लोकसभा के आम चुनाव के लिए कुछ दिन ही बचे हैं और ऐसे में प्रधानमंत्री देशभर में ज़ोरों से चुनाव प्रचार कर रहे हैं। खैर, 2019 का चुनाव बीजेपी के लिए उतना आसान नहीं होने वाला है।
अगर पार्टी को बहुमत के पास जाना है तो उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करना होगा। चलिए यहां पर हम महाराष्ट्र की राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं।
शहरी मतदाता
2014 में प्रधान सेवक द्वारा किए गए वादों को याद करने की ज़रूरत है। खासकर, शहरी मतदाताओं के दर्द को समझने की ज़रूरत है क्योंकि उन्होंने काफी उम्मीदों के साथ मोदी जी को वोट दिया था। युवाओं की बात की जाए तो पूरे देश में रोज़गार एक बड़ी समस्या है।
महाराष्ट्र में भी कोई अलग तस्वीर नज़र नहीं आती है। डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया और मुद्रा लोन जैसी योजनाओं का युवाओं को बहुत कम फायदा मिला है। ऐसे में युवाओं में नाराज़गी बनी हुई है।
मुंबई की राजनीति
देश की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई के सियासी गलियारों में मुद्दे अलग हैं। मुंबई में व्यापारी समुदाय के बीच नोटबंदी और जीएसटी को लेकर नाराज़गी है। यह मुद्दा बीजेपी के लिए मुश्किल बन सकता है। गुजराती और उत्तर भारतीय मतदाताओं ने बीजेपी का समर्थन किया था लेकिन अब वह मतदाता काँग्रेस को विकल्प के तौर पर देख सकते हैं।
मराठी वर्चस्व का मुद्दा
बाला साहेब ठाकरे ने इसी मुद्दे को लेकर शिवसेना का गठन किया था। हालांकि बाद में हिंदुत्व के सहारे उन्होंने बीजेपी से गठबंधन किया। यह मुद्दा मुंबई की राजनीति में कुछ साल पहले असरदार था। राज ठाकरे ने इसी मुद्दे पर मनसे की स्थापना की थी।
अब यह देखा जा सकता है कि मनसे की राजनीतिक हालत ठीक नहीं है। इन परिस्थितियों को देखते हुए यह मुद्दा बेअसर साबित होगा।
किसानों की समस्या
महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर गन्ना किसान हैं जिन्हें सही वक्त पर भुगतान नहीं किया जाता है। कीमत की उतार-चढ़ाव पर भी किसानों में नाराज़गी बनी हुई है। इस साल प्याज़ का उत्पादन किसानों के लिए घाटे का सौदा रहा है।
संजय साठे नामक किसान प्रधानमंत्री को मनी ऑर्डर भेजने के कारण चर्चा में आए थे। राज्य सरकार ने किसान कर्ज़ माफी को लागू किया है लेकिन बड़ी संख्या में किसान इस योजना से वंचित हैं।
इस साल महाराष्ट्र सूखे का सामना कर रहा है जिसका बुरा असर खेती पर पड़ा है। ऐसे में सरकार के पास एक अच्छा मौका है कि वे किसानों तक मदद पहुंचा पाएं। अब देखने वाली बात यह है कि सरकार इसमें कितनी कामयाब होगी।
नागपुर का प्रभाव
संघ का अपना एक मज़बूत संगठन है जिसका दाएरा शहरों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी अगर 200 सीटों पर सिमट जाती है तब सहयोगी दल मोदी के नाम पर समर्थन नहीं देंगे। ऐसे में गडकरी को आगे किया जा सकता है। गडकरी की बयानों को इससे जोड़ कर देखिए।
भ्रष्टाचार
यह मुद्दा 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में काफी चर्चा में रहा। उस वक्त अजीत पवार, सुनील तटकरे और अन्य नेताओं पर बीजेपी के नेताओं द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए।
चुनाव प्रचार में नेताओं को जेल भेजने की बात की जाती थी। 5 साल हो गए लेकिन व्यापक स्तर पर कोई बड़े मुकदमें नहीं चले। इस बात को लेकर जनता अचरज में है।
प्रकाश आंबेडकर-ओवैसी गठबंधन
अल्पसंख्यक समुदाय काँग्रेस और एनसीपी का वोट बैंक रहा है। नए गठबंधन के बाद अल्पसंख्यक मतदाता काँग्रेस और एनसीपी से अलग हो रहे हैं। काँग्रेस के नेता प्रकाश आंबेडकर को अपने साथ लेने की बात कह रहे हैं।
अगर ऐसा नहीं होता है तब इसका सीधा फायदा बीजेपी को होगा जो विपक्ष के लिए सर दर्द है। काँग्रेस की कोशिश यही होगी कि प्रकाश आंबेडकर को अपने साथ जोडा जाए।
शिवसेना का फैसला
सत्ता में साथ होकर भी सरकार का विरोध शिवसेना लगातार कर रही है। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ द्वारा सरकार की नीतियों की कई बार आलोचना हुई हैं। शिवसेना अगर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करती है तो बीजेपी को महाराष्ट्र में भारी हार का सामना करना पड़ेगा। इस बात की संभावना बहुत कम है कि शिवसेना अकेले चुनाव लड़े।
महाराष्ट्र में कुल 48 लोकसभा सीटें हैं। 2014 में बीजेपी और सहयोगियों ने 42 सीटों पर कब्ज़ा किया था लेकिन इस चुनाव में इस संख्या में बढ़ोतरी असंभव है।
राज्य के राजनीतिक हालात देखने के बाद यह कहा जा सकता है कि असली कसौटी विपक्षी दलों की है। किस तरह वे लोगों के गुस्से को परिवर्तन में बदलते हैं क्योंकि विपक्षी दलों को सब कुछ पाना है। खोने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है।