पुलवामा में आतंकियों द्वारा 42 सीआरपीएफ जवानों की हत्या के बाद देशभर में शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए शोक-सभाओं और जुलूसों का आयोजन किया जा रहा है। इस घटना के बाद सम्पूर्ण भारत खासकर उत्तर भारत में एक अनियंत्रित भीड़ का धरातल तथा सोशल मीडिया पर उदय हुआ है।
इस भीड़ की अभिव्यक्ति तरह-तरह के माध्यमों से आ रही हैं। कहीं यह जुलूस, कहीं शोकसभाओं और कहीं दोनों रूपों में है। इस समय जुलूसों का तांता सा लगा हुआ है।
बेहद आक्रामक हैं नारे
इन जुलूसो में लगने वाले नारे बेहद आक्रमक हैं, होने भी चाहिए क्योंकि देश ने जवानों को खोया है। अधिकतर जुलूसों में जिस तरह के नारों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह सभ्य समाज को शोभा नहीं देता है। उदाहरण के तौर पर एक जुलूस में लगने वाले नारे कुछ इस प्रकार हैं, “हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद, पाकिस्तान मुर्दाबाद, भारत माता की जय।”
चलिए मान लेते हैं कि यह नारे ठीक भी हैं लेकिन पाकिस्तान के नाम पर माँ और बहन की गालियां एक सभ्य समाज को शोभा नहीं देती है। जिस जुलूस में आगे नेतृत्व करने के लिए महिलाओं को रखा गया हो उसी जुलूस में पाकिस्तान विरोधी नारे तो ठीक हैं लेकिन महिला विरोधी नारे कहां तक जायज़ हैं?
मर्यादा में रहकर विरोध कीजिए
यह भीड़ कहीं-कहीं तो कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रही है, जो कि किसी भी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। हमें इस घटना का जितना हो सके विरोध करना है लेकिन विरोध करने की मर्यादा में रहकर यह करना होगा।
नफरत का अड्डा बना सोशल मीडिया
इस घटना के बाद से सोशल मीडिया पर अनियंत्रित भीड़ का आगाज़ हुआ है जो अपने-अपने तरीके से शहीदों को श्रद्धांजलि दे रही है लेकिन उसी सोशल मीडिया पर अधिकतर लोग भाषा की मर्यादा को तार-तार कर दे रहे हैं।
सोशल मीडीया का यह समूह लगातार धार्मिक सदभाव को बिगाड़ने की कोशिश कर रहा है, जबकि देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अपील की है कि सामाजिक सौहार्द को ना बिगड़ने दें। एक समुदाय विशेष को लक्ष्य करके लगातार भडकाऊ टिप्पणियां की जा रही हैं और कहा जा रहा है कि घटना के लिए एक समुदाय विशेष के लोग ज़िम्मेदार हैं, जिन्हें सबक सिखाना ज़रूरी है।
शहीदों के परिजनों के साथ खड़े रहने की ज़रूरत
कुछ लोग तो शहीदों की जाति भी खोजने लगे और बताने लगे कि अमुक जाति का सैनिक है और अमुक जाति का नहीं है। आने वाले समय में देश के अमन चैन के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। इस विकट परिस्थिति में हमारा यह दायित्व बनता है कि सामाजिक सौहार्द ना बिगड़े। इसके अलावा हमें शहीदों के परिजनों के साथ खड़े रहने की ज़रूरत है।
यह देश कश्मीरियों का भी है
देश में उभरे जन-विरोध के बीच यह भीड़ कश्मीरी आवाम को देश के बरक्श एक दुश्मन की तरह पेश कर रही है। धरातल तथा सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश धड़ल्ले से साझा किए जा रहे हैं जिसका मूल सार यह है कि कश्मीरियों को देश से बाहर निकालो और उनका बहिष्कार करो।
“कश्मीरी वापस जाओ” और “कश्मीर हमारा है” जैसे नारे लगाने वालों को यह सोचना चाहिए कि कश्मीर जितना इस देश का है उतना ही यह देश कश्मीरियों का भी है। फिर कश्मीरी आवाम के साथ पक्षपात कितना जायज़ है? क्या यह भीड़ कश्मीर को हमसे अलग नहीं कर रही है?
इन नारों के बीच बिहार और हरियाणा में कश्मीरी छात्रों को धमकाने के वीडियो भी वायरल हुए हैं। आज ज़रूरत है कि जिस तरह देश शहीदों के साथ खडा है, उसी तरह कश्मीरिओं के साथ भी खड़ा हो।
सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल क्यों नहीं?
इस भीड़ का एक ऐसा रूप है जो शायद आपने देखा हो। यह भीड़ कहीं भी अचानक से पैदा हो जा रही है। जो युवा (सभी नहीं) कभी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, किसानों, सैनिकों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, महिलाओं और सरकार की नीतियों आदि प्रश्नों को लेकर सड़कों पर नही उतरे, वे भी आज भीड़ के रूप में सड़कों पर हैं।
यह सही है कि उन्हें ऐसे समय सड़कों पर होना चाहिए लेकिन यह भीड़ पाकिस्तान को गाली देने और फोटो लेने तक सीमित है। यह सवाल नहीं उठा रहे हैं कि आखिर सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई? इस घटना के लिए ज़िम्मेदार लोगों की जवाबदेही कैसे तय होगी?
अत: यह समय भारत को लोकतंत्र से भीड़तंत्र में बदलने से बचाने, शहीदों के परिजनों के साथ खड़े होने, सैनिकों की सुरक्षा की जवाबदेही तय करने, नीति निर्माताओं से प्रश्न करने, देश के सांम्प्रदायिक तथा सामाजिक सौहार्द को बनाए रखने, अल्पसंख्यक सयुदाय और कश्मीरी आवाम के साथ खड़े होने और सबसे बढ़कर देश बचाने का है।
नोट: कवर इमेज प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: ANI Twitter