सूत्र” को लोग गंभीरता से लिया करते थे मगर अब वह विश्वसनीयता खत्म होती जा रही है।

कुछ ही न्यूज़ चैनल्स और एंकर्स के अलावा बाकी सभी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर पढ़े उन भक्तों की तरह बहस करते हैं जैसे पान की थड़ी या चाय के ठेले पर कर रहे हैं। इस दौर में जानकारियों का स्थान झूठ ने ले लिया हैस जहां पत्रकारिता की आत्मा धीरे-धीरे अंधकारित होती जा रही है।

जैश के ठिकानों पर एयर स्ट्राइक के बाद भारतीय विदेश सचिव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए कहा कि यह एक असैन्य कार्रवाई थी लेकिन उनकी बातों को अहमियत ना देते हुए मीडिया युद्ध करवाने पर उतारू हो गया।

गेम के वीडियो को एयर स्ट्राइक का वीडियो बताकर फैलाया जा रहा है। वॉर रूम बने स्टूडियो में कुछ एंकर्स सेना की वर्दी पहनकर बच्चों वाली बंदूक पकड़े हैं, तो कुछ त्रिशूल साथ लेकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। ज़मीन के सारे मुद्दे गायब हैं और राष्ट्रवाद बेचा जा रहा है।

ऐसी ही स्थिति पड़ोसी मुल्क की भी है जहां मीडिया अलग-अलग अंदाज़ में रिपोर्टिंग करते हुए यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि हमने कोई जंग जीत ली है।

आम जनता के मन में असुरक्षा का माहौल

यह सच है कि मीडिया के चीखने-चिल्लाने से युद्ध नहीं होता है मगर आम जनता के मन में असुरक्षा का माहौल ज़रूर पैदा होता है। सीमावर्ती इलाकों के लोगों में भय व्याप्त होता है और जिन माँओं के पूत सेना में देश के लिए खड़े हैं, उन माँओं का कलेजा गले में रहता है। खैर, इन सबसे उन्हें क्या ?

लुटियंस में अपने एयर कंडीशन ऑफिस में बैठकर चार अपने जैसे बड़बोलों को बुलाकर युद्ध की घोषणा करना बहुत आसान है। वहीं बैठकर ये लोग देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटने लगे हैं। क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, सभी बातों पर बहस होने लगी है।

अपने बुरे दौर में मीडिया

एक एंकर रक्षा, कूटनीतिक, विदेश, अर्थ, व्यर्थ सभी मामलो का विशेषज्ञ बन जाता है और तय करने लगता है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों के साथ मैच होना चाहिए या नहीं, फिल्म इंडस्ट्री में पाक एक्टर होने चाहिए या नहीं और अपने अगले ही शो में वही एंकर पाकिस्तानी मीडिया के साथ कंबाइन शो कर रहा होता है। राष्ट्रवाद के दिखावे और दोगलेपन का यह स्वर्णिम काल चल रहा है।

फोटो साभार: Getty Images

आज जो बुद्धिजीवी वर्ग हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि आप जब आज के दौर का इतिहास लिखें, तब मीडिया की भूमिका को काले अक्षरों से रंगते हुए लिखना कि जब देश का जवान सीमा पर, किसान खेतों में, नौजवान सड़कों पर, विद्यार्थी हॉस्टलों में, बेटियां सड़कों पर, सफाईकर्मी गटर में, आदिवासी शहरों में और मज़दूर खदानों में  मर रहा था, तब यही मीडिया टीआरपी की वजह से देश को एक युद्ध की ओर धकेलने के लिए उतारू था।

नोट- अन्सार YKA के जनवरी-मार्च 2019 बैच के इंटर्न हैं।

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