स्वर्गीय ‘मृणाल सेन’ ऑस्कर में फिल्मों का पहुंचना अपनी फिल्मों की सफलता का पैमाना नहीं मानते थे। दो दिन पहले हापुड़ के काठीखेड़ा गाँव की दो महिलाओं के “पैड वुमन” बनने की कहानी ने ऑस्कर जीता है।
26 मिनट की शॉर्ट फिल्म ‘पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस’ ने बेस्ट डॉक्युमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट कैटेगरी में ऑस्कर जीता है। इस शॉर्ट फिल्म में पीरियड्स से जुड़ी गंभीर समस्याओं का सामना कर रहीं महिलाओं की कहानी है।
‘फुल्लू‘ और ‘पैडमैन’ जैसी फिल्मों के बाद ‘पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस’ शॉर्ट फिल्म भी पीरियड्स और सैनेटरी पैड्स के प्रति जागरूकता की कहानी बयां कर रही है।
ज़मीनी स्तर पर काम की ज़रूरत
देश की औसत महिलाएं आज भी पैसों के अभाव की वजह से सैनेटरी पैड्स का प्रयोग नहीं कर पाती हैं लेकिन समय-समय पर इसकी मार्केटिंग ज़रूर होती है। “पैडमैन” फिल्म के एक डायलॉग में अभिनेता अमिताभ बच्चन कहते हैं, “अमेरिका के पास सुपरमैन है, बैटमैन है और भारत के पास पैडमैन है।”
महिलाओं के लिए सस्ते पैड्स नहीं हैं
खैर, अब इस सूची में भारत के पास “पैडवुमन” भी हैं। अगर कुछ नहीं है तो महिलाओं के लिए सस्ते पैड्स ही नहीं हैं। आलम यह है कि भारतीय समाज में पीरियड्स के दौरान औसत महिलाएं तो सैनिटरी पैड्स इस्तेमाल ही नहीं कर पाती हैं।
भारत में एक नहीं बल्कि कई पैड-वुमन हैं जो अपने-अपने राज्यों में पीरियड्स और सैनेटरी पैड्स के लिए जागरूकता लाने की कोशिश कर रही हैं।
आंकड़े परेशान करने वाले
ओडिशा के गंजम ज़िले में बी गोपस्मा, बनारस की बेटी स्वाति सिंह, हरियाणा के झज्जर ज़िले के भदाना गाँव की कविता शर्मा और मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले की माया समेत कई गुमनाम लोग पैडमैन और पैड-वुमन की सूची में शामिल हैं।
नैश्नल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में केवल 48 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में केवल 78 प्रतिशत महिलाएं ही सैनेटरी पैड्स का उपयोग करती हैं। पीरियड्स के दौरान 62 फीसदी महिलाएं कपड़े का प्रयोग करती हैं और तकरीबन 16 फीसदी महिलाएं लोकल स्तर पर बनाए गए पैड्स का इस्तेमाल करती हैं।
महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी इस समस्या के प्रति समाज का सोच काफी तंग है। राजनीतिक इच्छाशक्ति ने भी इस मनोवृत्ति को जड़ से उखाड़ने के लिए कोई खास काम नहीं किया है।
सरकारों को जागरूक होना पड़ेगा
देश में सरकारें भी इस दिशा में उस स्तर पर जागरूक नहीं हैं जिस स्तर पर आधी आबादी को उनसे जागरूकता की उम्मीद है। लंबे कानूनी और कई तरह के आंदोलनों के बाद सैनेटरी पैड्स जो महिलाओं के स्वास्थ्य की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है, जीएसटी के दायरे से बाहर आ सकी है।
जिस चीज़ को अब तक देश में टैक्स फ्री हो जाना चाहिए था, उसकी गिनती लग्ज़री आइटमों में की जाती है। आधी आबादी के लिए पीरियड्स का मामला सिर्फ दाग और दर्द से नहीं जुड़ा हुआ है बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक विरोधाभास का मसला भी है।
समाधान पर चिंतन करना होगा
इसके बहस के दायरे को और अधिक बड़ा करने की ज़रूरत है। इस विषय पर बनी फिल्मों या डॉक्युमेंट्री से इस समस्या के बारे में लोगों को समझाया या बताया तो जा सकता है, तालियां भी बटोरी जा सकती हैं मगर समया से भिड़ने के लिए यह काफी नहीं है।
इसके लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मंचों पर आधी आबादी को एक साथ हल्ला बोलना होगा, जिससे महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा राजनीतिक सवाल बन सके। राजनीतिक पार्टियां इसे अपने मैनिफेस्टो का हिस्सा बना सके और समाज की तंग मानसिकता पर भी मज़बूत वार हो पाए।
अगर हम यह कर पाने में सफल नहीं होंगे तब ज़ाहिर सी बात है कि कई पैडमैन या पैड-वुमन तो ज़रूर खड़े होंगे मगर उनकी सारी कामयाबी या कोशिशें “ऊंट के मुंह में जीरा” ही साबित होती नज़र आएगी।