क्रोध ठीक है पर उन्माद नहीं। साल था 2001 जगह था श्रीनगर विधानसभा परिसर और एक टाटा सूमो कार से फिदायीन हमला किया गया और इसमें 38 लोग मारे गए। फिदायिन हमला 2001 से पहले भी होते रहे हैं और 2001 के बाद भी पर 2001 के बाद से इन फिदायीन हमलों का ट्रेंड बदल गया था। पहले वो छोटी-छोटी जगहों को निशाना बनाते थे, जिसमें 2,3 आम नागरिक मारे जाते थे पर जैश ए मोहम्मद का मुख्य सरगना के भारत से रिहाई के बाद ट्रेंड बदल गया। मसूद अजहर तालिबान की तरह बड़े-बड़े ठिकानों को निशाना बनाने लगा, जिसमें उसने फिदायीन का सबसे ज़्यादा प्रयोग किया।
14 मई 2002 को जम्मू के पास कालू चक इलाके में फिदायिन हमला हुआ। सैन्य क्षेत्र में हुई फिदायीन हमले में 36 सैन्यकर्मियों, उनके परिवार व अन्य की मौत हो गई थी। इसमें 48 लोग ज़ख्मी हुए थे। मतलब अब निशाने में सीधे सैन्यकर्मी थे और VVIP लोग।
फिर कई सालों तक फिदायिन हमले में ब्रेक लग गया आतंकवाद जारी रहा। 2009 मुम्बई बम ब्लास्ट भी एक तरह का फिदायिन हमला ही था पर पूर्ण रूप से नहीं। 2013 में हुआ फिदायिन हमला हुआ और फिर शांति बनी रही और फिर अब पुलवामा में फिदायिन हमला हुआ।
फिदायीन हमला क्या है?
फिदायीन हमला या आत्मघाती हमला मतलब, जिसमें हमलावार खुद को भी नष्ट कर ले। यह आतंकवादियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली एक आत्मघाती रणनीति है।
इसमें हमलावार खुद को हथियारों और गोला बारूद से लैस करता है, फिर वो एक सैन्य आधार, सुरक्षा चौकी या एक सैन्य संस्थापन में प्रवेश करता है और फिर वो इन कानून के रखवाले, सैन्य अधिकारिओं और जवानों पर गोलीबारी करने लगता है। यह सामान्यतः एक ऐसी सोच में विचरण करते हैं, जिसमें इन्हें स्वर्ग और तरह-तरह के लिए बरगलाया जाता है, ये एक खास धर्म जाति के लिए लड़ रहे होते हैं।
अब आते हैं असल मुद्दे में, पहले क्या होता था कि ये हमलावर अक्सर पाकिस्तान से होते थे पर सोशल मीडिया के आने के बाद से, अब आम कश्मीरी लड़के जिनकी उम्र 16 से 25 साल के बीच की है उन्हें आंतकवादी माना जाने लगा है। मतलब पढ़ने-लिखने वाली उम्र में वे आत्मघाती हमलावर बन गए। जिन हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए, उनमें पत्थर और बंदूके आ गई थीं। पुलवामा में भी जो युवक आतंकी बना है, वह भी एक 11वीं कक्षा का छात्र था और उसने इतने बड़े हमले को अंजाम दे दिया।
2013 के बाद से हालात ये हो गए कि पत्थरबाज़ी और सैन्यकर्मियों से टकराव सीधे आम कश्मीरियों से होने लगे। साल 2016 में सेना ने एनकांउटर किया बुरहान वाणी का और हालात फिर कुछ ऐसे बदले कि कश्मीर के युवा उसके समर्थन में सोशल मीडिया में आतंकी मैसेज वायरल करने लगे और सेना को दुश्मन समझने लगे। फिर क्या था टीवी चैनलों में बैठे एंकर, प्रवक्ता गोली मारने के आदेश देने लगे वो तो धन्य हो कि मोदी जी ने इन सबको नहीं देखा।
हालात यह हैं कि हम ऐसी घटनाएं सुनकर भावनाओं में बहकर उन्मादी होने लगते हैं, मन में भगत सिंह की कविताएं और विचार में नाथूराम गोडसे बन जाते हैं। समस्या यह है कि कश्मीर एक ऐसा राज्य है, जिसके बारे में हर व्यक्ति बिना उसको समझे, जाने ज्ञान देने लगता है।
उरी हमला हुआ, पठानकोट हुआ और फिर सर्जिकल स्ट्राइक भी हुआ पर क्या आतंकवाद कम हुआ? नहीं। यहां तक कि नोटबंदी को भी प्रधानमंत्री जी ने आतंकवाद पर कड़ा प्रहार बताया पर हालात जस के तस है।
अब आते हैं, पुलवामा हमले पर
14 फरवरी को श्रीनगर जा रहे सीआरपीएफ के 2500 जवानों पर एक कार से फिदायीन हमला हुआ और फिर टीवी स्क्रीनों पर “बदला! बदला! बदला”, “हमें बदला चाहिए”, “अब बात नहीं आर-पार हो”। ऐसे ही तरह-तरह की सुर्खियां टीवी स्क्रीन पर 14 फरवरी की शाम से टहलने लगी।
देखते ही देखते पत्रकार प्रवक्ता बन गए और प्रवक्ता रैली में निकल गए। कोई गाने बजाने में निकल गया तो कोई शादी ब्याह में पर उनकी जगह एंकर ने ले ली थी। एंकर उसी भाषा में बात करने लगा जैसे प्रवक्ता ललकारते हैं, मानो प्लासी का युद्ध लड़ रहे हो।
15 फरवरी का सूरज निकला और एंकर ऐसे लगने लगे कि जैसे वे रानी लक्ष्मीबाई और महाराणा प्रताप बन गए हैं, स्क्रीनों पर शहीद सैनिकों के पिता, माता, बेटी, पत्नी की सिसकियों के साथ टीआरपी का उन्माद सर चढ़कर बोल रहा था।
2,3 पाकिस्तानी पत्रकारों को बिठाकर भारतीय नेताओं से गालीबाज़ी शुरू करा दी गई और देखते ही देखते चैनलों की टीआरपी में उछाल आ गया। सोशल मीडिया में बदला बदला तैरने लगा और नेता, मंत्री रैली पर रैली कर रहे थे।
सोशल मीडिया में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की भी फोटोशॉप तस्वीरें उछाल मारने लगीं। हर दल बंधुआ मज़दूर सोशल मीडिया में गरियाने लगे और नेता जी लोग अगले दिन यानी 16 फरवरी को सैनिकों के परिवारों के बीच जा जाकर तस्वीरें पोस्ट करने लगे। कोई उनकी अंतिम यात्रा में फुल मेकअप के साथ जाते, तो कोई खिलखिलाते हुए।
फिर नेता लोगों ने इशारा किया और फिर बंधुआ मज़दूर नाथूराम की तरह निकल पड़े। जयकारा लगाते हुए और कश्मीरी स्टूडेंट्स को उनके कमरे से निकाल निकालकर पीटने लगे। इन सबके बीच सरकार के मुखिया क्या कर रहे थे?
वे परियोजना पर परियोजना की झड़ी लगा रहे थे और विपक्षी नेता आरोप प्रत्यारोप में सरकार की बखिया उधेड़ रहे थे पर सबसे बड़ा सवाल कि चौथा स्तम्भ क्या रहा था? वह भीड़ को आवाज़ दे रहा था, उन्माद करने के लिए। इतिहास याद रखेगा और उन शहीदों के बच्चे भी कि जब हम क्रोध में और दुख में थे तब आप क्या कर रहे थे। आखिर इसमें सबसे बड़ा सवाल क्या है?
सुरक्षा पर सवाल
सवाल वही है जो नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के पहले मौजूद यूपीए सरकार से पूछा करते थे कि आखिर इतनी बड़ी तादाद में आरडीएक्स कैसे आया? घाटी में इतना तनाव होने के बावजूद और खुफिया एजेंसी के एलर्ट के बावजूद एहतियात क्यों नहीं बरती गई? एक कार बम के रूप में कैसे तैयार हो गई? आखिर लगातार कैसे कश्मीरी युवक हिजबुल, जैश ए मोहम्मद के साथ आ गए? सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही होती हैं कि इन सबके बावजूद लगातार एक से बढ़कर एक हमले हो रहे हैं? कश्मीरी युवक क्यों आतंक का रास्ता अपना रहे हैं?
ये सब सवाल अखबारों और चैनलों से गायब हैं, सोशल मीडिया पर ये सवाल करने पर गाली और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया जाने लगता है पर सवाल यहां नहीं तो कहीं और से बाहर निकल के आएंगे ही।
कश्मीरियों को मारने का समर्थन करने वाले और मारने वाले लोग भूल गए हैं कि इसी आर्मी में औरंगज़ेब जैसा वीर सैनिक भी कश्मीरी था।
मुसलमानों को पकड़कर वंदे मातरम्, भारत माता की जय बुलवाने से देशभक्ति नहीं तुच्छता नज़र आती है।
ये चैनलों पर बैठे एंकर और घरों में पैर में पैर चढ़ाकर बैठे लोगों को अगर पता होता कि हर युद्ध के बाद हर देश का क्या हुआ है तब यह कभी नहीं कहते कि युद्ध करो। 2009 मुम्बई में आतंकी हमला हुआ, तो दबाव और सवाल ऐसा बढ़ा कि तबकी मौजूदा सरकार के गृहमंत्री शिवराज पाटिल को इस्तीफा देना पड़ा और साथ ही महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री आर आर पाटिल को भी इस्तीफा देना पड़ा था।
अब सोचिए आज किससे सवाल किए जा रहे हैं, ना राज्यपाल से, ना सुरक्षा एजेंसियों से, ना ही रक्षामंत्री से, ना ही गृहमंत्री से, ना ही NSA से और प्रधानमंत्री से सवाल का मतलब है कि देश से सवाल। खैर, जो भी हो सरकार से सवाल करते रहिए पर धैर्य के साथ, उन्मादी होकर नहीं। सरकार पर भरोसा भी रखें। आतंकवाद का मकसद ही यही है कि आप आक्रोश में आकर बंदर बन जाएं और देश में आग लगा दें।
उन लोगों से भी विनम्र प्रार्थना है जो पाकिस्तान के समर्थन में खुशियों भरा सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं कि उनको पाकिस्तान का समर्थन करना है। बिल्कुल करें पर यहां नहीं बॉर्डर के उस पार। तब आपको पता चले कि एक लोकतांत्रिक देश और एक इस्लामिक देश में रहने से क्या होता है।
एक आखिरी बात कि बंदरों से विकास के बाद हम इंसान बन गए तो यह हमारा कर्तव्य है कि हम मानवता को बनाए रखे। आप सब अपना बहुत ख्याल रखे और देश का सौहार्द, एकता को बनाए रखे।