गठबंधन की राजनीति में आखिर किसका फायदा होता है? राजनेता का? जनता का? या देश का? आमतौर पर हम इन सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश नहीं करते हैं लेकिन यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढ़ने की हमे कोशिश करनी चाहिए।
इसलिए नहीं कि हम किसी पार्टी से जुड़े हैं या नेता हैं बल्कि इसलिए कि हम एक मतदाता भी हैं और हमारे वोट का क्या परिणाम होने वाला है, इसका आंकलन हमें अवश्य करना चाहिए। जितना सम्भव हो सके, इसके दूरगामी परिणामों को करीब से देखना चाहिए।
गठबंधन का इतिहास पुराना है
ऐसा नहीं कि गठबंधन की राजनीति हाल के वर्षों में शुरू हुई है, भारतीय राजनीति में इसका इतिहास कई दशक पुराना है। अपने बौद्धिक क्षमता के अनुसार गठबंधन की राजनीति और उसका समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए। नेताओं की मानसिकता में आए बदलावों का अध्ययन कीजिये। आप पाएंगे कि कुर्सी के खेल में समाज आउट हो चुका है।
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान राजद सुप्रीमो लालू यादव अमूमन अपने हर चुनावी सभा में जातिगत जनगणना की बात करते थे।गौरतलब है कि चुनाव परिणाम महागठबंधन के पक्ष में रहा और महागठबंधन की सरकार में सबसे बड़ी पार्टी राजद थी।
लालू यादव के पुत्रों को उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री सहित करीब 5-6 विभाग का मंत्रालय मिला। सरकार बनते ही लालू यादव भूल गए कि उन्होंने अपने प्यारे जनता से कुछ वादे भी किए थे। दुलारे को अगर राजभोग का सुख मिला हो तो इंसान ‘आंख वाला अंधा’ हो जाता है।
करीब 20 महीने के महागठबंधन की सरकार के दौरान लालू यादव को एक बार भी जातिगत जनगणना की याद नही आई और ना ही ज़िन्दाबाद करने वाली जनता को यह होश रहा कि वे अपने नेता को उनका वादा याद दिलाती।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ लालू यादव ही वादा खिलाफी करते हैं बल्कि सभी बड़े-छोटे नेताओं का यही हाल है लेकिन हमने उनका नाम इसलिए लिया क्योंकि हम उन्हें भारत के सबसे बड़े जनाधार व सामाजिक न्याय वाले राजनेता के रूप में जानते हैं।
जाति और धर्म की राजनीति
नशे में लोग सब कुछ भूल जाते हैं, चाहे वो किसी भी चीज़ का नशा हो! यहां नेता और जनता दोनों को जाति-धर्म का नशा है। नशा ज्यों-ज्यों चढ़ता है, त्यों-त्यों ‘थोड़ा और’ का डिमांड करता है।
“हम अमुख जाति के नेता हैं, फलाना हमारी जाति का नेता है” वाली यह मानसिकता हमसे हमारा सब कुछ छीन रही है। नेता और जनता दोनों अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं।
हमारी मानसिकता का गठबंधन की राजनीति से गहरा संबंध है। जितनी भी राजनीतिक पार्टियां या राजनेता हैं वे जन-सरोकार को छोड़कर, जातिगत समीकरण करने में व्यस्त रहते हैं। राजनीतिक अर्थ में गठबंधन का इस्तेमाल राजनीतिक सत्ता पर नियंत्रण हासिल करने के लिए विभिन्न राजनीतिक समूहों के बीच अस्थायी समझौता किया जाता है।
राजनीतिक फैसले अगर अस्थायी होंगे तो इसमें राजनेता स्वहित को ही प्राथमिकता देंगे या देते हैं। वे अपनी शर्तों पर गठबंधन करते हैं जिसमें जनता के लिए कोई भी कार्य योजना नहीं होती है।
गठबंधन करना मजबूरी या ज़रूरी?
इस प्रश्न का जवाब ढूंढने के लिए आपको थोड़ा फ्लैशबैक के साथ अपने वर्तमान मानसिकता को भी टटोलना होगा। राजनेता जानते हैं कि जनता जातिगत समीकरण पर ही वोट देती है, इसलिए वे जातिगत गठबंधन करते हैं।
यह उनकी मजबूरी भी है और ज़रूरी भी! अब यहां एक और प्रश्न आता है कि जनता जातिगत समीकरण पर ही वोट क्यों करती है? इसका सीधा जवाब है कि भारतीय जाति व्यवस्था ने राजनेताओं को भी जातिगत सीमाओं में बांध दिया है।
सार्वजनिक जीवन में संवैधानिक पदों पर होते हुए भी वे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में जातिगत भेदभाव करते हैं और अपनी जाति के लोगों को प्राथमिकता देते हैं।
कुल मिलाकर ‘बीमारी’ दोनों तरफ है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें जनता तो मर रही है लेकिन नेताओं की मौज है। जनता मर रही मतलब देश बर्बाद हो रहा है। जनता ही देश है जी!
नेता समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख हो चुके हैं। जनता के सुख-दुःख से अब उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया है। जन-सरोकार की राजनीति अब गुज़रे दिनों की बात हो गई है।
लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति पन्नों में सिमट कर रह गई है। राजनेता जनता की आवश्यकताओं को भूलकर जातिगत समीकरण से अपने समाज के वोटों का सौदा कर लेते हैं। नेता का जनता से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा है। समाज से बहुत दूर हो चुके नेताओं के वोटों का बिजनेस एयर कंडीशनर कमरे में जनता को झांकने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होने देती है। होगी भी क्यों? जातिगत समीकरण है ना?
कुर्सी के खेल में समाज क्लीन बोल्ड हो चुका है
जनता को क्या करना चाहिए? सीधा जवाब है। आप अपने लिए कार्य योजना, आप से जुड़े रहने वाले, हर सुख-दुःख में साथ देने वाले और आपकी ज़रूरतों को समझने वाले नेता को ही वोट दें। चाहे वे किसी भी पार्टी, जाति या गठबंधन के क्यों ना हों।
“हम सुधरे, जग सुधरा”